—अनुष्टुप् छंद:—
तीर्थकृत्समवसृतौ, चतुर्थभूमिषु स्थिता:।
चैत्यवृक्षाश्चतुर्दिक्षु, ते मे कुर्वन्तु मंगलम्।।१।।
चैत्यवृक्षेषु चैत्यानि, चतुर्दिक्षु विभान्त्यपि।
तानि सर्वाणि बिम्बानि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।२।।
—दोहा—
समवसरण में शोभतीं, आठ भूमि सुरवंद्य।
उसमें चौथी भूमि में, चैत्यवृक्ष मुनिवंद्य।।३।।
इसमें चहुंदिश राजते, जिनवर िंबब प्रधान।
सब प्रतिमा सन्मुख नमूँ, मानस्तंभ महान।।४।।
—गीता छंद—
वृषभेश जिनके समवसृति में, वनधरा में पूर्वदिश।
वन है अशोक कहा वहाँ, तरु हैं कुसुम पत्रों भरित।।
उन मध्य एक अशोक तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१।।
वृषभेश जिनके समवसृति, दक्षिण दिशी वनभूमि में।
तरु सप्तछद शोभें बहुत, फल पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।२।।
वृषभेष प्रभु के समवसृति में, पश्चिमी वनभूमि में।
चंपक तरु शोभें बहुत, सुरभित कुसुम पत्ते घने।।
उन मध्य चंपक चैत्य तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।३।।
श्री आदिनाथ समवसरण में, उत्तरी वनभूमि में।
तरु आम्र के फल पुष्प पत्तों, युत वहाँ शोभें घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्यतरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।४।।
श्री अजितनाथ समवसरण में, पूर्वदिक् वनभूमि में।
तरु हैं अशोक अनेक विध, पुष्पादि से शोभें घने।।
उन मध्य चैत्य अशोक तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।५।।
सब भव्यजन का शरण, जो इस दक्षिणी वनभूमि में।
तरु सप्तछद शोभें विविध, फल पुष्प पत्रों युत घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।६।।
सब भक्तजन को दे शरण, उस पश्चिमी वनभूमि में।
चंपक तरु शोभे बहुत विध, पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य चंपक चैत्यतरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।७।।
धनपति रचित इस समवसृति में, उत्तरी वन भूमि में।
तरु आम्र के शोभें विविध, फल पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्य तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।८।।
संभव जिनेश्वर समवसृति में, वन धरा में पूर्व दिक्।
तरु वर अशोक विभासते, पुष्पादि से सौगंध युत।।
उन मध्य चैत्य अशोक तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।९।।
गणधरगणों युत समवसृति में, दक्षिणी वन भूमि में।
तरु सप्तच्छद शोभें विविध, पुष्पादि से फूले घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१०।।
मुनिगण सहित जिन समवसृति में, पश्चिमी वनभूमि में।
चंपक तरु शोभें विविध, पुष्पों सहित सुरभित घने।।
उन मध्य चंपक चैत्य तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।११।।
द्वादशगणों युत समवसृति में, उत्तरी वनभूिम में।
बहु आम्र तरु शोभें विविध, फल पुष्प पत्रों युत घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्यतरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।१२।।
जिननाथ अभिनंदन समवसृति, पूर्वदिक् वनभूमि में।
तरुवर अशोक विभासते, बहु पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य चैत्य अशोकतरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१३।।
जिनवर समवसृति सौख्यकर, दिश दक्षिणी वनभूमि में।
तरु सप्तछद शोभें वहाँ, बहु पुष्प पत्रों से घने।।
उन मध्य सप्तच्छद तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१४।।
जिनराजपरिषद सर्वहितकर, पश्चिमी वनभूमि में।
चंपक तरु शोभे विविध, कुसुमादि से सुरभित घने।।
उन मध्य चंपक चैत्य तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१५।।
जिनवर समवसृति सिद्धिप्रद की, उत्तरी वनभूमि में।
तरु आम्र के शोभें बहुत विध, पुष्प फल से युत घने।।
उन मध्य आम्र सुचैत्य तरु में, चार दिश जिनमूर्तियाँ।
जैवंत होवें नित्य ये, चिंतामणी जिनमूर्तियाँ।।१६।।
—नरेन्द्र छंद—
सुमतिनाथ के समवसरण में, पूरब वन भूमी में।
तरु अशोक के वृक्ष घनेरे, शोक हरें पलपल में।।
उनके बीच अशोक चैत्यतरु में, चहुंदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत, उनको शीश नमायें।।१७।।
जिनवर समवसरण में दक्षिण, दिश उपवन भूमी में।
सप्तच्छद के वृक्ष घनेरे, पुष्प सुगंधित उनमें।।
उनके बीच सप्तच्छद तरु, चउदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत, उनको शीश नमायें।।१८।।
सब मंगलकर समवसरण में, पश्चिम वनभूमी में।
चंपक तरु हैं नित पुष्पों से, सुरभि करें दशदिश में।।
उनके बीच वृक्ष चंपक में, चहुंदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत, उनको शीश नमायें।।२९।।
लोकोत्तम जिन समवसरण में, उत्तर वनभूमी में।
आम्रवृक्ष हैं फल पुष्पों युत, सुरनर रमते उनमें।।
उनके बीच आम्रतरु इनमें, चहुंदिश जिन प्रतिमायें।
प्रातिहार्य मानस्तंभोें युत, उनको शीश नमायें।।२०।।
पद्मप्रभू के समवसरण में, पूरब दिश उपवन में।
तरु अशोक सब पवन झकोरे, हिलते हैं क्षण क्षण में।।
उनके बीच अशोक चैत्य तरु, उस्ामें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२१।।
जिनवर समवसरण सुखदाता, दक्षिण दिश उपवन में।
वृक्ष सप्तछद पृथिवीकायिक, पुष्प पत्र हैं उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२२।।
समवसरण जन शरणभूत है, उसमें पश्चिम वन में।
चंपक वृक्ष सुगंधित सुंदर, सुरगण रमते उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु चंपक, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२३।।
समवसरण में उपवन भूमि, उत्तर दिश में सोहें।
आम्रवृक्ष फल पुष्पों से युत, सुरकिन्नर मन मोहें।।
उनके बीच आम्र चैत्यतरु, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२४।।
श्री सुपार्श्व जिनसमवसरण में, पूरबदिश उपवन में।
तरु अशोक हैं मणिमय पत्ते, पुष्प लगे हैं उनमें।।
उनके बीच वृक्ष इक सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२५।।
समवसरण त्रिभुवन हितकारी, उसमें दक्षिण वन में।
वृक्ष सप्तछद मरकतमणिमय, पत्तों से युत उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२६।।
समवसरण सब रोग शोकहर, उसमें पश्चिम वन में।
चंपक वृक्ष रत्नमणि निर्मित, उन सुगंध दश दिश में।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२७।।
समवसरण सब वैर कलह हर, उसमें उत्तर वन में।
आम्र वृक्ष सब कुबेर निर्मित, फल फूलोंयुत उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२८।।
चन्द्रप्रभू के समवसरण में, पूरब दिश उपवन में।
तरु अशोक उद्यान कुसुम युत, शोक हरे हर पल में।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।२९।।
जिनवर समवसरण श्रेयस्कर, उसमें दक्षिण वन में।
वृक्ष सप्तछद विविध रत्नमय, पत्र पुष्प हैं उनमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।३०।।
समवसरण है विश्वहितंकर, उसमें पश्चिम वन में।
चंपक तरु उद्यान मनोहर, खिले कुसुम उन सबमें।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।३१।।
समवसरण सब भव्य हितंकर, उसमें उत्तर वन में।
आम्रवृक्ष फल पुष्प भारयुत, सुरभि करें दशदिश में।।
उनके बीच चैत्यतरु सुंदर, उसमें चहुंदिश प्रतिमा।
उनको वंदूं सर्व सौख्यप्रद, लोकोत्तर जिन महिमा।।३२।।
—अडिल्ल छंद—
पुष्पदंत के समवसरण में वन मही१।
पूरबदिश में तरु अशोक वन सोभहीं।।
उसके मध्य अशोक चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।३३।।
समवसरण जिनवर का नवनिधि से भरा।
उसमें दक्षिण दिश सप्तच्छद वन धरा२।।
उसके बीच सप्तछद तरु इक शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।३४।।
पुष्पदंत जिन अधर राजते गगन में।
समवसरण में चंपक वन दिश अपर में।।
उसके बीच चैत्य चंपकतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।३५।।
पुष्पदंत की दिव्यधुनी मुनिगण सुनें।
उत्तरदिश में आम्र वनी में तरु घने।।
उसके बीच आम्र चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।३६।।
शीतल जिनका समवसरण शीतल करे।
उसमें पूरब दिश अशोक वन मन हरे।।
उसके मध्य अशोक वृक्षवन शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।३७।।
समवसरण में चैत्यवृक्ष को मुनि नमें।
दक्षिण में सप्तच्छद वन में सुर रमें।।
उसके मध्य सप्तछद तरु इक शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।३८।।
चैत्यवृक्ष जिनप्रतिमा गणधर वंद्य हैं।
पश्चिमदिश में चंपक वन अभिनंद्य है।।
उसके मध्य चैत्य चंपकतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।३९।।
सुरनर पूजें चैत्यवृक्ष जिनबिंब को।
उत्तर वन में चैत्य आम्रतरु बिंब को।।
यह वन मणिमय प्रतिमा से अति शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४०।।
श्री श्रेयांसजिनसमवसरण अतिशय भरा।
त्रिभुवन जन क्षेमंकर पूरब वन धरा।।
उसके मध्य अशोक चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४१।।
जिनवर समवसरण में सुरपति भक्त हैं।
दक्षिण दिश सप्तच्छद वन अतिरम्य है।।
उसके मध्य सप्तछद चैत्य तरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४२।।
जिनवर समवसरण सौ इंद्रों वंद्य है।
पश्चिम दिश में चंपक वन अभिनंद्य है।।
उसके बीच चैत्य चंपक तरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४३।।
समवसरण में रोग शोक पीड़ा नहीं।
उत्तर दिश में सुन्दर आम्रतरु मही।।
उसके बीचों आम्र चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४४।।
वासुपूज्य जिन समवसरण में राजते।
वहाँ पूर्ववन में अशोक तरु लसें।।
उसके मध्य अशोक चैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४५।।
समवसरण में भूख प्यास बाधा नहीं।
दक्षिण दिश में सप्तच्छद वन की मही।।
उसके मध्य सप्तछद तरुवर शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४६।।
समवसरण में अपमृत्यू भय दुख नहीं।
पश्चिमदिश चंपक वन अतिशय शोभहीं।।
उसके बीच चैत्य चंपकतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४७।।
समवसरण में सम्यग्दृष्टि जा सकें।
उत्तरवन के जिन बिंबाें को भज सकें।।
उसके बीच आम्रचैत्यतरु शोभता।
चहुँदिश जिनवर बिंब नमूं मन मोहता।।४८।।
—चौबोल छंद—
विमलनाथ के समवसरण में, भविजन निजको शुद्ध करें।
उपवन भूमी के चारों दिश, जिनप्रतिमा की भक्ति करें।।
पूरबदिश अशोक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।४९।।
समवसरण में गणधर मुनिगण, सुरनर पशुगण भक्ति करें।
स्वपर भेद विज्ञान प्राप्त कर, चतुर्गती के दु:ख हरें।।
दक्षिणदिश सप्तच्छद तरुवन, चैत्य वृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५०।।
जिनवर समवसरण में आलस निद्रा तंद्रा कष्ट नहीं।
रोग शोक दुख संकट मृत्यु वैर कलह विद्वेष नहीं।।
पश्चिमदिश चंपक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५१।।
समवसरण में जिनवर अतिशय, क्रूर पशु गण शांत बने।
सभी वैर विद्वेष छोड़कर, करें परस्पर प्रेम घने।।
उत्तर दिशी आम्रतरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुर वंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५२।।
प्रभु अनंतजिन अंतक भयहर, गुण अनंत के स्वामी हैं।
समवसरण में अधर विराजें, त्रिभुवन अंतर्यामी हैं।।
पूरब दिश अशोकतरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुर वंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५३।।
जिनवर समवसरण सुरनिर्मित, नवनिधि सुख संपत्ति भरें।
जो जन पूजें भक्तिभाव से, सर्व अमंगल दोष हरें।।
दक्षिण दिश सप्तच्छद उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५४।।
धनकुबेर ने सब संपत्ती, समवसरण में लाय धरी।
भव्यजनों के सर्वमनोरथ, तभी भक्ति ने पूर्ण करी।।
पश्चिमदिश चंपकतरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५५।।
बारह सभा बनी हैं उनमें, मुनिगण सुरनर पशु बैठे।
जिनवर दिव्यध्वनी सुन करके, चतुर्गती के दु:ख मेटे।।
उत्तरदिश में आम्र वृक्षवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५६।।
धर्मनाथ के समवसरण में धर्मामृत नित बरस रहा।
मुनी आर्यिका श्रावक और श्राविका रुचि से पियें अहा।।
पूरबदिश अशोक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५७।।
समवसरण यह असंख्य भवि को, धर्मसुधा से तृप्त करे।
भवअनंत के अगणित दुख को इक क्षण में ही नष्ट करे।।
दक्षिणदिश सप्तच्छद उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५८।।
जिनवर समवसरण को वंदत, सप्त परमस्थान मिले।
भक्ती में रत भव्यजनों के, मन की कलियाँ शीघ्र खिलें।।
पश्चिमदिश चंपक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।५९।।
जिनवर वंदत इन्द्र संपदा, चक्रवर्ति साम्राज्य मिले।
अधिक और क्या जिनगुणसंपद, मुक्तिरमा सहशीघ्र मिले।।
उत्तरदिश में आम्र तरुवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।६०।।
शांतिनाथ के समवसरण में, इन्द्रराज भी भक्त बनें।
भक्तपूर्ण शांती को पाकर, जन्म मृत्यु का कष्ट हनें।।
पूरब दिश अशोक तरु उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।६१।।
समवसरण में सुरललनायें, भक्तिभाव से नृत्य करें।
धवल चंद्रकिरणों सम उज्ज्वल, प्रभु की गुण कीर्ती उचरें।।
दक्षिण दिश सप्तच्छद उपवन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।६२।।
समवसरण में शारीरिक, मानस आगंतुक कष्ट नहीं।
षट्ऋतु के फल फूल वहाँ, इक साथ फलें फूलें नित ही।।
पश्चिम दिश में चंपक तरु वन, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।६३।।
समवसरण में जिनप्रभाव से, वैर कलह संघर्ष नहीं।
सिंह हिरण अरु सर्प नेवला प्रेम परस्पर करें सही।।
उत्तर दिश उद्यान आम्र का, चैत्यवृक्ष सुरवंद्य खड़े।
उनकी चहुँदिश जिनप्रतिमा को, वंदत सुख संपत्ति बढ़े।।६४।।
—सखी छंद—
श्री कुंथुनाथ जिनदेवा, तुम समवसरण दुख छेवा।
उपवन अशोक पूरब में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६५।।
जिन समवसरण के अंदर, सौधर्म इन्द्र प्रभु किंकर।
वन सप्तच्छद दक्षिण में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६६।।
मुनिनाथ प्रभू गुण भजते, सुर किन्नर पूजा रचते।
चंपक वन पश्चिम दिश में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६७।।
गणधर तुम गुण को गाते, निज में परमानंद पाते।
वन आम्र तरु उत्तर में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६८।।
जिन अरहनाथ मुनिनाथा, इन्द्रादि नमाते माथा।
उन समवसरण पूरब में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।६९।।
जिनसमवसरण अतिशायी, त्रिभुवनजन को सुखदायी।
सप्तच्छद वन दक्षिण में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७०।।
जिनवर सन्निध पा करके, भविजन भव भव दुख हरते।
चंपक वन पश्चिम दिश में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७१।।
चहुँदिश प्रतिमा के सन्मुख, हैं मानस्तंभ चतुर्मुख।
आमों का वन उत्तर में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७२।।
जिनमल्लिनाथ भव विजयी, उन समवसरण सुखकरई।
उपवन अशोक पूरब में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७३।।
निजपरमानंद सुखदाता, जो भजे सर्व सुख पाता।
सप्तच्छदवन दक्षिण में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७४।।
जिन आतम रस सुख पायो, उन समवसरण शिर नायो।
चंपक तरुवन पश्चिम में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७५।।
जिन समवसरण जो यजते, उन सर्व मनोरथ फलते।
आमों का वन उत्तर में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७६।।
मुनिसुव्रत जिन भवहर्ता, उन पूजत सब सुख भर्ता।
उपवन अशोक पूरब में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७७।।
जिन समवसरण की पूजा, इस सम नहिं हितकर दूजा।
सप्तच्छद वन दक्षिण में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७८।।
सब आधि व्याधि परिहारे, जिन समवसरण गुणधारे।
चंपक वन पश्चिम दिश में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।७९।।
जो समवसरण मन धारें, वे दुख दारिद सब टारें।
आमों का वन उत्तर में, नमूं चैत्यवृक्ष रुचिधर मैं।।८०।।
—दोहा—
समवसरण नमिनाथ का, सब सुख का भंडार।
वन अशोक पूरब दिशी, नमूं चैत्यतरु सार।।८१।।
दस धर्मों का कल्पतरु, समवसरण सुखकार।
सप्तच्छदवन दक्षिणी, नमूं चैत्यतरु सार।।८२।।
जिनवर की अद्भुत सभा, भविजन सुख दातार।
चंपक वन पश्चिम दिशी, नमूं चैत्यतरु सार।।८३।।
जन्म जन्म के पाप सब, नाशूँ जिन गुणधार।
आम्रवनी उत्तर दिशी, नमूं चैत्यतरु सार।।८४।।
नेमिनाथ की भक्ति से, मिले स्वात्म साम्राज।
तरु अशोक वन पूर्वदिश, नमूं चैत्यतरु आज।।८५।।
समवसरण जिनराज का, त्रिभुवन सुख साम्राज।
दक्षिणदिश वन सप्तछद, नमूं चैत्यतरु आज।।८६।।
जिनभक्ति से इंद्र पद, मिले चक्रि साम्राज्य।
चंपक वन पश्चिम दिशी, नमूं चैत्यतरु आज।।८७।।
जिनभक्ति से ही मिले, मुक्तिपुरी का राज।
उत्तर दिश में आम्रवन, नमूं चैत्यतरु आज।।८८।।
समवसरण प्रभु पार्श्व का, सब मंगल करतार।
तरु अशोकवन पूर्वदिश, नमूं चैत्यतरु सार।।८९।।
सर्व अमंगल दोषहर, धर्मतीर्थ करतार।
दक्षिण दिश वन सप्तछद, नमूं चैत्यतरु सार।।९०।।
नाम मंत्र जिन पार्श्व का, सर्व सौख्य दातार।
चंपक वन पश्चिमदिशी, नमूं चैत्यतरु सार।।९१।।
संकट मोचन पार्श्वप्रभु, कलियुग दुख हरतार।
उत्तर दिश में आम्रवन, नमूं चैत्यतरु सार।।९२।।
समवसरण जिन वीर का, अतिशय गुण भंडार।
नमूं अशोक तरु बिंब को, सर्व सौख्य भंडार।।९३।।
जिन सन्मति दें सन्मती, कुमति विनाशनहार।
नमूं सप्तछद बिंब को, सर्व सौख्य भंडार।।९४।।
वर्द्धमान भगवान का, समवसरण सुखकार।
चंपक तरु प्रतिमा नमूं, सर्व सौख्य भंडार।।९५।।
वीर प्रभू का नाम है, स्वातम निधि दातार।
आम्र वृक्ष प्रतिमा नमूं, सर्व सौख्य भंडार।।९६।।
—शंभु छंद—
चौबिस जिनवर के समवसरण में, चौथी उपवन भू मानी है।
चारों दिश इक इक चैत्य वृक्ष, चहुँदिश जिनप्रतिमा मानी हैं।।
चारों दिश की जिन प्रतिमा के, सन्मुख में मानस्तंभ खड़े।
मैं वंदूं शीश नमा करके, दिन पर दिन सुख सौभाग्य बढ़े।।९७।।
–दोहा—
नासा दृष्टी सौम्य छवि, जिनवर सम जिनबिंब।
नमूँ नमूँ मस्तक नमाँ, पाऊँ सौख्य अनिंद्य।।९८।।
—शंभु छंद—
जय जय श्री जिनवर समवसरण, जयजय चौथी उपवन भूमी।
जय जय मणिमय जिन चैत्यवृक्ष, जय जय सुर नर वंदित भूमी।।
जय जय गणधर गुरु से वंदित, जयजय मुनिगण विहरण भूमी।
जय जय अशोक सप्तच्छद अरु, चंपक व आम्रवन की भूमी।।९९।।
परकोटा दूजा स्वर्णमयी, चउ गोपुर द्वारों से युत है।
व्यंतर सुर मुद्गर लेकर के, जिनभक्त वहाँ पर रक्षक हैं।।
तोरण द्वारों के उभय तरफ, अठ विध के मंगल द्रव्य धरे।
प्रत्येक एक सौ आठ कहे, ये सर्व अमंगल दोष हरें।।१००।।
उसके आगे वेष्टित करके, उपवन भूमी अति शोभ रही।
दिशक्रम से अशोक सप्तच्छद, चंपक व आम्रवन दिखें वहीं।।
चारों दिश इक इक चैत्य वृक्ष, प्रभु से बाहर गुणिते ऊँचे।
प्रत्येक चैत्यतरु में चारों, दिश इक-इक जिन प्रतिमा दीखें।।१०१।।
ये आठ प्रातिहार्यों संयुत, मणिमय श्रीजिन प्रतिमायें हैं।
हर प्रतिमाओं के सन्मुख इक, इक मानस्तंभ कहायें हैं।।
ये तीन कोट से परिवेष्टित त्रय कटनी के ऊपर शोभें।
मानस्तंभों के चारों दिश इक इक जिन प्रतिमायें शोभें।।१०२।।
चौबिस जिनवर के उपवन में, छ्यानवे चैत्यतरु माने हैं।
उनमें त्रय शतक सुचौरासी, मणिमय जिनबिंब बखाने हैं।।
इनके मानस्तंभ तीन शतक चौरासी ही हो जाते हैं।
चारों दिश जिनवर बिंब सभी पंद्रह सौ छत्तिस गाते हैं।।१०३।।
इन जिनबिंबों को भक्ती से, जो नितप्रति वंदन करते हैं।
वे सर्व मनोरथ पूर्ण करें, क्रम से शिव लक्ष्मी वरते हैं।।
इन उपवन में कहिं बावड़ियाँ, कहिं क्रीड़ा पर्वत दिखते हैं।
कहिं भवन बने सुंदर ऊँचे, इनमें सुर नर नित रमते हैं।।१०४।।
पूरबदिशवन में बावड़ियाँ१, नन्दा नन्दोत्तर आनंदा।
नन्दवती व अभिनन्दिनी, नन्दिघोषा जलभरी महानंदा।।
जो जन इनकी पूजा करते, वे उदय सुफल को पाते हैं।
वापी से पुष्पों को लेकर, जिनबिंब पूजते जाते हैं।।१०५।।
दक्षिणदिश विजय तथा अभिजय, जैत्री व वैजयन्ती वापी।
अपराजित जयोत्तरा नामा, ये यजत विजय फल को देतीं।।
पश्चिमदिश कुमुदा नलिनी अरु, पद्मा पुष्करा वापियाँ हैं।
विश्वोत्पला, कमला ये छह, यजते प्रीति फल देती हैं।।१०६।।
उत्तर में प्रभासा भासवती भासा, सुप्रभा भरीं जल से।
पुन भानुमालिनी स्वयंप्रभा, ख्याती फल देतीं पूजन से।।
वापी जल से स्नान किये, भवि जन इक भव को देखे हैं।
उस जल अवलोकन से निज के ही सात भवों को देखे हैं।।१०७।।
इन उदय और प्रीती फलदा, बावड़ियों के मधि मारग के।
द्वय तरफी तीन तीन खन की, बत्तीस नाट्यशाला दीखें।।
प्रत्येक में बत्तिस बत्तिस, ज्योतिषि, देवी नर्तन करती हैं।
वे हाव भाव से तन्मय हो, जिनवर गुण कीर्तन करती हैं।।१०८।।
हम नित्य नमें जिन प्रतिमा को सारे कलिमल धुल जावेंगे।
निज आत्म सुधारस पीकर के, निजमें ही तृप्ती पावेंगे।।
सब आध्िा व्याधि पीड़ा संकट, इक क्षण में ही नश जावेंगे।
निज ‘ज्ञानमती’ केवल करके, सिद्धालय में बस जावेंगे।।१०९।।
—शंभु छंद—
श्री शांति कुंथु अरनाथ प्रभू ने, जन्म लिया इस धरती पर।
यह हस्तिनागपुरि इंद्रवंद्य, रत्नों की वृष्टि हुई यहाँ पर।।
यहाँ जम्बूद्वीप बना सुंदर, जिनमंदिर हैं अनेक सुखप्रद।
मेरा यहाँ वर्षायोग काल, स्वाध्याय ध्यान से है सार्थक।।१।।
इस युग के चारित्र चक्री श्री, आचार्य शांतिसागर गुरुवर।
बीसवीं सदी के प्रथमसूरि, इन पट्टाचार्य वीरसागर।।
ये दीक्षा गुरुवर मेरे हैं, मुझ नाम रखा था ‘ज्ञानमती’।
इनके प्रसाद से ग्रंथों की, रचना कर हुई अन्वर्थमती।।२।।
यह चैत्यवृक्ष स्तोत्र मान्य, जिनप्रतिमा वंदन भक्तीवश।
यह रोग शोक दारिद्र्य दु:ख, संकट हरने वाला संतत।।
जब तक चौबीसों तीर्थंकर, जग में उनका गुणगान रहे।
तब तक यह गणिनी ज्ञानमती, विरचित स्तोत्र जयशील रहे।।३।।
।इति श्रीसमवसरणचैत्यवृक्षस्तोत्रं समाप्तं।।
जैनं जयतु शासनम्।