प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
दोहा
समवसरण का स्वरूप
समवसरण के स्वामी
मानस्तंभ का महत्व
चैत्यप्रासाद भूमि
खातिका भूमि
लताभूमि
उपवन भूमि
ध्वजा भूमि
कल्पभूमि
भवनभूमि
श्रीमण्डपभूमि
बारह सभा वर्णन
गंधकुटी की महिमा
तीर्थंकर महिमा
ॐकाररूप दिव्यध्वनि
गणधर की महिमा
प्रमुख श्रोता का पुण्य
समवसरण का प्रभाव
समवसरण दर्शन का महत्व
इस कलियुग में समवसरण साक्षात् नहीं बनते।
चूँकि यहाँ पर तीर्थंकर अब जन्म नहीं धरते।।
फिर भी ये जिनमंदिर भी हैं समवसरण माने।
कालचतुर्थ सदृश इनके दर्शन से भव हानें।।२०।।
समवसरण श्रीविहार की महिमा
ऐसा ही इक समवसरण इस धरती पर आया।
ऋषभदेव के उपदेशों को उसने फैलाया।।
गणिनी माता ज्ञानमती की सूझबूझ जानो।
कलियुग में भी सतयुग का दर्शन पाया मानो।।२१।।
उपसंहार
हे प्रभु! वर दो मुझको सच्चा समवसरण पाऊँ।
समवसरण के स्वामी तीर्थंकर का पद पाऊँ।।
जब तक वह पद मिले नहीं सम्यक्त्व नहीं छूटे।
उसके बाद ‘‘चंदनामति’’ चाहे सब कुछ छूटे।।१।।
दोहा
वीर संवत् पच्चीस सौ, चौबिस की कृति जान।
दुतिया कृष्ण आषाढ़ में, किया प्रभू गणगान।।१।।
समवसरण की भक्ति यह, पूर्ण करे सब आश।
यही चन्दनामति हृदय, में है शुभ अभिलाष।।२।।