जीव मरे या जीये, अयतनाचारी को हिंसा का दोष अवश्य लगता है। किन्तु जो समितियों में प्रयत्नशील है, उससे बाह्य हिंसा हो जाने पर भी उसे कर्मबंध नहीं होता। प्रासुकमार्गेण दिवा, युगान्तरप्रेक्षिणा सकार्येण। जन्तून् परिहरता, ईर्यासमिति: भवेद् गमनम्।।
कार्यवश दिन में प्रासुक मार्ग से (जिस मार्ग पर पहले से आवागमन शुरू हो चुका हो), चार हाथ भूमि को आगे देखते हुए जीवों की विराधना बचाते हुए, गमन करना ईर्या समिति है। तथैवुच्चावचा: प्राणिन:, भक्तार्थं समागता:। तदृजुकं न गच्छेत् , यतमेव पराक्रामेत्।।
गमन करते हुए इस बात की भी पूरी सावधानी रखनी चाहिए कि नाना प्रकार के जीव—जन्तु, पशु—पक्षी आदि इधर—उधर से चारे—दाने के लिए मार्ग में इकट्ठा हो गए हों तो उसके सामने भी नहीं जाना चाहिए ताकि वे भयग्रस्त न हों। न लपेत् पृष्ठं सावद्यं, न निरर्थं न मर्मगम्। आत्मार्थं परार्थं वा, उभयस्यान्तरेण वा।।
(भाषा—समिति—परायण साधु) किसी के पूछने पर भी अपने लिए, अन्य के लिए अथवा दोनों के लिए न तो सावद्य अर्थात् पाप वचन बोले, न निरर्थक वचन बोले, और न मर्मभेदी वचन का प्रयोग करे। तथैव परुषा, भाषा गुरुभूतोपघातिनी। सत्यापि सा न वक्तव्या, यतो पापस्य आगम:।।
तथा कठोर और प्राणियों का उपघात करने वाली, चोट पहुँचाने वाली भाषा भी न बोले। ऐसा सत्य—वचन भी न बोले जिससे पाप का बंध होता हो। दृष्टां मिताम् असन्दिग्धां, प्रतिपूर्णां व्यक्ताम्। अजल्पशीलां अनुद्विग्नां, भाषां निसृज आत्मवान्।।
आत्मवान् मुनि ऐसी भाषा बोले जो आँखो देखी बात को कहती हो, मित (संक्षिप्त) हो, संदेहास्पद न हो, स्वर—व्यंजन आदि से पूर्ण हो, व्यक्त हो, बोलने पर भी न बोली गई जैसी अर्थात् सहज हो और उद्वेगरहित हो।