योत्तुङ्गै: शिखरैर्बद्धजयकेतनकोटिभि:।
भुजशाखा: प्रसार्येव नमोगानाजुहूषत२।।११।।
जिन पर करोड़ों विजयपताकाएँ बँधी हुई हैं ऐसे ऊँचे शिखरों से वह गन्धकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने हाथों को फैलाकर देव और विद्याधरों को ही बुला रही हो।।११।।
धनुषां षट्शतीमेषा विस्तीर्णा यावदायता।
विष्कम्भात् साधिकोच्छ्राया मानोन्मानप्रमान्विता।।२४।।
विद्युन्मालावृत्तम्
तस्या मध्ये सैंहं पीठं नानारलव्राताकीर्णम्।
मेरो: शृङ्गं न्यक्कुर्वाणं चक्रे शक्रादेशाद् वित्तेट्।।२५।।
वह गंधकुटी छह सौ धनुष चौड़ी थी, उतनी ही लम्बी थी और चौड़ाई में कुछ अधिक ऊँची थी। इस प्रकार वह मान और उन्मान के प्रमाण से सहित थी।।२४।। उस गंधकुटी के मध्य में धनपति ने एक िंसहासन बनाया था जो कि अनेक प्रकार के रत्नों के समूह से जड़ा हुआ था और मेरु पर्वत के शिखर को तिरस्कृत कर रहा था।।२५।।१
विशेष-गंधकुटी में शिखरों पर करोड़ों ध्वजाएँ लहराती थीं ऐसा आदिपुराण भाग-१ पर्व-२३ में पृ. ५४१ पर लिखा है।
धूलीसाल कोट की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकरों से चौगुनी होती हैं-
धूलीसालाण पुढं णियजिणदेहोदयप्पमाणेण।
चउगुणिदेणं उदओ सव्वेसु समवसरणेसुं।।७४६।।
सब समवसरणों में धूलिसालों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकर के शरीर के उत्सेधप्रमाण से चौगुणी होती है।।७४६।।
प्रथम भूमि में जिनमंदिर एवं महल-प्रासाद ये बारह गुणे ऊँचे हैं-
जिणपुरपासादाणं उस्सेहो णियजििंणदउदएण।
बारहदेण य सरिसो णट्ठो दीहत्तवासउवदेसो।।७५३।।
जिनपुर और प्रासादों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुणी होती है। इनकी लम्बाई और विस्तार के प्रमाण का उपदेश नष्ट हो गया है।।७५३।।
प्रथम पीठ-कटनी में चढ़ने के लिए १६-१६ सीढ़ियाँ हैं-
पत्तेकं कोट्ठाणं पणधीसुं तह य सयलवीहीणं।
होंति हु सोलस सोलस सोवाणां पढमपीढेसुं४।।८६६।।
प्रथम पीठों के ऊपर उपर्युक्त बारह कोठों में से प्रत्येक कोठों के प्रवेश द्वारों में और समस्त (चार) वीथियों के सन्मुख सोलह सोपान होते हैं।।८६६।।
तृतीय कटनी पर गंधकुटी है-
एक्केक्का गंधउडी होदि तदो तदियपीढउपरिम्मि।
चामरिंककिणिवंदणमालाहारादिरमणिज्जा ।।८८७।।
गोसीरमलयचंदणकालागरुपहुदिधूवगंधड्ढा ।
पजलंतरयणदीवा पञ्चंतचित्तधयपंती।।८८८।।
तीए रुंदायामा छस्सयदंडाणि उसहणाहम्मि।
पणकदिपरिहीणािंण कमसो सिरिणेमिपरियंतं।।८८९।।
इसके आगे इन तीसरी पीठिकाओं के ऊपर एक-एक गंधकुटी होती है। यह गंधकुटी चामर, िंककिणी, वन्दनमाला और हारादिक से रमणीय, गोशीर, मलय चन्दन और कालागरु इत्यादिक धूपों के गंध से व्याप्त, प्रज्वलित रत्नों के दीपकों से सहित, तथा नाचती हुई विचित्र ध्वजाओं की पंक्तियों से संयुक्त होती है।।८८७-८८८।।
उस गंधकुटी की चौड़ाई और लम्बाई भगवान् ऋषभनाथ के समवसरण में छह सौ धनुष प्रमाण थी। फिर इसके पश्चात् श्रीनेमिनाथ पर्यंत क्रम से उत्तरोत्तर पाँच का वर्ग अर्थात् पच्चीस-पच्चीस धनुष कम होती गयी है।।८८९।।
गंधकुटी में सिंहासन-
िंसहासणाणि मज्झे गंधउडीणं सपादपीढाणि।
वरफलिहणिम्मिदाणिं घंटाजालादिरम्माणि१।।८९३।।
गन्धकुटियों के मध्य में पादपीठ सहित, उत्तम स्फटिक मणियों से निर्मित और घंटाओं के समूहादिक से रमणीय िंसहासन होते हैं।।८९३।।
अशोक वृक्ष भी बारहगुणे ऊँचे हैं-
णियणियजिणउदएणं बारसगुणिदेिंह सरिसउच्छेहा।
उसहजिणप्पहुदीणं असोयरुक्खा विरायंति।।९१९।।
ऋषभादिक तीर्थंकरों के उपर्युक्त चौबीस अशोकवृक्ष बारह से गुणित अपने-अपने जिन की ऊँचाई से युक्त होते हुए शोभायमान हैं।।९१९।।
कोठे छोटे हैं………. जीव असंख्यात हैं—
कोट्टाणं खेत्तादो जीवक्खेत्तंफलं असंखगुणं।
होदूण अपुट्ठ त्ति हु जिणमाहप्पेण ते सव्वे३।।९३०।।
कोठों के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यातगुणा है, तथापि वे सब जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरें से अस्पृष्ट रहते हैं।।९३०।।
विशेष-मैंने आज से पूर्व सर्वप्रथम समवसरण का दर्शन अजमेर में शहर में सेठ भागचंद जैन सोनी के मंदिर में किये हैं। वहाँ पर समवसरण समतल पर है। सभी भूमियाँ समतल में हैं। स्टेप से नहीं है। ऐसे ही सुजानगढ़ में था।सर्वप्रथम विजयनगर व शिखरजी में जब स्टेप बाई स्टेप् से अर्थात् एक-एक भूमियों को ऊपर-ऊपर लेकर समवसरण बनाए जाने लगे, चर्चा आई, मैंने मना कराया था। फिर भी यह सुन्दर दिखता है-आदि कहकर एक-एक भूमियों को ऊपर-ऊपर लेकर बना दिये गये।
चिंतन का विषय है कि-
पहली भूमि में मानस्तंभ हैं। आगे की चौथी भूमि में ‘अशोकवृक्ष’ आदि, पाँचवी भूमि में ध्वजाएँ, छठी में कल्पवृक्ष, सातवीं में स्तूप हैं-ये यदि आगम के आधार से बारह गुणे-बारह गुणे ऊँचे हैं तो मानस्तंभ से ऊँचे-ऊँचे होते चले जाएँगे। ऐसा शायद आप किसी को भी स्वीकार नहीं होगा।अत: मेरी प्रेरणा से बने समवसरण अयोध्या में, प्रयाग में व हस्तिनापुर में जो हैं उनमें समतल में ही आठों भूमियाँ बनायी गई हैं।