-अथ स्थापना-नरेन्द्र छंद-
समवसरण में छठी भूमि है, कल्पवृक्ष की सुंदर।
चारों दिश में एक-एक, सिद्धार्थ वृक्ष हैं मनहर।।
इनमें चारों दिश इक इक हैं, सिद्धों की प्रतिमायें।
हम पूजें आह्वानन करके, इच्छित फल पा जायें।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक-
चाल-नंदीश्वर पूजा
सीतानदि को जल स्वच्छ, कंचन भृंग भरूँ।
त्रयधारा देते चर्ण, भव भव तपन हरूँ।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरि चंदन गंध, प्रभु के चरण जजूँ।
पाऊँ निज अनुभव गंध, जिनवर शरण भजूँ।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अतिधवल अखंड, धोकर थाल भरूँ।
होवे मुझ ज्ञान अखंड, तुम ढिग पुंज धरूँ।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
वकुलादि सुगंधित पुष्प, लाऊँ चुन चुन के।
पाऊँ निज समरस सौख्य, प्रभु चरणों धरके।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:सिद्धार्थ-वृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू है मोतीचूर, अर्पूं तुम सन्मुख।
हो क्षुधा वेदनी दूर, पाऊँ स्वातम सुख।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक की ज्योति प्रजाल, आरति करते ही।
नशे मोह तिमिर का जाल, ज्योति प्रगटे ही।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंध सुगंधित धूप, अग्नी में खेऊँ।
उड़ जावे चहुँदिश धूम्र, तुम पद को सेवूँ।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर सेव बादाम, फल से यजन करूँ।
हो निजपद में विश्राम, भव भव भ्रमण हरूँ।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल से अर्घ बनाय, रत्न मिलाऊँ मैं।
सिद्धों के चरण चढ़ाय, गुणमणि पाऊँ मैं।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पवृक्षभूमिसंबंधिचतुश्चतु:-सिद्धार्थवृक्षमूलभागविराजमानचतुश्चतु:सिद्धप्रतिमाभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रयधारा प्रभु पद देत, हो जग में शांति।
जिनपूजा भवदधि सेतु, मिटती मन भ्रांति।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
जूही केतकी गुलाब, पुष्पांजलि करके।
पाऊँ निज गुण यशलाभ, चहुंगति दुख हरके।।
मैं पूजूँ भक्ति समेत, सिद्धों की प्रतिमा।
परमानन्दामृत हेतु, पाऊँ गुण गरिमा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं समवसरणसिद्धार्थवृक्षस्थितसर्वसिद्धप्रतिमाभ्यो नम:।
-दोहा-
कल्पवृक्ष िंचतामणी, जिनभक्तों के दास।
गाऊँ जिन गुणमालिका, पहुँचे जिनवर पास।।१।।
चाल-हे दीन बंंधु……….
धनि धन्य सिद्ध वृंद जो सिद्धालयों में हैं।
धनि धन्य सिद्ध बिंब जो सिद्धार्थ तरु में हैं।।
धनि धन्य तीर्थकृत समोसरण महान हैं।
धनि धन्य समोसरण स्वात्म गुणनिधान हैं।।२।।
जो कल्पतरु नाम की छट्टी धरा वहाँ।
हैं कल्पवृक्ष दशविधा चउदिश दिखे वहाँ।।
जन मांगते जो कुछ भी वे वृक्ष दे रहे।
सुरगण वहाँ पे आके क्रीड़ा में रत रहें।।३।।
पानांग वृक्ष बहुते विध पेय दे रहे।
तूर्यांग वाद्यवीणा मृदंग दे रहे।।
तरु भूषणांग बहुत से गहने दिया करें।
वस्त्रांग बहुत वस्त्र धोतियाँ दिया करें।।४।।
तरु भोजनांग विविध भोज्य वस्तु दे रहे।
तरु आलयांग महल कोठियाँ भी दे रहे।।
दीपांग दीप दे रहे सुंदर प्रकाशयुत।
तरु भाजनांग थाल आदि पात्र दें विविध।।५।।
मालांग वृक्ष सुरभि पुष्पमाल दे रहे।
तेजांग वृक्ष कोटि सूर्य ज्योति हर रहे।।
उस भूमि में कहीं पर ऊँचे भवन बनें।
कहिं बावड़ी जलों में फूले कुसुम घनें।।६।।
प्रत्येक दिश में इक-इक सिद्धार्थ वृक्ष हैं।
तरु मूल में चतुर्दिक् श्री सिद्धबिम्ब हैं।।
प्रत्येक बिम्ब आगे इक मानथंभ हैं।
ये तीन कोट सहिते त्रयपीठ उपरि हैं।।७।।
एकेक समवसृति में, सिद्धार्थ चार-चार।
एकेक तरु में सिद्धों के बिंब चार-चार।।
एकेक मानथंभों में बिंब चार-चार।
सिद्धों के बिंब सोलह, चौसठ सु जिनाकार।।८।।
चौबीस समवसृति में, तरु छ्यान्वे सिद्धार्थ।
वे तीन सौ चुरासी, तरु सिद्धबिंब सार्थ।।
इतने हि १मानथंभों, में बिंब चतुर्दिश।
वे बिंब सर्व इक हजार पाँच सौ छत्तिस।।९।।
सौ इंद्र भक्ति से वहाँ पे वंदना करें।
नर नारियाँ भि द्रव्य लेय अर्चना करें।।
सुर अप्सरायें नित्य वहाँ नृत्य कर रहीं।
सुर किन्नरी वीणा व बांसुरी बजा रहीं।।१०।।
चारोें गली में चार चार नाट्य२ शालिका।
बत्तीस रंगभूमियुक्त पांच खन युता।।
प्रत्येक में बत्तीस हि ज्योतिष्क देवियाँ।
वे नृत्य करें भक्ति भरीं, पुण्य देवियाँ।।११।।
इस भूमि के आगे चतुर्थ वेदिका बनी।
गोपुर पे देव भावन रक्षा करें घनी।।
प्रतिद्वार मंगलद्रव्य इक सौ आठ इक सौ आठ।
प्रत्येक तोरणद्वार पे नवनिधि के रहें ठाठ।।१२।।
बहुविध अनेक वर्णना कोई न कह सके।
धनपति वहाँ जिनके प्रभाव से हि रच सके।।
मैं सिद्धबिंब की सदैव वंदना करूँ।
तीर्थेश भक्ति से दुखों को रंच ना धरूँ।।१३।।
-दोहा-
तीन रत्न के हेतु मैं, नमूँ अनंतों बार।
ज्ञानमती की याचना, पूरो नाथ अबार।।१४।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितकल्पभूमिसंबंधिसर्वसिद्धार्थवृक्ष-मूलभागविराजमानसर्वसिद्धप्रतिमाभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
जो भव्य भक्ति से समवसरण के, सिद्धार्थवृक्ष को यजते हैं।
सिद्धों के प्रतिबिम्बों का अर्चन, करके सुख संपति लभते हैं।।
वे समवसरण दर्शन करके, सब ऋद्धि—सिद्धि पा जाते हैं।
फिर ‘ज्ञानमती’ वैâवल्य पाय, निश्चित सिद्धालय जाते हैं।।१।।