कत्तारा दुविहा अत्थकत्तारो गंथकत्तारो चेदि। तत्थ अत्थकत्तारो भयवं महावीरो। तस्स दव्व-खेत्त-काल-भावेहि परूवणा कीरदे गंथस्स पमाणत्तपदुप्पायणट्ठं। केरिसं महावीर-सरीरं ? समचउरससंठाणं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणं ससुअंधगंधेण आमोइयतिहुवणं सतेजपरिवेढेण विच्छाईकयसुज्जसंघायं सयलदोसवज्जियमिदि। कधमेदम्हादो सरीरादो गंथस्स पमाणत्तमवगम्मदे ? उच्चदे—णिराउहत्तादो जाणाविदकोह-माण-माया-लोह-जाइ-जरा-भरण-भय-हिंसाभावं, णिप्फंदक्खेक्खणादो जाणाविदतिवेदोदयाभावं। णिराहरणत्तादो जाणाविदरागाभावं, भिउडिविरहादो जाणाविदकोहाभावं। वग्गण-णच्चण-हसण-फोडणक्खसुत्त-जडा-मउड-णरसिरमालाधरणविरहादो मोहाभावलिंगं। णिरंबरत्तादो लोहाभावलिंग। ण तिरिक्खेहि वियहिचारो, वइधम्मादो। ण दालिद्दिएहि वियहिचारो, अट्ठुत्तरसयलक्खणेहि अवगयदालिद्दाभावादो। ण गहछलिएहि वियहिचारो, अट्ठुत्तरसयलक्खणेहि अवगयतिहुवणाहिवइत्तस्स गहच्छलणाभावादो। णिव्विसयत्तादो णिस्सेसदोसाभावलिंगं। अग्गि-विसासणि-वज्जाउहादीहि बाहाभावादो घाइकम्माभावलिंगं। ण विज्जावाईहि’ वयहिचारो, सोहम्मिंदादिदेवेहि अवहिरिदविज्जासत्तिम्हि तब्बाहाणुवलंभादो सणिबंधणाणिबंधणाणं साहम्माभावादो वा। ण देवेहि वियहिचारो, णिराउहादिविसेसणविसिट्ठस्स अग्गि-विसासणि-वज्जाउहादिबाहाभावादो त्ति सविसेसणसाहणप्पओगादो। पुव्विल्ललिंगेहि जाणाविदमोहाभावेण वा अवगमिदघादिकम्माभावं। वलियावलोयणाभावादो सगासेसजीवपदोसट्ठियणाणं-दंसणावरणाणं णिस्सेसाभावलिंगं। सव्वावयवेहि पच्चक्खावगमादो अणिंदियजणिदणाणत्तलिंगं। आगासगमणेण पहापरिवेढेण तिहुवणभवणविसारिणा ससुरहिगंधेण च जाणाविदअमाणुसभावं। अधवा, ण इमे पादेक्कहेदओ, किंतु एदेिंस समूहो एक्को हेउ त्ति घेत्तव्वो। तदो एदं सरीरं राग-दोस-मोहाभावं जाणावेदि, तदभावो वि महावीरे मुसावादाभावं जाणावेदि, कारणाभावे कज्जस्स अत्थित्तविरोहादो। तदभावो वि आगमस्स पमाणत्तं जाणावेदि। तेण दव्वपरूवणा कायव्वा।।
भगवान महावीर का समवसरण
तित्थुप्पत्ती कम्हि खेत्ते ?
रविमंडलं व समवट्टे, बारहजोयणविक्खंभायामे, एिंक्कदणीलमणिसिलाघडिए, पंचरयणकणयविणिम्मिय-फुरंततेयचउतुंगगोउरधुलिवायारेण परिवेढियपेरंते, तस्संतो तिवायारवेढिय-तिमेहलापीढोवरिट्ठियमणिम-यदिप्पदीहरचउमाणत्थंभविसिट्ठ-विकसितोप्पलकंदोट्टारविंदादिपुप्फा इण्णणंदुत्तरादिवावीणिव-हाऊरियधूलीवायारंतब्भाए, णवणिहिसहियअट्ठुत्तरसयसंखुवलक्खियअट्ठमंगलावूरिदचउगोउरंतरिदसच्छ-जलकलिदखाइयापरिवेढिदे, तत्तो परं णाणाविहकुसुमभरेणोण्णयवल्लिवणेण चउरत्थंतरिएण परिवेढियाए, तत्तो परं सुतत्त-सुवण्णविणिम्मिएण अट्ठुत्तरसयट्ठमंगलणवणिहिसयलाहरणसहियधवलतुंगचउगोपुरपायारेण सोहियए, तत्तो परं चउण्हं गोउरवाराणमब्भंतरभागे दोपासट्ठिएहि डज्झंतसुगंधदव्वाणं गंधामोइयभुवणेहि दो-द्दोधूवघडएहि समुब्भडए, तत्तो परं तिभूमीएहि अइधवलरुप्पियरासिविणिम्मिएहि सगंगघडिदसुरलोय-सारमणिसंघायबहुवण्णकिरणपडिच्छाइएहि वज्जंतमुरवसंघायरवबहिरियजीवलोएहि बत्तीसच्छरापडि-बद्धबत्तीसपेक्खणयसहियदोद्दोपासाएहि भूसियए, चउमहावहंतरट्ठिएहि मउवसुगंधणयणहरवण्णसुरलोगरयण-घडियसमुत्तुंगरुक्खएहि विविहवरसुरहिगंधासत्तमत्तमहुवर-महुर-रवविराइयएहि णाणाविहगिरि-सरि-सर-मंडवसंडमंडिएहि चउपासट्ठियजिणिंदयंदपडिबिंबसंबंधेण पत्तच्चणचइत्तरुक्खएहि असोग-सत्तच्छद-चंपयंबवणेहि अइसोहियए, तत्तो परं रुप्पियचउगोउरसंबद्धसुवण्णणिम्मियवणवेइयावेढियए, तत्तो परं चउण्हं रत्थाणमंतरेसुट्ठियएहित्थिरथोरसुरलोयमणित्थंभएहि पादेक्कमट्ठुत्तरसयसंखाएहि एगेगदिसाए दसगुणट्ठहियसयएहि मल्लंबरद्ध-बरहिण-गरुड-गय-केसरि-वसह-हंस-चक्कद्धयणिवएहि परिवेढियए, तत्तो परमवरेण अट्ठुत्तरसयट्ठमंगल-णवणिहिहरचउगोउरमंडिएण विविहमणि-रयण-विचित्तियंगेण आहरणतोरणसयसहियवारेण सुवण्णपायारेण जुत्तए, तस्संतो पुव्वं व दो-द्दो-डज्झंत-सुवंधदव्वगब्भिण-धूवघडमुरव-महुर-रवविराइयतिहूमिधवलहरसमुत्तुंगए, तत्थेव चदुसु रत्थंतरेसु संकप्पियणाणाविहफल-दाणसमत्थएहि रुंटंतमहुअर-कलगलकलयंठीकुलसंकुलएहि सगकिरणणिवहच्छाइयंबरेहि विविहपुर-गिरि-सरि-सरवर-हिंदोल-लयाहरएहि चउगोउरसंबद्धसुवण्णवणवेइयामज्जाएहि सिद्धट्ठियबुद्धि-द्धसिद्धत्थपायव-पवित्तीकयकप्परुक्खवणेहि विहूसियए, तत्तो परं पउमरायमणिमयदेहाहि सगंगणिग्गयतेएण तंबीकयंबराहि सगसव्वंगेहि संधारियजििंणदयंदाहि मणितोरणंतरियाहि चदुसु रत्थंतरेसु ट्ठियधवलामलपासा-यविहूसियाहि रत्थामज्झट्टियणव-णवत्थूहाहि अंचियए, तदो गयणप्फलिहमणिघडिएण अट्ठुत्तरसयट्ठमंगल-णवणिहिसणाहपउमरायमणिविणिम्मियगोउरेण पायारेण अहिणंदियए, पीढस्स पढममेहलाए फलिहपायारे च विलग्गियाहि फलिहमणिघडियंगियाहि सोलहभित्तीहि कयबारहकोट्ठएहिमणित्थंभुद्धरियएगागासफलिहघडिय-मंडवच्छाइयएहि सुरलोयसारसुअंधगंधगब्भिणएहि चउव्विहसंघ-कप्पवासिय-मणुव-जोइसिय-वाणवेंतर-भवणवासियजुअईहि भवणवासिय-वाणवेंतर-जोइसिय-कप्पवासिय-मणुव-तिरिक्खेहि य अणुक्कमेण अहिउत्तएहि विराइए, तिमेहलापीढेण मत्थएण उड्ढवड्ढमाणदिवायरेण बिदियमेहलाए धरियट्ठमहाधय-मंगलेण मत्थयत्थधम्मचक्कविराइयजक्खकाएण मणिमएण समुत्तुंगवड्ढमाणजिणप्पहामंडलतेएण णट्ठंधारए, णिवदंतसुरकुसुमव्ारिसेण णिरंतरकयमंगलोवहारए, बहुकोडाकोडिमहुरसुरतूररवेण बहिरियतिहुवण-भवणए, मरगयमणिघडियखंधोवक्खंधेण पउमरायमणिमयपवालंकुरेण णाणाविहफलकलिएण भमर-परहुअ-महुवर-महुरसरविराइएण जिणसासणासोगिंचधेण असोगपायवेण णिण्णासियसयलजणसोगसंघए, सिसिरयरकरधवलेण जोयणंतरवित्थारएण सच्छधवलथूलमुत्ताहलदामकलावसोहमाणपेरंतएण गयणट्ठियछत्तत्तएण वड्ढमाण-तिहुवणाहिवइत्तचिंधएण सुसोहियए, पंचसेलउरणेरइदिसाविसयअइविउलविउलगिरिमत्थयत्थए, गंगोहोव्व चउहि सुरविरइयवारेहि पविसमाणदेव-विज्जाहर-मणुवजणाण मोहए समवसरणमंडले जिणवइतणुमऊहखीरो-वहिणिव्वुडासेसदेहम्मि जिंक्खदकरणियरेहि विज्जिज्जमाणाणेयचामरच्छण्णट्ठदिसाविसयम्मि दिव्वामोयगंध-सुरसाराणेयमणिणिवहघडिययम्मि गंधउडिपासायम्मि ट्ठियसीहासणारूढेण वड्ढमाणभडारएण तित्थमुप्पाइदं।
कर्ता दो प्रकार हैं—अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता। उनमें अर्थकर्ता भगवान् महावीर हैं। ग्रन्थ की प्रमाणता को बतलाने के लिए उसकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से प्ररूपणा करते हैं। महावीर का शरीर वैâसा है ? वह समचतुरस्रसंस्थान से युक्त, वङ्कार्षभवङ्कानाराचशरीरसंहनन से सहित, सुगन्ध युक्त गन्ध से तीनों लोकों को सुगन्धित करने वाला अपने प्रभामण्डल से सूर्य समूह को फीका करने वाला, तथा समस्त दोषों से रहित है।
शंका—इस शरीर से ग्रन्थ की प्रमाणता वैâसे जानी जाती है ?
समाधान—इसका उत्तर कहते हैं—वह शरीर निरायुध होने से क्रोध, मान, माया, लोभ, जन्म, जरा, भरण, भय और हिंसा के अभाव का सूचक है। स्पन्द रहित नेत्र दृष्टि होने से तीनों वेदों के उदय के अभाव का ज्ञापक है, निराभरण होने से राग के अभाव को प्रकट करने वाला है। भृकुटि रहित होने से क्रोध के अभाव का ज्ञापक है। गमन, नृत्य, हास्य, विदारण, अक्षसूत्र, जटा, मुकुट और नरमुण्डमाला को न धारण करने से मोह के अभाव का सूचक है। वस्त्र रहित होने से लोभ के अभाव का सूचक है। यहाँ तिर्यंचों से व्यभिचार नहीं है, क्योंकि, उनमें साधर्म्य का अभाव है। दरिद्रों से भी व्यभिचार नहीं है, क्योंकि एक सौ आठ लक्षणों से महावीर के दरिद्रता का अभाव जाना जाता है। न गृहछलियों से (गृहस्खलित अर्थात् गृहभृष्ट मनुष्यों से) व्यभिचार है, क्योंकि एक सौ आठ लक्षणों से जिनके तीनों लोकों का अधिपतित्व निश्चित है उनके गृहस्खलन हो नहीं सकता। वह शरीर निर्विषय होने से समस्त दोषों के अभाव का सूचक है। अग्नि, विष, अशनि और वङ्काायुधादिकों से बाधा न होने के कारण घातिया कर्मों के अभाव का अनुमापक है। यहाँ विद्यावादियों से व्यभिचार नहीं आता, क्योेंकि सौधर्मेन्द्र आदि देवों द्वारा जिसकी विद्याशक्ति छीन ली गई है उसमें चूँकि पूर्वोक्त बाधाएँ पायी जाती हैं तथा सकारण और अकारण बाधाभावों में साधर्म्य भी नहीं है।
विशेषार्थ—विद्यावादियों में बाधाभाव सकारण है, क्योंकि, वहाँ उक्त बाधाभाव विद्याजनित है, न कि जिन भगवान् के समान घातिया कर्मों के अभाव से उत्पन्न बाधाभाव जैसा स्वाभाविक। यही दोनों के बाधाभाव में वैधर्म्य है।
न देवों से व्यभिचार है, क्योंकि निरायुधादि विशेषणों से विशिष्ट उक्त शरीर के अग्नि, विष, अशनि, और वङ्काायुधादिकों से कोई बाधा नहीं होती, ऐसे सविशेषण साधन का प्रयोग है। अथवा, पूर्वोक्त हेतुओं से सूचित मोहाभाव के द्वारा वह घातिया कर्मों के अभाव को प्रगट करने वाला है। वलित अर्थात् कुटिल अवलोकन का अभाव होने से अपने समस्त जीव प्रदेशों पर स्थित ज्ञानावरण और दर्शनावरण के पूर्ण अभाव का सूचक है। समस्त अवयवों द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होने से अतीन्द्रिय ज्ञानत्व का सूचक है। तथा आकाश गमन से, प्रभामण्डल से एवं त्रिभुवन रूप महल में पैâलने वाली अपनी सुरभित गन्ध से अमानुषता का ज्ञापक है। अथवा, ये प्रत्येक अलग-अलग हेतु नहीं हैं, किन्तु इनके समूह रूप एक हेतु है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इस कारण यह शरीर राग, द्वेष एवं मोह के अभाव का ज्ञापक है और रागादि का अभाव भी भगवान् महावीर में असत्य भाषण के अभाव को प्रकट करता है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य के अस्तित्व का विरोध है। और असत्य भाषण का अभाव भी आगम की प्रमाणता का ज्ञापक है। इसलिए द्रव्य से अर्थकर्ता की प्ररूपणा करना चाहिए।
तीर्थ की उत्पत्ति किस क्षेत्र में हुई है ?
जो समवसरणमण्डल सूर्यमण्डल के समान समवृत्त अर्थात् गोल है, बारह योजन प्रमाण विस्तार और आयाम से युक्त है, एक इन्द्रनील मणिमय शिला से घटित है, पाँच रत्नों व सुवर्ण से निर्मित और प्रकाशमान तेज से संयुक्त ऐसे चार उन्नत गोपुर युक्त धूलिसाल से जिसका पर्यन्त भाग घिरा हुआ है, उसके भीतर तीन प्राकारों से वेष्टित तीन कटनी युक्त पीठ के ऊपर स्थित मणिमय दैदीप्यमान दीर्घ चार मानस्तम्भों से विशिष्ट व विकसित उत्पल, कंदोट्ट (नील कमल) एवं अरविन्द आदि पुष्पों से व्याप्त ऐसी नन्दोत्तरादि वापियों के समूह से जिसमें धूलिप्राकार का अभ्यन्तर भाग परिपूर्ण है, जो नौ निधियों से सहित व एक सौ आठ संख्या से उपलक्षित आठ मंगलद्रव्यों से परिपूर्ण ऐसे चार गोपुरों से व्यवहित स्वच्छ जल युक्त खातिका से वेष्टित है, इसके आगे चार वीथियों से व्यवहित व नाना प्रकार के पुष्पों के भार से उन्नत ऐसे वल्लीवन से परिवेष्टित है, इसके आगे तपाये हुए सुवर्ण से निर्मित व एक सौ आठ संख्या युक्त आठ मंगल द्रव्य, नौ निधियों एवं समस्त आभरणों से सहित धवल उन्नत चार गोपुर युक्त प्राकार से सुशोभित है; इसके आगे चार गोपुर द्वारों के अभ्यन्तर भाग में दोनों पार्श्व भागों में स्थित, जलते हुए सुगन्ध द्रव्यों के गन्ध से भुवन को आमोदित करने वाले ऐसे दो-दो धूपघटों से संयुक्त है; इसके आगे तीन भूमियों से संयुक्त, अत्यन्त धवल चाँदी की राशि से निर्मित, अपने अवयवों में लगे हुए सुरलोक के श्रेष्ठ मणिसमूह की अनेक वर्ण वाली किरणों से आच्छादित, बजते हुए मृदंगसमूह के शब्द से जीव लोक को बहरा करने वाले, तथा बत्तीस अप्सराओं से सम्बद्ध बत्तीस नाटकों से सहित, ऐसे दो-दो प्रासादों से भूषित है; चार महापथों के बीच में स्थित, मृदु, सुगन्धित एवं नेत्रों को हरने वाले वर्णों से युक्त सुरलोक के रत्नों से निर्मित ऊँचे वृक्षों से संयुक्त, अनेक प्रकार की उत्तम सुगन्ध में आसक्त हुए भ्रमरों के मधुर शब्द से विराजित नाना प्रकार के पर्वत, नदी, सरोवर व मण्डप समूहों से मण्डित तथा चारों पार्श्व भागों में स्थित जिनेन्द्र-चन्द्र के प्रतिबिम्ब के सम्बन्ध से पूजा को प्राप्त हुए चैत्यवृक्षों से सहित ऐसे अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक व आम्र वनों से अतिशय शोभित है; इसके आगे चाँदी से निर्मित चार गोपुरों से सम्बद्ध व सुवर्ण से निर्मित ऐसी वनवेदिका से वेष्टित है; इसके आगे चार वीथियों के मध्य भागों में स्थित, स्थिर व स्थूल स्वर्गलोक के मणिमय स्तम्भों से संयुक्त, प्रत्येक एक सौ आठ संख्या से युक्त, एक-एक दिशा में दश से गुणित एक सौ आठ (१०८ ² १० · १०८०) ऐसी माला-अम्बराध्व अर्थात् सूर्य और चन्द्र-मयूर-गरुड़-गज-िंसह-वृषभ-हंस और चक्र के चिह्न से युक्त ध्वजाओं के समूह से घिरा हुआ है; इसके आगे एक सौ आठ मंगल द्रव्य व नौ निधियों को धारण करने वाले चार गोपुरों से मण्डित, अनेक प्रकार के मणि व रत्नों से विचित्र देह वाले तथा सैकड़ों आभरण व तोरणों से सहित द्वारों से संयुक्त ऐसे सुवर्ण प्राकार से युक्त है; उसके भीतर पूर्व के समान जलते हुए सुगन्ध द्रव्यों को मध्य में धारण करने वाले दो-दो धूपघटों से युक्त और मृदंग के मधुर शब्द से विराजित तीन भूमियों वाले धवल घरों से उन्नत है; वहाँ पर ही चार वीथियों के अन्तरालों में संकल्पित नाना प्रकार फलों के देने में समर्थ, गुंजार करने वाले भ्रमर व सुन्दर गले वाली कोयलों के समूह से व्याप्त, अपने किरण समूह से आकाश को आच्छादित करने वाले, अनेक प्रकार के पुर-पर्वत-नदी-सरोवर-हिंडोलों एवं लताग्रहों से संयुक्त, चार गोपुरों से सम्बद्ध सुवर्णमय वनवेदिका रूप मर्यादा वाले तथा सिद्ध प्रतिमाओं से दीप्त सिद्धार्थ वृक्षों से पवित्र किए गए ऐसे कल्पवृक्ष वनों से विभूषित है; इसके आगे पद्मरागमणिमय देह से संयुक्त, अपने अंग से निकलने वाले तेज से आकाश को ताम्रवर्ण करने वाले, अपने सब अंगों से जिनेन्द्र-चन्द्रों को धारण करने वाले, मणिमय तोरणों से अन्तरित, चार वीथियों के अन्तरालों में स्थित धवल व निर्मल प्रासादों से विभूषित, ऐसे वीथियों के मध्य में स्थित नौ-नौ स्तूपों से व्याप्त है; इसके आगे आकाश-स्फटिकमणि से निर्मित तथा एक सौ आठ अष्ट-मंगल-द्रव्यों एवं नौ निधियों से सनाथ व पद्मरागमणि से निर्मित गोपुरों वाले प्राकार से अभिनन्दित है; पीठ की प्रथम कटनी व स्फटिक प्राकार से लगी हुई और स्फटिकमणि से निर्मित देहवाली सोलह भित्तियों से विभक्त किए गए, मणिमय स्तम्भों से उद्धृत व एक आकाश स्फटिक से निर्मित मण्डप से आच्छादित, स्वर्गलोक के श्रेष्ठ सुगन्ध गन्धद्रव्य को धारण करने वाले, चतुर्विध मुनिसंघ, कल्पवासिनीदेवी, मनुष्यनी, ज्योतिष्कदेवी, व्यन्तरदेवी भवनवासिदेवी, भवनवासीदेव, वानव्यन्तरदेव, ज्योतिषीदेव, कल्पवासीदेव, मनुष्य व तिर्यंचों से क्रमशः संयुक्त, ऐसे बारह कोठों से विराजित हैं; जिसके मस्तक के ऊपर वर्धमान भगवान् रूपी सूर्य स्थित हैं, जिसकी द्वितीय कटिनी पर आठ ध्वजाएँ व मंगलद्रव्य रखे हुए हैं, जो (प्रथम कटिनी पर) मस्तक पर स्थित धर्मचक्र से विराजित यक्षों के शरीर से संयुक्त है, मणियों से निर्मित है तथा उन्नत वर्धमान जिनके प्रभामण्डल युक्त तेज से सहित है, ऐसे तीन कटिनी युक्त पीठ से अन्धकार को नष्ट करने वाला है; गिरती हुई पुष्पवृष्टि से निरन्तर किए गए मंगल उपहार से युक्त है; अनेक कोड़ाकोड़ी मधुर स्वर वाले वादित्रों के शब्द से त्रिभुवन रूपी भवन को बहरा करने वाला है, मरकतमणि से निर्मित स्कन्ध व उपस्कन्ध से सहित, पद्मरागमणिमय प्रवालांकुरों (पत्तों) से युक्त, नाना प्रकार के फलों से युक्त, भ्रमर कोयल व मधुकर के मधुर स्वरों से विराजित तथा जिनशासन के अशोक अर्थात् आत्मसुख के चिह्नस्वरूप अशोक वृक्ष से समस्त जीवों के शोक समूह को नष्ट करने वाला है; चन्द्रकिरणों के समान धवल, कुछ कम एक योजन विस्तार वाले, स्वच्छ धवल एवं स्थूल मोतियों की मालाओं के समूह से शोभायमान पर्यन्त भाग से संयुक्त तथा वर्धमान भगवान् के तीनों लोकों के अधिपतित्व के चिह्न रूप ऐसे गगनस्थित तीन छत्रों से सुशोभित है; पंचशैलपुर अर्थात् राजगृह नगर के नैऋत्य दिशा भाग में अत्यन्त विस्तृत विपुलाचल के मस्तक पर स्थित है; तथा जो देवों द्वारा रचे गए चार द्वारों से गंगा के प्रवाह के समान प्रवेश करने वाले देव, विद्याधर एवं मनुष्यजनों को मोहित करने वाला है, ऐसे समवसरण मण्डल में जिनेन्द्र देव के शरीर की किरणों रूप क्षीरसमुद्र में डुबी हुई समस्त देह से संयुक्त, यक्षेन्द्रों के हाथों के समूहों से ढोरे गए चामरों से आच्छादित आठ दिशाओं को विषय करने वाले दिव्य आमोद-सुगन्ध युक्त एवं देवों के श्रेष्ठ अनेक मणियों के समूह से रचे गए गन्धकुटी रूप प्रासाद में स्थित सिंहासन पर आरूढ़ वर्धमान भट्टारक ने तीर्थ उत्पन्न किया।
दूसरी वेदियाँ अपनी-अपनी पूर्व वेदिकाओं सदृश है। परन्तु विशेषता यह है कि इनका विस्तार दुगुणे प्रमाण है।।७९९।।
विस्तार दूना-दूना होता है (मूल में देखिए)
द्वितीय वेदियों का प्रमाण समाप्त हुआ।
इसके आगे पुन्नाग, नाग, कुब्जक, शतपत्र एवं अतिमुक्त इत्यादि से संयुक्त, क्रीडा पर्वतों से अतिशय शोभायमान और मणिमय सोपानों में मनोहर वापिकाओं व्ाâे विकसित कमल समूहों से सहित वल्ली क्षेत्र होते हैं। इनका विस्तार खातिका क्षेत्रों के विस्तार से दुगुणा रहता है।। ८००-८०१।।
इसके आगे दुसरा कोट है, जिसका वर्णन धूलिसालों के समान ही है। परन्तु इतना विशेष है कि इसका दुगुणा और द्वार रजतमय एवं यक्ष जाति के देवों द्वारा रक्षित हैं।। ८०२ ।।
।द्वितीय कोट का वर्णन समाप्त हुआ।
इसके आगे चौथी उपवन भूमि होती है, जिसमें पूर्वादिक दिशाओं के क्रम से अशोक वन, समपर्णवन, चम्पक वन और आम्रवन ये चार वन शोभायमान होते हैं।। ८०३।।
ये उपवन भूमियाँ विविध प्रकार के वन समूहों से मण्डित, विविध नदियों के पुलिन, और क्रीडा पर्वतों से तथा अनेक प्रकार की उत्तम वापिकाओं से रमणीय होती है।। ८०४।।
एक-एक उपवन भूमि में अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र, ये चार-चार सुन्दर वृक्ष होते हैं।। ८०५।।
चामर आदि से सहित चैत्य वृक्षों की ऊँचाई बारह से गुणित अपने-अपने तीर्थंकरों की ऊँचाई के सदृश होती है।।८०६।।
एक-एक चैत्य वृक्ष के आश्रित आठ महाप्रतिहायों से संयुक्त चार-चार मणिमय जिन प्रतिमाएँ होती है।।८०७।।
उपवन की वापिकाओं के जल से अभिपिक्त जनसमूह एक भव जाति को देखते हैं और उसके निरीक्षण मात्र के होने पर अर्थात् वापी ें जल में निरीक्षण करने पर सात अतीत व अनागत भव जातियों को देखते हैं।।८०८।।
एक-एक चैत्य वृक्ष के आश्रित तीन कोटो से वेष्टित व तीन पीठों के ऊपर चार-चार मान स्तम्भ होते हैं।।८०९।।
ये मानस्तम्भ कलम, उत्पल, और कुमुदों की सुगन्धि से युक्त तथा देव एवं मुनष्य युगलों के शरीर से निकली हुई केशर के पंकसे पीत जलवाली उत्तम वापियों सहित होते हैं।।८१०।।
वहां कहीं पर रमणीय भवन, कहीं उत्तम क्रीड़नशाला, और कहीं नृत्य करती हुई देवांगनाओं से आकीर्ण नाट्यशालाएँ होती हैं।।८११।।
बहुत भूमियों से (खण्डों से) भूषित तथा उत्तम और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित ये सब भवन पंक्ति क्रम से उपवन भूमियों में शोभायमान होते हैं।। ८१२।।
सब समवसरणों में इन हर्म्यादि को की ऊँचाई बारह से गुणित अपने-अपने तीर्थंकरों की ऊँचाई के बराबर होती है।। ८१३।।
अपनी-अपनी प्रथम पृथ्वी के विस्तार का जितना प्रमाण होता है, उससे दूना अपनी-अपनी उपवन भूमियों के विस्तार का प्रमाण होता है।। ८१४।।
चतुर्थ वनभूमि का कथन समाप्त हुआ।
सब वनों के आश्रित सब वीथियों के दोनों पार्श्व भागों में दो दो नाट्यशालाएँ होती हैं। इनमें से आदि की आठ नाट्यशालाओं में भवनवासिनी देव कन्याएँ और इससे आगे की आठ नाट्यशालाओं में कल्पवासिनी कन्याएँ नृत्य किया करती हैं। इन नाट्यशालाओं का सुन्दर वर्णन पूर्व के समान ही है।।८१५-८१६।।
नाट्यशालाओं का कथन समाप्त हुआ।
तीसरी वेदियाँ अपनी-अपनी दूसरी वेदियों के समान होती हैं। केवल विशेषता यह है कि यहाँ पर द्वार रक्षक यक्षेन्द्र हुआ करते हैं। ८१७।।
तृतीय वेदी समाप्त हुई।
इसके आगे ध्वज भूमि में दिव्य ध्वजाएँ होती हैं जो िंसह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र इन चिह्नों से चिह्नित दश प्रकार की होती हैं।। ८१८।।
चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में इन दश प्रकार की ध्वजाओं में से एक-एक एक सौ आठ रहती हैं और इनमें से भी प्रत्येक ध्वजा अपनी एक सौ आठ क्षुद्र ध्वजाओं से संयुक्त होती हैं।। ८१९।।