मंगलाचरण
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
तेषां सर्वाणि विंबानि, कुर्वन्तु मम मंगलम्।।१।।
तीर्थकृत्सन्निधौ भान्ति, नवस्तूपा: सुरैर्नुता:।
तत्रस्था जिनसिद्धार्चा:, ते ताश्च सन्तु मंगलम्।।२।।
-नरेन्द्र छंद-
समवसरण में सप्तमभूमि, भवनभूमि मुनि कहते।
उनमें भवन बने अति ऊँचे देव देवि वहँ रहते।।
चारों गलियों में नव-नव, स्तूप बने मणियों के।
उनमें रत्नमयी जिनप्रतिमा, वंदूँ श्रद्धा करके।।३।।
—दोहा—
समवसरण में सातवीं, भवनभूमि सुखकार।
वहाँ स्तूप जिनबिम्ब को, नमूँ होऊँ भव पार।।४।।
-नरेन्द्र छंद-
श्री वृषभदेव की पूर्व गली में, नव स्तूप बखाने।
उसमें जिन सिद्धों की प्रतिमा, भविजन के अघ हाने।।
नव पदार्थ की श्रद्धा करके सम्यक्रत्न धरूँ मैं।
नव केवल लब्धी हेतू ही, नित प्रति नमन करूँ मैं।।१।।
समवसरण की दक्षिण वीथी, नव स्तूप खड़े हैं।
उनमें जिन प्रतिमा को वंदत, धन जन सुयश बढ़े हैं।।नव.।।२।।
समवसरण में तृतिय गली में, नवस्तूप मनोहर।
गणधर मुनिगण जिनप्रतिमा को, वंदत सर्व तमोहर।।नव.।।३।।
भवनभूमि चौथी वीथी में नव स्तूप दिपे हैं।
वंदत ही दुख दारिद संकट, तन मन व्याधि खिपे१ हैं।।नव.।।४।।
अजितनाथ के समवसरण में, भवन भूमि सप्तम है।
प्रथम गली में सुर नर वंदित, नव स्तूप उत्तम हैं।।नव.५।।
समवसरण में द्वितिय गली में, नवस्तूप अति ऊँचे।
मुनिगण प्रदक्षिणा दे करके, वंदत निज में पहुँचे।।नव.।।६।।
नव स्तूप रत्नों से निर्मित, मणिमय जिन बिंबों युत।
मन वच तन से वंदन करते, भविजन बहु भक्ती युत।।नव.।।७।।
पद्मराग मणियों से निर्मित, नवस्तूप अति शोभे।
जिन प्रतिमा को वंदें भविजन, सुर किन्नर मन लोभें।।नव.।।८।।
संभवजिन के समवसरण में, भवनभूमि भवनों युत।
दर्शन करते प्रथम गली में, नव स्तूप बिंबों युत।।नव.।।९।।
समवसरण में भवन भूमि में, ऊँचे भवन बने हैं।
द्वितीय गली में नव स्तूप की, प्रतिमा भविक नमें हैं।।नव.।।१०।।
भवन भूमि के महलों में नित, सुर जिन न्हवन रचाते।
नृत्य करें बहु नव स्तूप की, जिन प्रतिमा गुण गाते।।नव.।।११।।
दो त्रय चार पांच खन महलों, में सुर खग रहते हैं।
जिनगुण गाते नवस्तूप की प्रतिमा को नमते हैं।।नव.।।१२।।
अभिनंदन प्रभु सवसरण में, भवन भूमि अतिसुन्दर।
वापी पर्वत बने मनोहर, नवस्तूप प्रतिमा धर।।नव.।।१३।।
भवन भूमि में उपवन सुंदर, बहुविध वृक्ष फले हैं।
द्वितिय भूमि में नवस्तूप में, जिनवर बिंब भले हैं।।नव.।।१४।।
समवसरण में नवस्तूप में, चित्र विचित्रित रचना।
अर्हत सिद्ध बिंब को नमते, भव भव दुख से बचना।।नव.।।१५।।
भवनभूमि में बावड़ियों में, सुंदर कमल खिले हैं।
नव स्तूप को नमते मुनि के, चित्त सरोज खिले हैं।।नव.।।१६।।
-पद्धड़ी छंद-
जिनसुमतिनाथ का समवसर्ण, उत१ भवनभूमि है विविध वर्ण।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।१७।।
जिन समवसरण में भवन भूमि, वंदन से मिलती मोक्ष भूमि।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।१८।।
जिन भवन भूमि है सौख्यकार, मुनिगण वहाँ करते नित विहार।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।१९।।
जिनसमवसरण में भवन पंक्ति, जहं रमती हैं सुर मनुज पंक्ति।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२०।।
जिनपद्मप्रभू का समवसर्ण, सब भव्यों ने ली वहाँ शर्ण।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२१।।
जो जिन पूजें तज सकल आधि, वो पा लेते अंतिम समाधि।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२२।।
जो समवसरण दर्शन करंत, वो भव्य भवोदधि को तरंत।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२३।।
जिन समवसरण में महलतुंग, सब जन का करते मानभंग।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२४।।
जिनवर सुपार्श्व का समवसर्ण, उसमें रचना है विविध वर्ण।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२५।।
जो समवसरण से करे प्रेम, उनके हर क्षण ही सकल क्षेम।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२६।।
जिन समवसरण में सभी जंतु, सब वैर भाव तज बने बंधु।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२७।।
जिन समवसरण में साधु वृंद, ले स्वात्म सुधारस का अनंद।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२८।।
जिन चंद्रनाथ से जग सनाथ, गणधर नित नमते नमां माथ।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।२९।।
जिन समवसरण में भवन भूमि, वंदन से मिलती सिद्धभूमि।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।३०।।
चंदप्रभु हरते जगत ताप, उन नाम मंत्र सब हरे पाप।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।३१।।
वंदन से होते कर्मक्षार, जिनसमवसरण अतिशय अपार।
स्तूप नवों हैं गगनचुंब, मैं नित वंदूँ जिन सिद्ध बिंब।।३२।।
-चौपाई-
पुष्पदंत त्रिभुवन भगवंत, समवसरण उन अतिशयवंत।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कर्म कटुनिंब।।३३।।
जिनवर समवसरण सुखसार, भविजन को शिवसुख दातार।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कर्म कटुनिंब।।३४।।
स्पर्श गंध रस वर्ण विहीन, श्री जिननाथ विविध गुणलीन।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कर्म कटुनिंब।।३५।।
निज आतम परमात्म समान, जिनवर भक्ति करे भगवान।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।३६।।
शीतल समवसरण अभिराम, तुम पद भक्त लहे निजधाम।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।३७।।
श्री शीतल जग शीतल करें, साम्य सुधारस वषा& करें।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।३८।।
चिन्मय चिंतामणि भगवान, भक्त लहे इच्छित वरदान।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।३९।।
लोकालोक प्रकाशी ज्ञान, ज्ञान मेरा वैâवल्य समान।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४०।।
समवसरण में रहें जिनेश, श्री श्रेयांस जगत् परमेश।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४१।।
गणधर जिनगुण में लवलीन, आत्म सुधारस पिये प्रवीण।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४२।।
जिनवर की दिव्यध्वनि खिरे, परमानंद सुख झरना झरे।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४३।।
जिन श्रेयांस त्रिभुवन के नाथ, द्वादश गण को करें सनाथ।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४४।।
वासुपूज्य वासवगण१ पूज्य, भक्त बने भी क्षण में पूज्य।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४५।।
समवसरण जिनगुणमणिराशि, पूजत पावें निज गुणराशि।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४६।।
जिनवर भवन भूमि फलदायि, वंदत पुण्य बंधे अतिशायि।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४७।।
वासुपूज्य को पूजें भव्य, निजसमरस सुख पावें नव्य।
नव स्तूप में जिनवर बिंब, वंदत कटें कम& कटुनिंब।।४८।।
-स्रग्विणी छंद-
श्री विमलनाथ जी के समोसण& में,
सातवीं भूमि नित सौख्य देवे हमें।
स्तूप के बिंब को वंदते शोक ना,
इष्ट वीयोग आनिष्ट संयोग ना।।४९।।
जो समोसण& में वंदते नाथ को।
प्राप्त हों स्वात्म की सौख्य संपत्ति को।।स्तूप.।।५०।।
जो क्षमाभाव से क्रोध को वारते।
स्वात्म पीयूष आनंद वो पावते।।स्तूप.।।५१।।
जो मृदूभाव से मान को मारते।
इन्द्र से भी सदा मान वो पावते।।स्तूप.।।५२।।
जो अनंतेश की दिव्यध्वनि को सुनें।
वे स्वयं शुद्ध निज तत्त्व को ही गुने।।स्तूप.।।५३।।
जो सदा भक्ति से नाथ गुण गावते।
इन्द्र भी प्रीति से उन सुयश गावते।।स्तूप.।।५४।।
जो करें नृत्य संगीत भक्ती भरे।
इन्द्र उनके निकट नृत्य तांडव करें।।स्तूप.।।५५।।
जो प्रभू पास में आ चमर ढोरते।
इन्द्र भी उनके ऊपर चमर ढोरते।।स्तूप.।।५६।।
धम&तीथे&श वीहार करते भले।
धम& का चक्र उन आगे आगे चले।।स्तूप.।।५७।।
जो तुम्हारे उपरि छत्र को धारते।
इन्द्र भी उसके ऊपर छतर लावते।।स्तूप.।।५८।।
जो करें नित्य अभिषेक जिनबिंब का।
इन्द्र करते न्हवन मेरु पे उन्हीं का।।स्तूप.।।५९।।
स्तूप के बिंब की जो करें अच&ना।
आधि व्याधी कभी भी उन्हें रंच ना।।स्तूप.।।६०।।
शांति तीथे&श चक्रीश कामेश हैं।
शांति के हेतु हम नाथ को नमत हैं।।स्तूप.।।६१।।
नाथ शांतीश का जो समोसण& है।
वो भवांभोधि तारण तरण एक है।।स्तूप.।।६२।।
स्तूप पे छत्र फिरते चंवर ढुर रहें।
तोरणों पुष्प हारों से शोभित रहें।।
स्तूप के बिंब को वंदते शोक ना,
इष्ट वीयोग आनिष्ट संयोग ना।।६३।।
स्तूप के बिंब को नित्य मुनि वंदते।
जो नमें वे महामोह को खंडते।।स्तूप.।।६४।।
-चामर छंद-
कुंथुनाथ का समोसरण महान् विश्व में।
सातवीं मकान पंक्ति भूमि सौख्य दे हमें।।
स्तूप के अहं&त सिद्धबिंब को सदा नमूँ।
ज्ञान दश& सौख्य वीय& स्वात्म संपदा भजूूं।।६५।।
नाथ भक्ति कम& पंक धोवने समथ& है।
स्थान सप्त परम को प्रदान हेतु दक्ष है।।स्तूप.।।६६।।
नित्य वंदना करें जिनेश की शतेन्द्र भी।
आप भक्ति से पशू व नारकी न हों कभी।।स्तूप.।।६७।।
एक नाथ भक्ति सव& पाप नाश हेतु है।
घोर भव समुद्र पार हेतु एक सेतु है।।स्तूप.।।६८।।
नाथ अर जिनेश का समोसरण अपूव& है।
आप भक्ति भाव से रचे उसे कुबेर हैं।।स्तूप.।।६९।।
आप पादपद्म का शरण लिया मुनीश ने।
आत्म सौख्य प्राप्ति हेतु बार बार ही नमें।।स्तूप.।।७०।।
द्रव्य कम& से विहीन आत्मा स्वतंत्र है।
नाथ भक्ति के प्रताप आत्मा पवित्र है।।स्तूप.।।७१।।
सव&कम& से छुड़ाय मोक्ष में पठावते।
ध्यान आपका धरें निजात्म धाम पावते।।स्तूप.।।७२।।
मल्लिनाथ का समोसरण त्रिलोक ख्यात है।
नाथ के अनंत गुण उन्हीं में आत्मसात् हैं।।स्तूप.।।७३।।
आप नाम मात्र िंचतिताथ& वस्तु दे सके।
आप ध्यान से हि जन्म की परंपरा मिटे।।स्तूप.।।७४।।
काम मल्ल मोहमल्ल मृत्युमल्ल हैं बड़े।
आपका प्रभाव देख आप के चरण पड़ें।।स्तूप.।।७५।।
स्तूप आप देह से ही बारहे गुणे कहे।
पद्मराग से बने मुनींद्र वंद्य हो रहे।।स्तूप.।।७६।।
नाथ मुनिसुव्रतेश का समोसरण दिपे।
नौ निधी वहाँ प्रतेक द्वार पे सदा दिखें।।स्तूप.।।७७।।
साधु भी महाव्रतादि ले पवित्र हो रहे।
आत्म तत्त्व शुद्ध ध्याय कम& पंक धो रहे।।स्तूप.।।७८।।
नाथ पाद वंदना अनंत पाप खंडती।
स्वग& सौख्य देय गुण अनंत पे भि मंडती।।स्तूप.।।७९।।
जो सदा चित्त में आप को धारते।
वे महात्मा पुरुष सव& को तारते।।स्तूप.।।८०।।
-सोरठा-
नमिजिन त्रिभुवन वंद्य, समवसरण में राजते।
नवस्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८१।।
निजको निज में ध्याय, मुक्तिरमा को वश किया।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८२।।
करे मोह का खंड, जिन प्रतिमा जिन सारखी।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८३।।
निजानंद रसमग्न, फिर भी तिहुं जग देखते।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८४।।
नेमिनाथ जग वंद्य, समवसरण महिमा प्रगट।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८५।।
महिमा आप अचिन्त्य, गणधर भी नहिं कह सके।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८६।।
तुम दर्शन से रम्य, सुख संपति नवनिधि मिले।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८७।।
परमानंद निमग्न, परम ज्योति को धारते।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८८।।
पार्श्वनाथ भगवंत, समवसरण त्रिभुवन शरण।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।८९।।
रोग शोक दुख द्वंद, तुम भक्ती से दूर हों।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।९०।।
वैर कलह जगनिंद्य, दूर भगे तुम भक्ति से।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।९१।।
कलियुग कष्ट अनंत, नश जाते तुम नाम से।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।९२।।
महावीर भगवंत, कल्पवृक्ष दाता तुम्हीं।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।९३।।
भविजन वहां असंख्य, समवसरण में बैठते।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।९४।।
सिद्धारथ के नंद, त्रिभुवन जन के हो पिता।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।९५।।
समवसरण जग वंद्य, भवन भूमि से शोभता।
नव स्तूप सुर वंद्य, जिनप्रतिमा वंदूँ सदा।।९६।।
-शंभु छंद-
प्रत्येक गली के नव नव ये, चारों के सब छत्तीस हुये।
चौबीस समवसृति के स्तूप, ये आठ शतक चौसष्ठ हुये।।
शिर छत्र फिरें अरु चंवर ढुरें, वंदनवारों से शोभ रहें।
हम वंदें जिन प्रतिमाओं को, सज्ज्ञानमती हो कर्म दहें।।९७।।
-शंभु छंद-
जय जय जिनवर के समवसरण, जय सप्तम भवन भूमि प्यारी।
जय जय स्तूप जिन सिद्धबिंब, जय जय इनकी महिमा न्यारी।।
जय जय स्तूप पर छत्र फिरें, बहुवर्णध्वजायें फहरातीं।
जय मंगल द्रव्य वहां रक्खें, रत्नों की रचना मनभाती।।९८।।
इन भवन भूमियों में ऊँचे, बहु महल बने सुर युगलों के।
संगीत नृत्य से देव वहां, अभिषेक करें जिनबिंबों के।।
कहिं स्वर्ण हिंडोले में बैठीं, देवी सब झूला झूल रहीं।
कहिं खिले कमल से हंसों से, वापी सब जन मन मोह रहीं।।९९।।
प्रत्येक गली के मध्य बने, स्तूप विविध रत्नों के हैं।
उनके मधि मकराकार धरें, सौ-सौ तोरण रत्नों के हैं।।
ये अपने अपने जिनवर से, बारह गुणिते ऊँचे माने।
इनमें जिनबिंब बने मणिमय, उनकी भक्ती भवदुख हाने।।१००।।
वहं छत्र चंवर भृंगार कलश, पंखा ठोना ध्वज दर्पण हैं।
ये मंगल द्रव्य आठ मानें, प्रत्येक एक सौ आठ रहें।।
इन स्तूपों के आसपास, मुनियों के सभाभवन दिखते।
जो वंदे इन सब मुनियों को, उनके सब पाप अरी भगते।।१०१।।
जहाँ प्रभु का समवसरण रहता, षट्ऋतु के फल फल जाते हैं।
सब ऋतु के फूल खिले सुंदर, दश दिश को भी महकाते हैं।।
सब जात विरोधी क्रूर पशू, आपस में मिलकर रहते हैं।
सुर मनुज पुराने वैर छोड़ आपस में प्रीति करते हैं।।१०२।।
यह समवसरण का ही प्रभाव, वहाँ जाते भव्य कहाते हैं।
मिथ्यात्व हलाहल विष उगलें, सम्यक्त्व निधी पा जाते हैं।।
निज में ही निज को पाकरके, निजआत्मा को ही ध्याते हैं।
फिर ‘ज्ञानमती’ पूरी करके, क्रम से शिवपद पा जाते हैं।।१०३।।
-दोहा-
धन्य धन्य जिनराज तुम, धन्य धन्य तुम भक्त।
धन्य तुम्हारी वंदना, धन्य धन्य यह वक्त।।१०४।।
-दोहा-
श्री ऋषभदेव से वीर तक, तीर्थंकर भगवान।
सवमसरण को नित नमूं कोटि, नमूं शुभ ध्यान।।१।।
मूलसंघ में कुंदकुंद—अन्वय सरस्वति गच्छ।
बलात्कारगण में हुए, सूरि नमूँ मन स्वच्छ।।२।।
सदी बीसवीं के प्रथम गुरु महान आचार्य।
चरित चक्रवर्ती श्री—शांतिसागराचार्य।।३।।
इनके पहले शिष्य श्री—वीरसागराचार्य।
प्रथमहि पट्टाचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।४।।
यहां रत्नत्रयनिलय में, जिनवर चरण समीप।
जिनवर गुरुवर सरस्वती, इन चरणों में प्रीत।।५।।
समवसरणस्तूप का यह स्तोत्र सुखकार।
पूर्ण किया जिन भक्ति वश, कटो भव्य रुचि धार।।६।।
जब तक नहिं हो ‘ज्ञानमती’, केवल एक महान्।
तब तक जग में स्थायि हो, स्तूप स्तोत्र महान्।।७।।
हस्तिनागपुर तीर्थ पर, जब तक तेरहद्वीप।
तब तक स्तूप स्तोत्र यह, बने सिद्धिपथ दीप।।८।।
।।इति समवसरणस्तूपस्तोत्रं संपूर्णम् ।।
।।जैनं जयतु शासनम्।।