—शंभुछंद—
चौबिस तीर्थंकर वंदन कर, उन प्रभु के समवसरण प्रणमूं।
प्रभु समवसरण में चारों दिश, मानस्तंभों को नित्य नमूं।।
मानस्तंभों में चारों दिश, जिनवर प्रतिमा को कोटि नमूं।
जिनप्रतिमा को वंदन कर—कर, क्षायिक सम्यक्त्व सदा प्रणमूं।।१।।
एकेक प्रभू के चार—चार, हैं मानस्तंभ चमत्कारी।
चौबिस प्रभु के छ्यानवे कहे, ये सब अतिशायि सौख्यकारी।।
मानी का मान गलित करते, सम्यक्त्व रत्न को देते हैं।
इनकी पूजा करते जो जन, संसार भ्रमण हर लेते हैं।।२।।
मानस्तंभों में चारों दिश, जिनप्रतिमायें सुंदर शोभें।
गणधर मुनिगण सुरगण नमते, भविजन वंदें दु:ख से छूटें।।
इनका वंदन कर गौतम को, प्रभु का गणधर पद प्राप्त हुआ।
मैं नमूं नमूं नित श्रद्धा से, मेरा जीवन भी धन्य हुआ।।३।।
—नरेन्द्र छंद—
धूलिसाल के अभ्यंतर में चारों दिश वीथी में।
मानस्तंभ रत्नमणि निर्मित शोभें चारों दिश में।।
उनमें चारों दिश जिनप्रतिमा भक्ति भाव से वंदूँ।
जिनप्रतिमा का वंदन करके कर्म शत्रु को खंडूँ।।४।।
—रोला छंद—
वृषभदेव के समवसरण में चारों दिश में।
वीथी दो—दो कोश चौड़ी उन पूरब में।।
मानस्तंभ अपूर्व, चारों दिश जिनप्रतिमा।
वंदूँ शीश नमाय, होवे सौख्य अनुपमा।।१।।
समवसरण में दक्षिण दिश में शोभ रहा है।
मानस्तंभ विचित्र मुनिगण पूज्य कहा है।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमाएँ।
वंदूँ शीश नमाय अनुपम सौख्य दिलाएँ।।२।।
पश्चिम दिश की महा, गली में रत्नविनिर्मित।
मानस्तंभ जिनेश, का मिथ्यात्वी मदहृत्।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमाएँ।
वंदूँ शीश नमाय अनुपम सौख्य दिलाएँ।।३।।
उत्तर दिश में तुुंग, मानस्तंभ विराजे।
जो वंदें धर प्रीत उनके पातक भाजें।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमाएँ।
वंदूँ शीश नमाय अनुपम सौख्य दिलाएँ।।४।।
अजितनाथ जिनदेव, समवसरण में राजें।
पूरब दिश में तुंंग मानस्तंभ विराजें।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमाएँ।
वंदूँ शीश नमाय अनुपम सौख्य दिलाएँ।।५।।
दक्षिण दिश में श्रेष्ठ मानस्तंभ अपूरब।
बारहगुणा जिनेश, तनु से तुंग रतनप्रभ।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमाएँ।
वंदूँ शीश नमाय अनुपम सौख्य दिलाएँ।।६।।
पश्चिम दिश में तुंग, मानस्तंभ दिखे है।
सुरपति नरपति वंद्य कांतीमान दिपे है।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमाएँ।
वंदूँ शीश नमाय अनुपम सौख्य दिलाएँ।।७।।
समवसरण में उत्तर दिश में महा गली में।
मानस्तंभ सुरत्न मणिमय शोभे जग में।।
उसमें शिखर समीप चहँुदिश जिनप्रतिमाएँ।
वंदूँ शीश नमाय अनुपम सौख्य दिलाएँ।।८।।
—दोहा—
श्री संभव जिनराज का, समवसरण जगवंद्य।
मानस्तंभ सुपूर्व दिशि, वंदूँ जिनवर बिंब।।९।।
समवसरण में दक्षिणी, दिश में मानस्तंभ।
अग्रभाग में चहुँ दिशी, वंदूँ जिनवर बिंब।।१०।।
समवसरण में अपर दिशि, मानस्तंभ अपूर्व।
शिखर भाग में चहुँ दिशी, वंदूँ जिनवर सूर्य।।११।।
उत्तर दिशि मुनिनाथनुत, मानस्तंभ महान।
शिखर भाग जिनबिंब को, नमूँ जोड़ जुग पान।।१२।।
अभिनंदन जिनराज का, समवसरण गुणखान।
पूरब मानस्तंभ को, नमूँ मिले सुखखान।।१३।।
समवसरण में दक्षिणी, दिश में मानस्तंभ।
शिखर भाग में चहुँदिशी, वंदूँ जिनवर बिंब।।१४।।
समवसरण में अपरदिशि, मानस्तंभ अनिंद्य।
चहुँदिश के जिनबिंब को, वंदूँ सुर—नर वंद्य।।१५।।
समवसरण में उत्तरी, दिश में मानस्तंभ।
चहुँदिश के जिनबिंब को नमूँ हरूँ जग दंभ।।१६।।
—चौपाई–
सुमतिनाथ की सभा अनिंद्य, समवसरण है त्रिभुवनवंद्य।
पूर्वदिशा में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।१७।।
समवसरण सब दुख हरतार, पूजत ही सब भरे भंडार।
दक्षिण दिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।१८।।
समवसरण में बारह सभा, मुनिगण गाते जिनगुणकथा।
पश्चिमदिश में मानस्तंभ, नमूं चतुर्दिश के जिनबिंब।।१९।।
इंद्रनील मणि से बन रही, कमलाकार सभा शुभ कही।
उत्तरदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२०।।
पद्मप्रभूजिन गुणमणि भरे, उनका समवसरण मन हरे।
पूरबदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२१।।
समवसरण में भूमी आठ, दर्शन से हो मंगल ठाठ।
दक्षिण दिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२२।।
समवसरण सब सुख दातार, वंदत भरते गुण भंडार।
पश्चिमदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२३।।
जिनवर समवसरण अभिराम, नितप्रति शतशत करूँ प्रणाम।
उत्तरदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२४।।
श्री सुपार्श्वजिन त्रिभुवन ईश, समवसरण को नाऊँ शीश।
पूरबदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२५।।
समवसरण में कोट उतुंग, पहरा देते नित सुरवृंद।
दक्षिणदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२६।।
धनद रचित जिनसभा अपूर्व, गणधर कहें अंग अरु पूर्व।
पश्चिमदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२७।।
समवसरण में वेदी पाँच, चार कोट भू आठ विभांत।
उत्तरदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२८।।
चंदाप्रभु जिनकी शुभसभा, हरती भक्तजनों की व्यथा।
पूरब दिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।२९।।
समवसरण का नाम पवित्र, करता शत्रुगणों को मित्र।
दक्षिणदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।३०।।
समवसरण भवदधि का कूल, वंदत ही सब हों अनुकूल।
पश्चिम दिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।३१।।
जिनवर समवसरण जग्ावंद्य, वहाँ रहें सुरनर पशु वृन्द।
उत्तरदिश में मानस्तंभ, नमूँ चतुर्दिश के जिनबिंब।।३२।।
—पद्धड़ी छंद—
श्री पुष्पदंत का समवसर्ण, वंदन से नशता जन्ममर्ण।
पूरबदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।३३।।
जिन समवसरण में गली चार, सीढ़ी उनमें बीसहिं हजार।
दक्षिण दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।३४।।
जिनसमवसरण में मुनि वसंत, जिन धुनि सुन करते कर्म अंत।
पश्चिम दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।३५।।
जिन समवसरण रचता कुबेर, बस अर्ध निमिष नहिं लगे देर।
उत्तर दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।३६।।
शीतल जिनका जो समवसरण, सब भव्यों को दे रहा शरण।
पूरब दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।३७।।
इस समवसरण में तीर्थनाथ, करते सब भक्तों को सनाथ।
दक्षिण दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।३८।।
जो समवसरण में तरु अशोक, भव्यों का हरता सर्व शोक।
पश्चिम दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।३९।।
शीतल की धुनि शीतल करंत, भवताप हरे मंगल भरंत।
उत्तर दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४०।।
श्रेयांसनाथ का समवसर्ण, गणधर मुनिगण भी लेय शर्ण।
पूरबदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४१।।
जिन समवसरण में प्रातिहार्य, भक्तों के पूरण करें कार्य।
दक्षिणदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४२।।
भामंडल छवि का अतिप्रकाश, लजते करोड़ सूरज प्रकाश।
पश्चिमदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४३।।
सुर पुष्पवृष्टि निशिदिन करंत, जय जय ध्वनि करते हर्षवंत।
उत्तरदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४४।।
जिनवासुपूज्य सुरवृन्द पूज्य, उन समवसरण अतिशय विशुद्ध्य।
पूरब दिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४५।।
जिन ऊपर चौंसठ चमर स्वच्छ, ढोरें नित चौंसठ देवयक्ष।
दक्षिणदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४६।।
सिंहासन रत्नजड़ा विचित्र, नित अधर विराजे जिनपवित्र।
पश्चिमदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४७।।
बाजे साढ़े बारह करोड़, दुंदुभि बाजे बजते अजोड़।
उत्तरदिशि मानस्तंभ एक, जिनप्रतिमा वंदूँ माथ टेक।।४८।।
—शंभु छंद—
जिन विमलनाथ का समवसरण, है अमल अखंड सौख्यदाता।
उसमें नवनिधियाँ भरी पड़ीं, बहु वैभव कोइ न कह पाता।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, पूरब दिश मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।४९।।
जिन समवसरण में धूपघटों में सुरगण धूप खेवते हैं।
सुरभित चारों दिशि धुंआं उड़े, भवि जिनपद कंज सेवते हैं।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, दक्षिण दिशि मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।५०।।
जिन समवसरण में गोपुर के, दोनों तरफी नाटकशाला।
वहाँ देव अप्सरा नृत्य करें, गावें नितप्रति जिन गुणमाला।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, पश्चिम में मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।५१।।
मानस्तंभों के चारों दिश, वापी के सन्निध कुंड बने।
उनमें जन पैर धूलि धोकर, अंदर प्रवेश कर पाप हने।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, उत्तर दिश मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।५२।।
जिनवर अनंत का समवसरण, दर्शन से अंतक१ भय हरता।
जिनगुण अनंत प्रगटित करके, भव्यों के गुण विकसित करता।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, पूरब दिशि मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।५३।।
जिन समवसरण में आठ द्रव्य, मंगलमय बहुत जगह रहते।
दर्शक जन का मंगल करते, चहुंदिशी अमंगल को हरते।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, दक्षिण दिशि मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।५४।।
जो समवसरण में जिनदर्शन, करते वे भव्य कहाते हैं।
वे निश्चित ही उस भव या कुछ, भव लेकर शिवश्री पाते हैं।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, पश्चिम दिशि मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।५५।।
जिन समवसरण में मिथ्यात्वी, अभिमानी क्षुद्र न जा सकते।
जो सम्यग्दृष्टी होते हैं, वे ही जिनवर दर्शन करते।।
जिनवर से बारह गुणा तुंग, उत्तर दिशि मानस्तंभ बना।
उसमें चारों दिश जिनप्रतिमा, मैं वंदूँ मन आनंद घना।।५६।।
श्री धर्मनाथ के समवसरण में, ध्वनि खिरती नित१ चार बार।
वह धर्मामृत बरसा करके, भव्यों को तृप्त करे अपार।।
गणधर व इंद्र चक्रेश्वर के, प्रश्नों से अन्य समय खिरती।
पूरबदिश मानस्तंभ नमूँ, जिन भक्ती सब इच्छित फलती।।५७।।
जिन समवसरण में गणधर मुनि, जिनवरध्वनि का विस्तार करें।
फिर द्वादशांग में गूँथ—गूँथ, कहते मुनिगण कंठाग्र करें।।
जिनवचनामृत को पी-पीकर, द्वादशगण को शांति मिलती।
दक्षिण दिशि मानस्तंभ नमूँ, जिनभक्ती मनवांछित फलती।।५८।।
जिनसमवसरण की वापी के, जल में भवि निजभव देखे हैं।
भामंडल में निज सात भवों को, देख भवों से छूटे हैं।।
जिनवचनामृत को पी-पीकर, भव्यो को सुख शांति मिलती।
पश्चिम दिशि मानस्तंभ नमूँ, जिनभक्ती मनवांछित फलती।।५९।।
जिनसमवसरण अद्भुत रचना, इन्द्राज्ञा से धनपति रचता।
वहं मानस्तंभ के दर्शन से, अभिमानी का सब मद गलता।।
जिनवर सन्निध का ही प्रभाव, अन्य मानस्तंभ में नहिं शक्ती।
उत्तर दिशि मानस्तंभ नमूँ, जिनभक्ती मन वांछित फलती।।६०।।
श्री शांतिनाथ का समवसरण, भक्तों की भव—भव दाह हरे।
जिननाम मंत्र भी भव्यों को, आत्यंतिक शांति प्रदान करे।।
जो समवसरण की भक्ति करें, उनकी सब बाधाएँ टलतीं।
पूरब दिशि मानस्तंभ नमूँ, जिनभक्ती मन वांछित फलती।।६१।।
जिनसमवसरण का ही प्रभाव, सौ-सौ योजन दुर्भिक्ष टले।
सब ईति भीति मारी संकट, नहिं होवे जहँ जिनराज चलें।।
सब ऋतु के भी फलफूल फलें, असमय में भी कलियाँ खिलतीं।
दक्षिण दिशि मानस्तंभ नमूं, जिन भक्ती मन वांछित फलती।।६२।।
जिस मारग से हो श्रीविहार१, वहाँ बहुत दिनों तक शांति रहे२।
नहिं कष्ट उपद्रव दुर्घटना, सब रोग शोक दुख शांत रहे।।
सब क्रूर मनुजगण पशुगण के भी, आपस में मैत्री बनती।
पश्चिम दिशि मानस्तंभ नमूँ, जिनभक्ती मनवांछित फलती।।६३।।
जिन सन्निध में सौधर्म इन्द्र, िंककर बन जिन आज्ञा पाले।
जहँ—जहँ प्रभु का हो श्रीविहार, वह शीघ्र व्यवस्था कर डाले।।
इससे वह इक ही भव धरता, जिन भक्ती है अमोघ३ शक्ती।
उत्तर दिशि मानस्तंभ नमूँ, जिनभक्ती मनवांछित फलती।।६४।।
—सखी छंद—
श्री कुंथुनाथ जिनवर का, है समवसरण अति नीका।
मानस्तंभ पूरब दिश में, वंदूँ जिनप्रतिमा नित मैं।।६५।।
जिनसमवसरण अति सुन्दर, नित भक्ती करें पुरन्दर१।
मानस्तंभ दक्षिण दिश में, वंदूँ जिनप्रतिमा नित मैं।।६६।।
जिनसमवसरण की महिमा, गणधर मुनि गाते गरिमा।
मानस्तंभ पश्चिम दिश में, वंदूँ जिनप्रतिमा नित मैं।।६७।।
जिनसमवसरण अतिशायी, गुण गावें मन हरषायी।
मानस्तंभ उत्तर दिश में, वंदूँ जिनप्रतिमा नित मैं।।६८।
अरनाथ अरी को नाशा, निज केवलज्ञान प्रकाशा।
उन समवसरण पूरब में, शुभ मानस्तंभ नमूँ मैं।।६९।।
जिनसमवसरण में आवो, अतिशायी पुण्य कमाओ।
वीथी में दक्षिण दिश में, शुभ मानस्तंभ नमूँ मैं।।७०।।
सब जन को शरण प्रदाता, जिन समवसरण सुखदाता।
अति सुन्दर पश्चिम दिशि में, शुभ मानस्तंभ नमूँ मैं।।७१।।
निंह समवसरण में बाधा, निंह निद्रा प्यास न क्षूधा।
अतिशयकर उत्तर दिश में, शुभ मानस्तंभ नमूँ मैं।।७२।।
श्री मल्लिनाथ भवविजयी, उन समवसरण सुख प्रदयी।
पूरब दिशि मानस्तंभ में, जिनप्रतिमा वंदूँ नित मैं।।७३।।
जिनसमवसरण भव अंतक, पूजक होते दुख वंचक।
दक्षिण दिश मानस्तंभ में, जिनप्रतिमा वंदूँ नित मैं।।७४।।
उपदेश सभा जिनवर की, है गोल चतुर्मुख जिनकी।
पश्चिम दिश मानस्तंभ में, जिनप्रतिमा वंदूँ नित मैं।।७५।।
जो काम—मोह—यम विजयी, वे मल्लिनाथ भवविजयी।
उत्तर दिश मानस्तंभ में, जिनप्रतिमा वंदूँ नित मैं।।७६।।
मुनिसुव्रत जिनवर व्रतधर, उन समवसरण सब दुखहर।
अपूरब पूरब दिशि में, जिन मानस्तंभ नमूँ मैं।।७७।।
जिनसमवसरण अभिरामा, सब भक्त लहें निजधामा।
दक्षिण दिश की वीथी में, जिन मानस्तंभ नमूँ मैं।।७८।।
जिनसमवसरण की शोभा, देवों का भी मन लोभा।
पश्चिम दिश की वीथी में, जिन मानस्तंभ नमूँ मैं।।७९।।
जिनसमवसरण अतिशयभृत, सब रिद्धि सिद्धि नवनिधिकृत।
उत्तर दिश की वीथी में, जिन मानस्तंभ नमूँ मैं।।८०।।
—सोरठा—
नमि जिन जग परमेश, समवसरण अतिशय घना।
वंदूँ भक्ति समेत, पूरब मानस्तंभ को।।८१।।
भवदधि तारन सेतु, समवसरण अतिरम्य है।
वंदूँ भक्ति समेत, दक्षिण मानस्तंभ को।।८२।।
दर्शक जन सुखहेत, समवसरण जिनराज का।
वंदूँ भक्ति समेत, पश्चिम मानस्तंभ को।।८३।।
सींचे भविजन खेत, जिनवच जल वर्षा करें।
वंदूँ भक्ति समेत , उत्तर मानस्तंभ को।।८४।।
नेमीनाथ जिनेश, समवसरण धनपति रचा।
वंदूँ भक्ति समेत, पूरब मानस्तंभ को।।८५।।
सब जन आनंद हेत, राजमती आर्या वहाँ।
वंदूँ भक्ति समेत, दक्षिण मानस्तंभ को।।८६।।
गणधर वंदन हेत, समवसरण शोभे अती।
वंदूँ भक्ति समेत, पश्चिम मानस्तंभ को।।८७।।
सुरनर पावन हेतु, समवसरण अतिशुद्ध है।
वंदूँ भक्ति समेत, उत्तर मानस्तंभ को।।८८।।
—नरेन्द्र छंद—
पार्श्वनाथ के कमठ उपद्रव, जीत घाति अरि नाशा।
पद्मावति धरणेन्द्र देव ने, सब उपसर्ग विनाशा।।
केवलज्ञान सूर्य के उगते, समवसरण क्षण भर में।
मानस्तंभ पूर्वदिश का मैं, वंदूँ रुचि धर मन में।।८९।।
क्षमाशील प्रभु महामना हो, बहु उपसर्ग सहा है।
संकटमोचन अत: भव्य के, ऋषि ने यही कहा है।।
पद्मावति शासन देवी का, मान बढ़ा इस युग में।
मानस्तंभ दक्षिणी दिश का, वंदूँ रुचि धर मन में।।९०।।
समवसरण की शोभा न्यारी, जगह जगह बावड़ियाँ।
लाल सफेद कमल खिलते लख१, खिल जाती मन कलियाँ।।
केवलज्ञान सूर्य किरणों से, हैं प्रकाश त्रिभुवन में।
मानस्तंभ पश्चिमी दिश का, वंदूँ रुचि धर मन में।।९१।।
समवसरण में लताभूमि, उपवन में फूल खिले हैं।
जातविरोधी क्रूर पशु, आपस में गले मिले हैं।।
नाम मंत्र प्रभु का जपते, अरि बने मित्र क्षण भर में।
मानस्तंभ उत्तरी दिश का, वंदूँ रुचि धर मन में।।९२।।
पचीस सौ ब्यालीस१ वर्ष के, पूर्व विपुल पर्वत पर।
महावीर का समवसरण था, बना यहाँ अति मनहर।।
भरतक्षेत्र में आज उन्हीं का, शासन इस धरती पर।
मानस्तंभ पूर्वदिश का मैं, वंदूँ अतिशय रुचिधर।।९३।।
महावीर अतिवीर वीर प्रभु, वर्द्धमान जिन सन्मति।
पाँच नाम से आप प्रथित हैं, दीजे मुझको सन्मति।।
समवसरण में आप विराजें, द्वादश गण के ईश्वर।
मानस्तंभ दक्षिणी दिश का, वंदूँ अतिशय रुचिधर।।९४।।
छ्यासठ दिन तक खिरी नहीं ध्वनि, तब सौधर्म सुरेश्वर।
इन्द्रभूति गौतम को लाया, वे ही हुए गणेश्वर।।
समवसरण में सब जन तर्पित, किया धर्म वर्षा कर।
मानस्तंभ पश्चिमी दिश का, वंदूँ अतिशय रुचिधर।।९५।।
समवसरण की महिमा न्यारी, कह न सके शारद माँ।
लोकोत्तर सम्पत्ति वहाँ पर, लोकोत्तर ही गरिमा।।
ऐसे समवसरण का दर्शन, शीघ्र मिले यह दो वर।
मानस्तंभ उत्तरी दिश का, वंदूँ अतिशय रुचिधर।।९६।।
चौबीसों तीर्थंकर जिनके, समवसरण में होते।
मानस्तंभ सु चार—चार ही, मान पंक को धोते।।
गणधर मुनिगण सुरपति नरपति, खगपति वंदन करते।
मैं वंदूँ नितप्रति रुचि से, पुण्य पूर्ण ये करते।।९७।।
मानस्तंभ महिमा
—शंभु छंद—
जय जय मानस्तंभ चउदिश के, जय जय उन सबकी जिनप्रतिमा।
जय जय मानी का मान हरे, जय सार्थक नाम धरी महिमा।।
प्रत्येक जिनेश्वर ऊँचाई से बारह गुणे कहे ऊँचे।
ये योजन बीस करें प्रकाश, बारह योजन से ही दीखें।।९८।।
इनको घेरे हैं तीन कोट, जो चउ गोपुर द्वारों से युत।
इन कोट अभ्यंतर बावड़ियाँ, उद्यान देवगण से संयुत।।
इन मध्य चतुर्दिक् सोम व यम, अरु वरुण कुबेर जु लोकपाल।
इनके आवास बने सुन्दर, उनमें रमते ये पुण्यशालि।।९९।।
बीचों बिच कटनी तीन कही, वैडूर्ण सुवर्ण सु रत्नमयी।
द्वय कटनी पर पूजन सु द्रव्य अठ, मंगल द्रव्य ध्वजादि सही।।
तीजी पर मानस्तंभ खड़े, ये मूल भाग में वङ्कामयी।
सर्वत्र फटिक मणि के सुन्दर, ऊपर में हैं वैडूर्यमयी।।१००।।
ये मूलभाग में चतुष्कोण, ऊपर तक गोल बने सुन्दर।
इनमें पहलू१ हैं दो हजार, जिनकी है चमक बहुत मनहर।।
ऊपर में छत्र चंवर घंटा, किंकिणियाँ रत्नहार शोभें।
चारों दिश आठ सु प्रातिहार्य, अद्भुत शिखरों से अति शोभें।।१०१।।
चारों दिश जिनप्रतिमाएँ हैं, जिनके वंदन से पाप टरें।
क्षीरोदधि से जल ला करके, सब सुरगण मिल अभिषेक करें।।
चंदन अक्षत पुष्पादि लिये, सुर—नरगण पूजा करते हैं।
सम्यग्दृष्टी बहुभक्ति लिये, जिनगुण स्तवन उचरते हैंं।।१०२।।
पूरब मानस्तंभ के चउदिश, नंदोत्तर नंदा नंदिमती।
नंदीघोषा बावड़ियाँ, कमलों कुमुदों से गंधवती।।
दक्षिण मानस्तंभ चउदिश में, बावड़ियाँ नीर पवित्र भरी।
विजया व वैजयंता रु जयंता, अपराजिता सुनाम धरी।।१०३।।
पश्चिम मानस्तंभ चारों दिश, बावड़ी अशोका सुप्रबुद्धा।
कुमुदा व पुंडरीका फूले, कुमुदों युत नीर भरी शुद्धा।।
उत्तर मानस्तंभ के चउदिश, हृदयानन्दा सु महानंदा।
सुप्रतिबद्धा अरु प्रभंकरा, वापी जलभरीं जनानंदा।।१०४।।
इन सबमें मणिमय सीढ़ी हैं, द्वय बाजू दो-दो कुंड बने।
इन कुंडोें में सुर—नर—पशुगण, पगधूली धोकर शुद्ध बने।।
इन सोलह वापी का वर्णन, सुरपति भी नहिं कर सकते हैं।
बहु हंस—बतख—सारस पक्षी, उनमें कलरव ध्वनि करते हैं।।१०५।।
जिनवर सन्निध का ही प्रभाव, जो मानस्तंभ मान हरते।
यदि सुरपति भी अन्यत्र रचे, नहिं यह प्रभाव वे पा सकते।।
है धन्य घड़ी यह धन्य दिवस, जो वंदन का सौभाग्य मिला।
वह धन्य घड़ी भी मिले शीघ्र, साक्षात् दर्श हो जाय भला।।१०६।।
—दोहा—
जय जय जिनवर बिंब सब, जय जय मानस्तंभ।
‘ज्ञानमती’ सुख संपदा, भरो हरो जगफंद।।१०७।।
तीर्थंकर को नित नमूँ, नमूँ सरस्वति मात।
गौतमादि गणधर नमूँ, नमूँ साधु जग तात।।१।।
कुंदकुंद आम्नाय में, गच्छ सरस्वति मान्य।
बलात्कारगण ख्यात में, हुये सूरि जग मान्य।।२।।
इस युग में चूड़ामणी, शांतिसागराचार्य।
चारित चक्री धर्मधुरि, हुए प्रथम आचार्य।।३।।
इनके पट्टाधीश थे, वीरसागराचार्य।
मुझे आर्यिका व्रत दिया, नाम ज्ञानमति धार्य।।४।।
मानस्तंभ स्तोत्र यह, सुंदर रचना जान।
पढ़ो पढ़ावो भव्यगण, पावो सौख्य निधान।।५।।
जब तक श्री जिनधर्म यह, जग में करे प्रकाश।
तब तक गणिनी ज्ञानमति, कृत स्तोत्र सुखराशि।।६।।
इस जग में जिनभक्त के, मन में करे प्रमोद।
मानस्तंभ स्तोत्र यह, जग को दे आलोक।।७।।
।।इति श्रीसमवसरणमानस्तंभस्तोत्रं समाप्तं।।
(इति शं भूयात्)