माँ श्री चंदाबाईजी का जन्म १८९० में वृंदावन में हुआ था । बारह वर्ष की आयु में आपका विवाह आरानगर के संभ्रान्त प्रसिद्ध जमींदार जैन धर्मानुयायी धर्मकुमारजी के साथ हुआ । विवाह के कुछ समय बाद बाबू धर्मकुमारजी की मृत्यु हो गई । १३ वर्ष में ही वैधव्य दशा आपकी चिरसंगिनी बनी।
आपके जेठ देव प्रतिमा स्वनामधन्य बाबू देवकुमारजी ने अपनी अनुज वधू को विदुषी, समाजसेविका और साहित्यकार बनाने में कोई कमी नहीं रखी। आपने घोर परिश्रम कर संस्कृत व्याकरण, न्याय, साहित्य, जैनागम एवं प्राकृत भाषा में अगाध पांडित्य प्राप्त किया और राजकीय संस्कृत विद्यालय काशी की पंडिता परीक्षा उत्तीर्ण की, जो वर्तमान में शास्त्री शिक्षा के समकक्ष है।
आपने सन् १९०९ में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला परिषद् की स्थापना कर नारी जागरण का मंत्र फूँका तथा नारी के सर्वांगीण विकास के लिए ब्र. श्री देवकुमारजी द्वारा आरा नगर में एक कन्या पाठशाला की स्थापना कराई और स्वयं उसकी संचालिका बन नारी शिक्षा का बीज बोया ।
आपने १९९९ में नारी शिक्षा के प्रसार के निमित्त श्री जैन बाला विश्राम नाम की शिक्षा संस्था स्थापित की। इस संस्था में लौकिक एवं नैतिक शिक्षा का पूरा प्रबंध किया। विद्यालय के साथ छात्रावास की भी व्यवस्था की गई। इस संस्था में अपना तन-मनधन सब कुछ दिया था। आप `तपस्या छात्राओं को स्वत: आदर्श बनने की प्रेरणा देती थी ।
माँश्री की सेवा, त्याग और लगन का मूल्य नहीं आंका जा सकता। इस संस्था में भारत के कोने-कोने से आकर बालायें शिक्षा प्राप्त करती हैं।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, जयप्रकाश नारायण, संत विनोबा भावे एवं काका कालेलकर आदि मनीषियों ने भी इस संस्था की महत्ता को स्वीकार किया है।
आपकी लगभग १५ रचनायें प्रकाशित हुई। सन् १९३५ से जैन महिलादर्श नामक हिन्दी मासिक पत्रिका का सम्पादन भी करती रहीं। राजगृह, पावापुरी, आरा आदि स्थानों में विपुल धनराशि व्यय कर नयनाभिराम जैन मंदिरों का निर्माण कराया। वृंदावन में भी एक जिनालय आपके द्वारा निर्मित है। आपके द्वारा मूर्तियों का निर्माण एवं उनकी प्रतिष्ठाएँ भी करवायी गई।
चंदाबाईजी ने आर्यिका विजयमती माता जी के सान्निध्य में २८ जुलाई, १९७७ में आर्यिका चन्द्रमती बनकर सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण कर अपनी आत्मा का उत्थान किया।