बभासे वनमाशोकं शोकापनुदमङ्गिनाम्।
रागं वमदिवात्मीयमारत्तै पुष्पपल्लवैः१।।१८०।।
पर्णानि सप्त विभ्राणं वनं सप्तच्छदं बभौ।
सप्तस्था नानि बाभर्तुर्दर्शयत्प्रति पर्व यत्।।१८१।।
चाम्पकं वनमत्राभात् सुमनोभरभूषणम्।
वने दीपाङ्गवृक्षाणां विभुं भक्तुमिवागताम्।।१८२।।
कम्रमाम्रवनं रेजे कलकण्ठीकलस्वनैः।
स्तुवानमिव भक्त्यैनमीशानं पुण्यशासनम्।।१८३।।
अशोकवनमध्येऽभूदशोकानोकहो महान्।
हैमं त्रिमेखलं पीठं समुत्तुङ्गमधिष्ठितः।।१८४।।
चतुर्गोपुरसंबद्धत्रिसालपरिवेष्टितः ।
छत्रचामरभृङ्गारकलशाद्यैरुपस्कृतः ।।१८५।।
जम्बूद्वीपस्थलीमध्ये भाति जम्बूद्रुमो यथा।
तथा वनस्थलीमध्ये स बभौ चैत्यपादपः।।१८६।।
शाखाग्रव्याप्तविश्वाशः स रेजेऽशोकपादपः।
अशोकमयमेवेदं जगत्कर्तुमिवोद्यतः।।१८७।।
सुरभीकृतविश्वाशैः कुसुमैः स्थगिताम्बरः।
सिद्धाध्वानमिवारुन्धन् रेजेऽसौ चैत्यपादपः।।१८८।।
गारुडोपलनिर्माणैः पत्रैश्चित्रैश्चितोऽमितः।
पद्मरागमयैः पुष्पस्तबवै परितो वृतः।।१८९।।
हिरण्मयमहोदग्रशाखो वङ्कोद्धबुध्नकः।
कलालिकुलझज्ररैस्तर्जयन्निव मन्मथम् ।।१९०।।
सुरासुरनरेन्द्रान्तरक्षेमालानविग्रहः ।
स्वप्रभापरिवेषेण द्योतिताखिलदिङ्मुखः।।१९१।।
रणदालम्बिघण्टाभिर्बधिरीकृतविश्वभूः।
भूर्भुवः स्वर्जयं भर्तुः प्रतोषादिव घोषयन् ।।१९२।।
ध्वजांशुकपरा मृष्टनिर्मेघघनपद्धतिः।
जगज्जनाङ्गसंलग्नमार्गः परिमृजन्निव।।१९३।।
मूर्ध्ना छत्रत्रयं बिभ्रन्मुक्तालम्बनभूषितम् ।
विभोस्त्रिभुवनैश्वर्य विना वाचेव दर्शयन् ।।१९४।।
भ्रेजिरे बुध्नभागेऽस्य प्रतिमा दिक्चतुष्टये।
जिनेश्वराणामिन्द्राद्यैः समवाप्ताभिषेचनाः।।१९५।।
गन्धस्रग्धूपदीपार्घ्यैः फलैरपि सहाक्षतैः।
तत्र नित्यार्चनं देवा जिनार्चानां वितेनिरे।।१९६।।
क्षीरोदोदकधौताङ्गीरमलास्ता हिरण्मयीः।
प्रणिपत्यार्हतामर्चाः प्रानर्चुर्नृसुरासुराः।।१९७।।
स्तुवन्ति स्तुतिभिः केचिदर्थ्याभिः प्रणमन्ति च।
स्मृत्वावधार्य गायन्ति केचित्स्म सुरसत्तमाः।।१९८।।
यथाशोकस्तथान्येऽपि विज्ञेयाश्चैत्यभूरुहाः।
वने स्वे स्वे सजातीया जिनबिम्बेद्धबुध्नकाः।।१९९।।
अशोकः सप्तपर्णश्च चम्पकश्चूत एव च।
चत्वारोऽमी वनेष्वासन् प्रोत्तुङ्गाश्चैत्यपादपाः।।२००।।
चैत्याधिष्ठितबुध्नत्वादूढतन्नामरूढयः ।
शाखिनोऽमी विभान्ति स्म सुरेन्द्रैः प्राप्तपूजनाः।।२०१।।
फलैरलंकृता दीप्राः स्वपादाक्रान्तभूतलाः।
पार्थिवाः सत्यमेवैते पार्थिवाः पत्रसंभृताः।।२०२।।
प्रव्यञ्जितानुरागाः स्वैः पल्लवैः कुसुमोत्करैः।
प्रसादं दर्शयन्तोऽन्तर्विभुं भेजुरिमे द्रुमाः।।२०३।।
तरूणामेव तावच्चेदीदृशो विभवोदयः।
किमस्ति वाच्यमीशस्य विभवेऽनीदृशात्मनः।।२०४।।
उन चारों वनों में से पहला अशोक वन जो कि प्राणियों के शोक को नष्ट करने वाला था, लाल रंग के फूल और नवीन पत्तों से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो अपने अनुराग (प्रेम) का ही वमन कर रहा हो।।१८०।।
प्रत्येक गाँठ पर सात-सात पत्तों को धारण करने वाले सप्तच्छद वृक्षों का दूसरा वन भी सुशोभित हो रहा था जो कि ऐसा जान पड़ता था मानो वृक्षों के प्रत्येक पर्व पर भगवान् के सज्जातित्व, सद्गृहस्थत्व, पारिव्राज्य आदि सात परम स्थानों को ही दिखा रहा हो।।१८१।। फूलों के भार से सुशोभित तीसरा चम्पक वृक्षों का वन भी सुशोभित हो रहा था और वह ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान की सेवा करने के लिए दीपांग जाति के कल्पवृक्षों का वन ही आया हो।।१८२।। तथा कोयलों के मधुर शब्दों से मनोहर चौथा आम के वृक्षों का वन भी ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो पवित्र उपदेश देने वाले भगवान् की भक्ति से स्तुति ही कर रहा हो।।१८३।। अशोक वन के मध्य भाग में एक बड़ा भारी अशोक का वृक्ष था जो कि सुवर्ण की बनी हुई तीन कटनीदार ऊँची पीठिका पर स्थित था।।१८४।। वह वृक्ष, जिनमें चार-चार गोपुर द्वार बने हुए हैं ऐसे तीन कोटों से घिरा हुआ था तथा उसके समीप में ही छत्र, चमर, भृङ्गार और कलश आदि मंगलद्रव्य रखे हुए थे। १८५।। जिस प्रकार जम्बूद्वीप की मध्य भूमि में जम्बूवृक्ष सुशोभित होता है उसी प्रकार उस अशोक वन की मध्य भूमि में वह अशोक नामक चैत्यवृक्ष सुशोभित हो रहा था।।१८६।। जिसने अपनी शाखाओं के अग्रभाग से समस्त दिशाओं को व्याप्त कर रखा है ऐसा वह अशोक वृक्ष ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो समस्त संसार को अशोकमय अर्थात् शोकरहित करने के लिए ही उद्यत हुआ हो।।१८७।। समस्त दिशाओं को सुगन्धित करने वाले फूलों से जिसने आकाश को व्याप्त कर लिया है ऐसा वह चैत्यवृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सिद्ध-विद्याधरों के मार्ग को ही रोक रहा हो।।१८८।। वह वृक्ष नीलमणियों के बने हुए अनेक प्रकार के पत्तों से व्याप्त हो रहा था और पद्मराग मणियों के बने हुए फूलों के गुच्छों से घिरा हुआ था।।१८९।। सुवर्ण की बनी हुई उसकी बहुत उँâची-ऊँची शाखाएँ थीं, उसका देदीप्यमान भाग वङ्का का बना हुआ था तथा उस पर बैठे हुए भ्रमरों के समूह जो मनोहर झंकार कर रहे थे उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेव की तर्जना ही कर रहा हो।।१९०।। वह चैत्यवृक्ष सुर, असुर और नरेन्द्र आदि के मनरूपी हाथियों के बाँधने के लिए खंभे के समान था तथा उसने अपने प्रभामण्डल से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर रखा था।।१९१।। उस पर जो शब्द करते हुए घंटे लटक रहे थे उनसे उसने समस्त दिशाएँ बहरी कर दी थीं और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था कि भगवान् ने अधोलोक, मध्यलोक और स्वर्गलोक में जो विजय प्राप्त की है सन्तोष से मानो वह उसकी घोषणा ही कर रहा हो।।१९२।। वह वृक्ष ऊपर लगी हुई ध्वजाओं के वस्त्रों से पोंछ-पोंछकर आकाश को मेघरहित कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो संसारी जीवों की देह में लगे हुए पापों को ही पोंछ रहा हो।।१९३।।
वह वृक्ष मोतियों की झालर से सुशोभित तीन छत्रों को अपने सिर पर धारण कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के तीनों लोकों के ऐश्वर्य को बिना वचनों के ही दिखला रहा हो।।१९४।। उस चैत्यवृक्ष के मूलभाग में चारों दिशाओं में जिनेन्द्रदेव की चार प्रतिमाएँ थीं जिनका इन्द्र स्वयं अभिषेक करते थे।।१९५।। देव लोग वहाँ पर विराजमान उन जिनप्रतिमाओं की गन्ध, पुष्पों की माला,धूप, दीप, फल और अक्षत आदि से निरन्तर पूजा किया करते थे।।१९६।। क्षीरसागर के जल से जिनके अंगों का प्रक्षालन हुआ है और जो अतिशय निर्मल हैं ऐसी सुवर्णमयी अरहंत की उन प्रतिमाओं को नमस्कार कर मनुष्य, सुर और असुर सभी उनकी पूजा करते थे।।१९७।। कितने ही उत्तम देव अर्थ से भरी हुई स्तुतियों से उन प्रतिमाओं की स्तुति करते थे, कितने ही उन्हें नमस्कार करते थे और कितने ही उनके गुणों का स्मरण कर तथा चिन्तवन कर गान करते थे।।१९८।। जिस प्रकार अशोक वन में अशोक नाम का चैत्यवृक्ष है उसी प्रकार अन्य तीन वनों में भी अपनी-अपनी जाति का एक-एक चैत्यवृक्ष था और उन सभी के मूलभाग जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमाओं से देदीप्यमान थे।।१९९।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए चारों वनों में क्रम से अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नाम के चार बहुत ही ऊँचे चैत्यवृक्ष थे।।२००।।
मूलभाग में जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा विराजमान होने से जो ‘चैत्यवृक्ष’ इस सार्थक नाम को धारण कर रहे हैं और इन्द्र जिनकी पूजा किया करते हैं ऐसे वे चैत्यवृक्ष बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे।।२०१।। पार्थिव अर्थात् पृथ्वी से उत्पन्न हुए वे वृक्ष सचमुच ही पार्थिव अर्थात् पृथ्वी के स्वामी—राजा के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार राजा अनेक फलों से अलंकृत होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी अनेक फलों से अलंकृत थे, राजा जिस प्रकार तेजस्वी होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी तेजस्वी (देदीप्यमान) थे, राजा जिस प्रकार अपने पाद अर्थात् पैरों से समस्त पृथ्वी को आक्रान्त किया करते हैं (समस्त पृथ्वी में अपना यातायात रखते हैं) उसी प्रकार वे वृक्ष भी अपने पाद अर्थात् जड़ भाग से समस्त पृथ्वी को आक्रान्त कर रहे थे (समस्त पृथ्वी में उनकी जड़ें पैâली हुई थीं) और राजा जिस प्रकार पत्र अर्थात् सवारियों से भरपूर रहते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी पत्र अर्थात् पत्तों से भरपूर थे।।२०२।। वे वृक्ष अपने पल्लव अर्थात् लाल-लाल नयी कोंपलों से ऐसे जान पड़ते थे मानो अन्तरंग का अनुराग (प्रेम) ही प्रकट कर रहे हों और फूलों के समूह से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो हृदय की प्रसन्नता ही दिखला रहे हों। इस प्रकार वे वृक्ष भगवान् की सेवा कर रहे थे।।२०३।। जबकि उन वृक्षों का ही ऐसा बड़ा भारी माहात्म्य था तब उपमारहित भगवान् वृषभदेव के केवलज्ञानरूपी विभव के विषय में कहना ही क्या है—वह तो सर्वथा अनुपम ही था।।२०४।।