प्रभो: ऋषभदेवस्य, समवादिसृतिर्भुवि।
श्रीविहारोऽपि देवस्य, सर्वमंगलकारणम्।।
भगवान ऋषभदेव ने पुरिमतालपुर के उद्यान में ध्यान के बल से जब घातिया कर्मों पर विजय प्राप्त कर ली तब उसी क्षण उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया। तत्क्षण ही तीनों लोकों में आनंद की लहर छा गई। भगवान पृथ्वी से अधर आकाश में दो हजार हाथ ऊपर पहुँच गये। भगवान को वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान हुआ था, आज वह ‘प्रयाग’ (इलाहाबाद) में विद्यमान हैं।
उसी क्षण स्वर्गों में कल्पवासी देवों के यहाँ अपने आप बिना बजाये घंटे बजने लगे, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगा, व्यंतर देवों के घरों में भेरी बजने लगीं और भवनवासी देवों के यहाँ शंख ध्वनि होने लगी।
तभी समस्त इंद्रों के आसन कंपायमान हो गये, इंद्रों के मुकुट स्वयमेव झुक गये। कल्पवृक्षों से अपने आप पुष्प बरसने लगे और देवों के हाथी सूंड में कमल उठाकर ऊपर करके नाचने लगे। सभी दिशाएँ स्वच्छ हो गईं और मंद-सुगंध पवन चलने लगी।
सौधर्म इन्द्र ने तत्क्षण ही अवधिज्ञान से जान लिया कि ‘भगवान ऋषभदेव’ को केवलज्ञान प्रगट हो गया। तभी उसने सिंहासन से उतरकर सात पैंड आगे बढ़कर परोक्ष से ही भगवान को नमस्कार किया और कुबेर को आज्ञा दी-
हे धनपते! तुम शीघ्र ही पुरिमतालपुर के उद्यान में पहुँचकर भगवान ऋषभदेव के समवसरण की रचना कर दो। कुबेर ने उसी समय अर्धनिमिष में आकाश में अधर समवसरण की रचना कर दी। उस समवसरण में भगवान कमलासन पर चार अंगुल अधर विराजमान हो गये।
सौधर्म इन्द्र का आगमन-अनन्तर सौधर्मेन्द्र ने भगवान का केवलज्ञान महोत्सव मनाने के लिए मध्यलोक में चलने के लिए देवों को आज्ञा दी। तभी प्रस्थान काल की सूचना देने के लिए जोर-जोर से नगाड़े बजाये गये। उसी क्षण ‘बलाहक’ नाम के देव ने एक ‘कामग’ नाम का विमान बनाया और आभियोग्य जाति के देवों में मुख्य ऐसे ‘नागदत्त’ नाम के देव ने विक्रिया ऋद्धि से एक ‘ऐरावत’ नाम का हाथी बनाया। इस हाथी का वर्ण सफेद था।
उस ऐरावत हाथी के बत्तीस मुख थे, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत थे, एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर था, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल थे, एक-एक कमल में बत्तीस-बत्तीस दल थे। इन लंबे-लंबे दलों पर बत्तीस-बत्तीस अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं।
सौधर्म इन्द्र अपनी इन्द्राणी और ऐशान इंद्र के साथ-साथ ऐसे ऐरावत हाथी पर बैठकर चल पड़ा। उसी समय सभी इन्द्रगण व देवगण अपने-अपने परिवारदेव व देवियों के साथ अपने-अपने वाहनों में बैठकर इन्द्र के साथ निकल पड़े। उस समय इन्द्र के सामने भी अनेक देव अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं और किन्नरी देवियाँ श्रीऋषभदेव के विजय गीत गा रही थीं। ऐसे बत्तीस इंद्रों की सेनाएँ उस समय ध्वजा, छत्र, चंवर आदि से विभूषित हुई आकाश मंडल में छा गई थीं।
सबसे आगे किल्विषक जाति के देव जोर-जोर से सुंदर नगाड़े बजा रहे थे। उनके पीछे इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक और प्रकीर्णकजाति के देव अपने-अपने वाहनों पर आरूढ हो सौधर्मेन्द्र के पीछे-पीछे चल रहे थे। उस समय अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं, गंधर्वदेव बाजे बजा रहे थे और किन्नरी जाति की देवियाँ भगवान के गुणानुवादरूप गीत गा रही थीं।
इन्द्र आदि देवों के संक्षिप्त लक्षण-
इन्द्र-जो अन्य देवों में नहीं पाये जाने वाले ऐसे आज्ञा, ऐश्वर्य आदि गुणों से सहित हैं, वे ‘इन्द्र’ हैं।
सामानिक-जो आज्ञा और ऐश्वर्य के बिना अन्य गुणों से इन्द्र के समान हैं और इन्द्र भी जिसे बड़ा मानते हैं, वे ‘सामानिक’ हैं।
त्रायस्त्रिंश-जो पुरोहित, मंत्री और अमात्यों के समान होते हैं उन्हें ‘त्रायस्त्रिंश’ कहते हैं। ये संख्या में तेंतीस-तेंतीस ही इन्द्रों की सभा में होते हैं।
पारिषद-जो इन्द्र की सभा में उपस्थित रहते हैं और इन्द्र का उन पर अतिशय प्रेम रहता है, वे ‘पारिषद’ हैं।
आत्मरक्ष-जो देव अंगरक्षक के समान इन्द्र के चारों ओर तलवार लेकर घूमते रहते हैं वे ‘आत्मरक्ष’ हैं। यद्यपि इन्द्र को स्वर्ग में कुछ भी भय नहीं रहता है फिर भी ये इन्द्र का वैभव दिखलाने के लिए ही वहाँ रहते हैं।
लोकपाल-जो दुर्गरक्षक के समान स्वर्गलोक की रक्षा करते हैं, वे ‘लोकपाल’ हैं।
अनीक-जो सेना के समान हैं, वे ‘अनीक’ हैं। इनके सात भेद हैं-हाथी, घोड़े, रथ, पदाति, बैल, गंधर्व और नर्तकी। ये सात प्रकार के देवों की सेनाएँ हैं।
प्रकीर्णक-नगर तथा देशों में रहने वालों के समान जो देव हैं, वे ‘प्रकीर्णक’ कहलाते हैं।
आभियोग्य-जो नौकर-चाकरों के समान हैं, वे ‘आभियोग्य’ देव हैं।
किल्विषक-और जो इन्द्र की सभा से बाहर रहते हैं, वे ‘किल्विषक’ कहलाते हैं।
इस तरह स्वर्गों में दश प्रकार के देव होते हैं।
स्वर्ग में हाथी, बैल आदि पशु हंस, तोते आदि पक्षी नहीं होते हैं। वहाँ पर वे देव ही विक्रिया से पशु-पक्षियों के रूप बनाते हैं।
यहाँ पर जो अल्प पुण्य करते हैं, या तपस्वी साधु आदि बड़ों का अपमान करते हैं अथवा व्रतों में दूषण लगाते हैं, गुरु की आज्ञा उल्लंघन कर स्वच्छंद प्रवृत्ति करते हैं इत्यादि कारणों से ही मनुष्य अल्पपुण्य से मरकर देवगति में पहुँच जाते हैं किन्तु वहाँ पर आभियोग्य या किल्विषक देवों में जन्म ले लेते हैं, ऐसा समझना।
तीर्थंकर भगवान तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ हैं—
ऐसे असंख्य वैभव से सहित इन्द्र भी जिनकी सेवा करते हैं ऐसे जिनेन्द्र भगवान श्री ऋषभदेव तीनों लोकों में श्रेष्ठ माने गये हैं।
अथवा यों कहिये कि सौधर्मेन्द्र आदि सौ इन्द्रों से वंदित होने से ही भगवान तीर्थंकर श्रेष्ठ माने गये हैं।
अथवा इन्द्रों द्वारा भक्ति की जाने से, समवसरण सभा के रचे जाने से और किंकर बनकर व्यवस्था करते रहने से ही भगवान सर्वश्रेष्ठ गिने गये हैं।
श्री मानतुंगस्वामी ने कहा भी है-
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र! धर्मोपदेशन विधौ न तथा परस्य।
यादृक् प्रभा दिनकृत: प्रहतांधकारा, तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि।
हे जिनेन्द्रदेव! धर्म के उपदेश के समय समवसरण में जैसी आप की विभूति थी, वैसी अन्य किसी की नहीं हो सकती है। सो सच ही है-जैसी प्रभा सूर्य की होती है जो कि अंधकार को दूर कर देती है, वैसी प्रभा ग्रह, नक्षत्र, ताराओं की नहीं हो सकती है।
सौधर्म इन्द्र ने किए समवसरण के दर्शन-
इन्द्र ने ऐरावत हाथी पर बैठकर स्वर्ग से प्रयाण कर अर्धनिमिष में मध्यलोक में आकर भगवान ऋषभदेव के समवसरण को दूर से ही देखा।
यह बारह योजन-छ्यानवे मील का विस्तृत गोलाकार था और इन्द्रनील मणि से बना हुआ था।
इसको घेरकर चारों ओर पंचवर्णी रत्नों से निर्मित ‘धूलिसाल’ नाम का परकोटा था।
अहो! जिस समवसरण की रचना का सूत्रधार स्वयं इन्द्र था, उस समवसरण का वर्णन भला कौन कर सकता है ?
इस समवसरण में अनेक नाट्यशालाएँ बनी हुई थीं, जहाँ देवांगनाएँ भगवान के गुणों का गान करते हुए नृत्य करती रहती थीं। अनेक सुंदर उपवन-बगीचे थे जो नंदनवन से भी अधिक सुंदर थे, अनेक बावड़ियाँ थीं, अनेक स्तूप ऐसे थे जो मध्यलोक, स्वर्गलोक, तीनलोक आदि की रचनाओं को दिखला रहे थे। जगह-जगह नवनिधियाँ थीं जो सभी को इच्छित फल देने वाली थीं। इसी प्रकार कल्पवृक्षों से, अनेक ध्वजाओं से इसकी सुंदरता ऐसी अद्भुत थी कि तीन लोक में भी ऐसी दर्शनीय वस्तुएँ मिलना असंभव था।
यह सभी वैभव सभी जीवों के मन को हरण करने वाला था।
यही कारण है कि आज भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, कल्पद्रुम विधान आदि धार्मिक कार्यक्रमों में अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम-धार्मिक नाटक, भजन, नृत्य आदि आयोजित किये जाते हैं जो कि लोगों का मनोरंजन भी करते हैं और धर्म में प्रीति एवं पापों से भय भी उत्पन्न कराते हैं।
अब यहाँ संक्षेप में तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के आधार से समवसरण का वर्णन करते हैं-
समवसरण के वर्णन में इक्तीस प्रकरण अधिकार जानने योग्य हैं-१. सामान्य भूमि का प्रमाण २. सोपानों का प्रमाण ३. विन्यास ४. वीथी ५. धूलिसाल कोट ६. चैत्यप्रासाद भूमि ७. नृत्यशाला ८. मानस्तंभ ९. वेदी १०. खातिकाभूमि ११. वेदी १२. लताभूमि १३. साल १४. उपवनभूमि १५. नृत्यशाला १६. वेदी १७. ध्वजाभूमि १८. साल १९. कल्पभूमि २०. नृत्यशाला २१. वेदी २२. भवनभूमि २३. स्तूप २४. साल २५. श्रीमंडपभूमि २६. ऋषि आदि द्वादशगणों का विन्यास २७. वेदी २८. प्रथम कटनी २९. द्वितीय कटनी ३०. तृतीय कटनी ३१. गंधकुटी का प्रमाण।
अथवा सरलता से समझने के लिए इसमें चार परकोटे, पाँच वेदियाँ, आठ भूमियाँ एवं तीन कटनी हैं। तीसरी कटनी पर गंधकुटी है। इसमें भी आठ भूमियों को समझ लेने से सब समझ में आ जाता है।
सामान्य भूमि-सामान्यरूप से यह समवसरण भूमि गोल है, आकाश में अधर है, इन्द्रनीलमणिमयी है और बारह योजन प्रमाण है। इसके आगे भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान नेमिनाथपर्यन्त आधा-आधा योजन अर्थात् दो-दो कोश कम होती गई है तथा पार्श्वनाथ एवं महावीर भगवान की योजन के चतुर्थ भाग-एक-एक कोश कम थी। यह जो सामान्य भूमि का प्रमाण बतलाया है, वह अवसर्पिणी काल के तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का है। उत्सर्पिणी काल में इससे विपरीत है। विदेह क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का प्रमाण बारह योजन ही है क्योंकि वहाँ हमेशा चतुर्थकाल के प्रारंभ जैसी ही कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है।
१. | भगवान ऋषभदेव का समवसरण | १२ योजन (९६ मील) |
२. | भगवान अजितनाथ का समवसरण | ११ (१/२ योजन) (९२ मील) |
३. | भगवान संभवनाथ का समवसरण | ११ योजन (८८ मील) |
४. | भगवान अभिनंदननाथ का समवसरण | १० १/२ योजन (८४ मील) |
५. | भगवान सुमतिनाथ का समवसरण | १० योजन (८० मील) |
६. | भगवान पद्मप्रभु का समवसरण | ९ १/२ योजन (७६ मील) |
७. | भगवान सुपार्श्वनाथ का समवसरण | ९ योजन (७२ मील) |
८. | भगवान चंद्रप्रभु का समवसरण | ८ १/२ योजन (६८ मील) |
९. | भगवान पुष्पदंतनाथ का समवसरण | ८ योजन (६४ मील) |
१०. | भगवान शीतलनाथ का समवसरण | ७ १/२ योजन (६० मील) |
११. | भगवान श्रेयांसनाथ का समवसरण | ७ योजन (५६ मील) |
१२. | भगवान वासुपूज्यनाथ का समवसरण | ६ १/२ योजन (५२ मील) |
१३. | भगवान विमलनाथ का समवसरण | ६ योजन (४८ मील) |
१४. | भगवान अनंतनाथ का समवसरण | ५ १/२ योजन (४४ मील) |
१५. | भगवान धर्मनाथ का समवसरण | ५ योजन (४० मील) |
१६. | भगवान शांतिनाथ का समवसरण | ४ १/२ योजन (३६ मील) |
१७. | भगवान कुंथुनाथ का समवसरण | ४ योजन (३२ मील) |
१८. | भगवान अरनाथ का समवसरण | ३ १/२ योजन (२८ मील) |
१९. | भगवान मल्लिनाथ का समवसरण | ३ योजन (२४ मील) |
२०. | भगवान मुनिसुव्रतनाथ का समवसरण | २ १/२ योजन (२० मील) |
२१. | भगवान नमिनाथ का समवसरण | २ योजन (१६ मील) |
२२. | भगवान नेमिनाथ का समवसरण | १ १/२ योजन (१२ मील) |
२३. | भगवान पार्श्वनाथ का समवसरण | १ १/४ योजन (१० मील) |
२४. | भगवान महावीर का समवसरण | १ योजन (८ मील) |
सोपान रचना-यह समवसरण इस भूमितल से ५० धनुष अर्थात् २०० हाथ ऊँचाई पर रहता है अत: पृथ्वी तल से एक हाथ ऊपर से सीढ़ियाँ शुरू हो जाती हैं। देव, मनुष्य और तिर्यंचों के चढ़ने के लिए आकाश में चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर-ऊपर, एक-एक हाथ ऊँची ऐसी सुवर्णमयी बीस हजार सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
समवसरण का ऐसा माहात्म्य है कि अंधे, लंगड़े, लूले, बालक, वृद्ध, युवा, बीमार आदि सभी जन इन सीढ़ियों को अंतर्मुहूर्त-४८ मिनट में ही पार कर जाते हैं।
विन्यास-इस समवसरण में चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ थीं, पुन: तीन कटनी थीं।
समवसरण में चारों दिशाओं में वीथी-गलियाँ बनी थीं, ये गलियाँ दो-दो कोश विस्तार वाली हैं। यह वीथियों का प्रमाण श्री ऋषभदेव के समवसरण का है।
आठों भूमियों के मूल में वङ्कामय कपाटों से सुशोभित एवं देव, मनुष्य और तिर्यंचों के गमनागमन से सहित ऐसे बहुत से तोरणद्वार बने हुए थे।
धूलिसाल परकोटा-इस समवसरण भूमि में, जो कि आकाश में अधर है उसमें सबसे बाहर ‘धूलिसाल’ नाम का परकोटा है। यह पंचवर्णी रत्नों से निर्मित है, इसमें मार्ग बने हैं, अट्टालिकाएँ हैं और पताकाएँ फहरा रही हैं। इस परकोटे में पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के चार गोपुर द्वार होते हैं। ये द्वार तीन खन के थे और मणिमय माला आदि से सुंदर सजे हुए थे।
प्रत्येक ‘गोपुर’ के बाहर और मध्य भाग में द्वार के दोनों पार्श्व भागों में आठ मंगल द्रव्य, नवनिधियाँ रखी रहती हैं। बहुत पुत्तलिकाएँ बनी हुई थीं जिनके मस्तक पर धूपघट रखे हुए थे। इन धूपघटों में हमेशा अग्नि जलती रहती थी व देवगण धूप खेया करते थे।
अन्य वर्णन-
मंगलद्रव्य-झारी, कलश, दर्पण, चामर, ध्वजा, व्यजन, छत्र और सुप्रतिष्ठ ये आठ मंगलद्रव्य प्रत्येक १०८-१०८ वहाँ रहते हैं।
नवनिधियाँ-काल, महाकाल, पांडु, माणवक, शंख, पद्म, वैडूर्य, पिंगल और नानारत्न ये नवनिधियाँ प्रत्येक १०८-१०८ समवसरण में रहती हैं। ये काल आदि निधियाँ क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य, (मालादिक) भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, महल, आभूषण और संपूर्ण रत्नों को देती हैं।
एक-एक पुतली के मस्तक पर एक-एक धूपघट रहता है१।
नाट्यशालाएँ-इन गोपुर द्वारों के बीच दोनों पार्श्वभागों में नाट्यशालाएँ बनी थीं, रत्नों से निर्मित इन नाट्यशालाओं में हमेशा देवांगनाएँ नृत्य करती रहती थीं।
इस धूलिसाल कोट की ऊँचाई भगवान ऋषभदेव की ऊँचाई से चौगुनी थी। इसके तोरणों की ऊँचाई चौगुनी परकोटे की ऊँचाई से अधिक थी एवं गोपुर द्वारों की ऊँचाई उनसे भी अधिक थी।
द्वाररक्षक देव-इस धूलिसाल के चारों गोपुरद्वारों पर उत्तम दण्डरत्नों को हाथ में लेकर ज्योतिषी देव द्वाररक्षक थे।