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अयोध्या
समवसरण पूजा
July 24, 2020
पूजायें
jambudweep
समवसरण पूजा
अथ स्थापना—गीता छंद
तीर्थंकरों की सभाभूमी, धनपती रचना करें।
है समवसरण सुनाम उसका, वह अतुल वैभव धरे।।
जो घातिया को घातते, कैवल्यज्ञान विकासते।
वे इस सभा के मध्य अधर, सुगंधकुटि पर राजते।।१।।
—दोहा—
अनंत चतुष्टय के धनी, तीर्थंकर चौबीस।
आह्वानन कर मैं जजूूँ, नमूँ-नमूँ नत शीश।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं वृषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं वृषभादिवर्धमानान्तचतुर्विंशतितीर्थंकरसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
चाल-नंदीश्वर पूजा
जिनवचसम शीतल नीर, कंचन भृंग भरूँ।
मैं पाऊँ भवदधि तीर, जिन पद धार करूँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।१।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: जन्मजरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन तनु सम सुरभित गंध, कंचन पात्र भरूँ।
मैं चर्चूं जिनपद पद्म, भव संताप हरूँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।२।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ध्वनि सम अमल अखंड, तंदुल थाल भरूँ।
मैं पुंज धरूँ जिन अग्र, सौख्य अखंड भरूँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।३।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन यश सम सुरभित पुष्प, चुन चुन कर लाऊँ।
जिन आगे पुष्प समप्र्य, निजके गुण पाऊँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।४।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन वच अमृत के पिंड, सदृश चरु लाऊँ।
जिनवर के निकट चढ़ाय, समरस सुख पाऊँँ।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।५।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन तनु की कांति समान, दीपक ज्योति धरे।
मैं करूँ आरती नाथ, मम सब आर्त हरे।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।६।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन यश सम सुरभित धूप, खेऊँ अग्नी में।
हों अशुभ कर्म सब भस्म, पाऊँ निज सुख मैं।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।७।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनवच सम मधुर रसाल, श्रीफल फल बहुते।
जिन निकट चढ़ाऊँ आज, अतिशय भक्तियुते।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।८।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन आदि मिलाय, अर्घ बनाय लिया।
निज पद अनर्घ के हेतु, आप चढ़ाय दिया।।
जिन समवसरण की भूमि, अतिशय विभव धरे।
जो पूजें जिनपदपद्म, वे निज विभव भरें।।९।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्य: अनघ्र्यपद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
शांतीधारा मैं करूँ, जिनवर पद अरविंद।
आत्यंतिक शांती मिले, प्रगटे सौख्य अनिंद।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
लाल श्वेत पीतादि बहु, सुरभित पुष्प गुलाब।
पुष्पांजलि से पूजते, हो निजात्म सुख लाभ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं समवसरणस्थित चतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नम:।
जयमाला
दोहा
चिन्मय चिंतामणि प्रभो, गुण अनंत की खान।
समवसरण वैभव सकल, वह लवमात्र समान।।१।।
शंभुछंद
जय जय तीर्थंकर क्षेमंकर, तुम धर्मचक्र के कर्ता हो।
जय जय अनंतदर्शन सुज्ञान, सुखवीर्य चतुष्टय भत्र्ता हो।।
जय जय अनंत गुण के धारी, प्रभु तुम उपदेश सभा न्यारी।
सुरपति की आज्ञा से धनपति, रचता है त्रिभुवन मनहारी।।२।।
प्रभु समवसरण गगनांगण में, बस अधर बना महिमाशाली।
यह इंद्र नीलमणि रचित गोल, आकार बना गुणमणिमाली।।
सीढ़ी इक एक हाथ ऊँची, चौड़ी सब बीस हजार बनी।
नर बाल वृद्ध लूले लंगड़े, चढ़ जाते सब अतिशायि घनी।।३।।
पहला परकोटा धूलिसाल, बहुवर्ण रत्न निर्मित सुंदर।
कहिं पद्मराग कहिं मरकतमणि, कहिं इन्द्रनीलमणि से मनहर।।
इसके अभ्यंतर चारों दिश, हैं मानस्तंभ बने ऊँचे।
ये बारह योजन से दिखते, जिनवर से द्विदश गुणे ऊँचे।।४।।
इनमें चारों दिश जिनप्रतिमा, उनको सुरपति नरपति यजते।
ये सार्थक नाम धरें दर्शन से, मानो मान गलित करते।।
इस समवसरण में चार कोट, अरु पाँच वेदिकाएँ ऊँची।
इनके अंतर में आठ भूमि, फिर प्रभु की गंधकुटी ऊँची।।५।।
इस धूलिसाल अभ्यंतर में है, भूमि चैत्य प्रासाद प्रथम।
एकेक जैन मंंदिर अंतर से, पाँच पाँच प्रासाद सुगम।।
चारों गलियों में उभय तरफ, दो दोय नाट्यशालाएँ हैं।
अभिनय करतीं जिनगुण गातीं, सुर भवनवासि कन्याएं हैं।।६।।
फिर वेदी वेढ़ रही ऊँची, गोपुर द्वारों से युक्त वहाँ।
द्वारों पर मंगलद्रव्य निधी, ध्वज तोरण घंटा ध्वनी महा।।
फिर आगे खाई स्वच्छ नीर से, भरी दूसरी भूमी है।
फले कुवलय कमलों से युत, हंसों के कलरव की ध्वनि है।।७।।
फिर दूजी वेदी के आगे, तीजी है लताभूमि सुन्दर।
बहुरंग बिरंगे पुष्प खिले, जो पुष्पवृष्टि करते मनहर।।
फिर दूजा कोट बना स्वर्णिम, गोपुर द्वारों से मन हरता।
नवनिधि मंगल घट धूप घटों युत, में प्रवेश करती जनता।।८।।
आगे उद्यान भूमि चौथी, चारों दिश बने बगीचे हैं।
क्रम से अशोक वन सप्तपर्ण, चंपक अरु आम्र तरू के हैं।।
प्रत्येक दिशा में एक-एक, तरु चैत्य वृक्ष अतिशय ऊँचे।
इनमें जिनप्रतिमा प्रातिहार्ययुत, चार-चार मणिमय दीखें।।९।।
इसके आगे वेदी सुन्दर, फिर ध्वजाभूमि ध्वज से शोभे।
फिर रजतवर्णमय परकोटा, गोपुर द्वारों से युत शोभे।
फिर कल्पवृक्ष भूमी छट्ठी, दशविध के कल्पवृक्ष इसमें।
प्रतिदिश सिद्धार्थ वृक्ष चारों हैं, सिद्धों की प्रतिमा उनमें।।१०।।
चौथी वेदी के बाद भवन-भूमी सप्तमि के उभय तरफ।
नव नव स्तूप रत्न निर्मित, उनमें जिनवर प्रतिमा सुखप्रद।।
परकोटा स्फटिकमयी चौथा, मरकत मणि गोपुर से सुन्दर।
उस आगे श्रीमंडप भूमी, बारह कोठों से जनमनहर।।११।।
फिर पंचम वेदी के आगे, त्रय कटनी सुन्दर दिखती हैं।
पहली कटनी पर यक्ष शीश पर, धर्मचक्र चारों दिश हैं।।
दूजी कटनी पर आठ महाध्वज, नवविधि मंगल द्रव्य धरे।
तीजी कटनी पर गंधकुटी पर, जिनवर दर्शन पाप हरें।।१२।।
जय जय जिनवर सिंहासन पर, चतुरंगुल अधर विराज रहे।
जय जय जिनवर की दिव्यध्वनी, सुनकर सब भविजन तृप्त भये।।
सब जातविरोधी प्राणीगण, आपस में मैत्री भाव धरें।
जो पूजें ध्यावें गुण गावें, वे ‘ज्ञानमती कैवल्य’ करें।।१३।।
दोहा
चतुर्मुखी ब्रह्मा तुम्हीं, ज्ञान व्याप्त जग विष्णु।
देवों के भी देव हो, महादेव अरि जिष्णु।।१४।।
ॐ ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
गीता छंद
जो समवसरण यजें सदा, उत्कृष्ट भव्य श्रद्धा भाव से।
तीर्थंकरोें की बाह्य लक्ष्मी, पूजते अति चाव से।।
फिर अंतरंग अनन्त लक्ष्मी, को जजें गुण प्रीति से।
निज ‘ज्ञानमती’ कैवल्य कर, वे मोक्षलक्ष्मी सुख भजें।।
।। इत्याशीर्वाद:।।
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