(गणिनी ज्ञानमती कृत)
दोहा-
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, गुण अनंत की खान।
समवसरण वैभव सकल, वह लवमात्र समान।।१।।
—शंभुछंद—
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्म चक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंतदर्शन सुज्ञान, सुखवीर्य चतुष्टय भर्त्ता हो।।
जय जय अनंत गुण के धारी, प्रभु तुम उपदेश सभा न्यारी।
सुरपति की आज्ञा से धनपति, रचता है त्रिभुवन मनहारी।।२।।
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इंद्र नीलमणि रचित गोल, आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब बीस हजार बनी।
नर बाल वृद्ध लूले लंगड़े, चढ़ जाते सब अतिशायि घनी।।३।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तंभ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते१, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।४।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा, उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थक नाम धरें दर्शन से, मानी मान गलित करते।।
इस समवसरण में चार कोट, अरु पाँच वेदिकायें ऊँची।
इनके अंतर में आठ भूमि, फिर प्रभू की गंधकुटी ऊँची।५।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में, है भूमि चैत्य प्रासाद प्रथम।
एकेक जैन मंंदिर अंतर से, पाँच पाँच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ, दो दोय नाट्यशालायें हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं, सुर भवनवासि कन्यायें हैं।।६।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची, गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधी, ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर से, भरी दूसरी भूमी है।
फूले कुवलय कमलों से युत, हंसों के कलरव की ध्वनि है।।७।।
फिर दूजी वेदी के आगे, तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले, जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों, युत में प्रवेश करती जनता।।८।।
आगे उद्यान भूमि चौथी, चारों दिश बने बगीचें हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तपर्ण, चंपक अरु आम्र तरु के हैं।।
प्रत्येक दिशा मे ंएक एक, तरु चैत्य वृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिन प्रतिमा प्रातिहार्ययुत, चार चार मणिमय दीखें।।९।।
इसके आगे वेदी सुन्दर, फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा, गोपुर द्वारों से युत शोभे।।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी, दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों, हैं सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।१०।।
चौथी वेदी के बाद भवन, भूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा, मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी, बारह कोठों से जनमनहर।।११।।
फिर पंचम वेदी के आगे, त्रय कटनी सुन्दर दिखती हैं।
पहली कटनी पर यक्ष शीश, पर धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज, नवनिधि मंगल द्रव्य धरें।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर, जिनवर दर्शन पाप हरें।।१२।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर, चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जयजय जिनवर की दिव्यध्वनी, सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो वंदे ध्यावें गुण गावें, वे ज्ञानमती वैâवल्य करें।।१३।।
—दोहा—
चतुर्मुखी ब्रह्मा तुम्हीं, ज्ञान व्याप्त जग विष्णु।
देवों के भी देव हो, महादेव अरि जिष्णु।।१४।।
—शंभुछंद—
तीर्थंकर समवसरण त्रिभुवन, में सर्वोत्तम अतिशायी है।
यतिवृषभाचार्य आदि वर्णित, गणधर वंदित सुखदायी है।।
इसको पढ़ते वंदन करते, प्रभु समवसरण वंदन होगा।
सीमंधर प्रभु के समवसरण का, निश्चित ही दर्शन होगा।।१।।
श्री मूलसंघ में कुंदकुंद, आम्नाय सरस्वति गच्छ कहा।
विख्यात बलात्कारगण से, गुरु आम्नायों में मुख्य रहा।
इस परम्परा के आचार्यों का, मैं नित वंदन करती हूँ।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि, श्री शांतिसिंधु को नमती हूँ।।२।।
उन पट्टाचार्य सुशिष्य प्रथम, श्री वीरसागराचार्य हुए।
गुरुवर्य आर्यिका दीक्षा दे, मुझ ज्ञानमती को धन्य किये।।
वीराब्द पच्चीस सौ उनतालिस१, वर पौष शुक्ल दशमी तिथि में।
यह ग्रंथ ‘समवसरण रचना’, इसको संकलित किया मैंने।।३।।
पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों से, अमृतमय वचन ग्रहण करके।
संकलित किया ग्रंथ मैंने, अतिशय आल्हादित हो करके।
सब भव्यों को ज्ञानामृत का, आनंद मिले भावना यही।
जब तक भूपर जिनशासन है, यह ग्रन्थ सुशोभित करे मही।।४।।
-दोहा-
गणिनी ज्ञानमती ग्रथित, ग्रन्थ रहे चिरकाल।
जिनगुणसंपति देय कर, कर दे मालामाल।।५।।