-शंभु छन्द-
गिरिवर सम्मेदशिखर पावन, श्रीसिद्धक्षेत्र मुनिगण वंदित।
सब तीर्थंकर इस ही गिरि से, होते हैं मुक्तिवधू अधिपति।।
मुनिगण असंख्य इस पर्वत से, निर्वाण धाम को प्राप्त हुए।
आगे भी तीर्थंकर मुनिगण का, शिवथल यह मुनिनाथ कहें।।
-दोहा-
सिद्धिवधू प्रिय तीर्थकर, मुनिगण तीरथराज।
मन वच तन से मैं नमूं, मिले सिद्धिसाम्राज्य।।१।।
गणधर कूट (१)
-शेर छंद-
चौबीस जिनेश्वर के गणीश्वर उन्हें नमूं।
चौदह शतक उनसठ१ कहे उन सभी को प्रणमूं।।
ये सर्व ऋद्धिनाथ रिद्धि सिद्धि प्रदाता।
मैं शीश झुकाकर नमूं ये मुक्ति प्रदाता।।२।।
ज्ञानधर कूट (२)
-शंभु छन्द-
श्री कुंथुनाथ जिन कूट ज्ञानधर, से निर्वाण पधारे हैं।
उन साथ में इक हजार साधू, सब कर्मनाश गुण धारे हैं।।
इससे छ्यानवे कोड़ाकोड़ी, छ्यानवे कोटि बत्तीस लाख।
छ्यानवे सहस सात सौ ब्यालिस, शिव पहुँचे मुनि नमूं आज।।
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदे सिर नाय।
एक कोटि उपवास फल, लहे स्वात्मनिधि पाय।।३।
मित्रधर कूट (३)
नमिजिनवर कूट मित्रधर से, इक सहस साधु सह मुक्ति गये।
इससे नव सौ कोड़ाकोड़ी, इक अरब लाख पैंतालिस ये।।
मुनि सात सहस नौ सौ ब्यालिस, सब सिद्ध हुए उनको वंदूं।
निज आत्म सुधारस पान करूँ, दुःख दारिद संकट को खंडू।।
-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करें वंदना भव्य।
एक कोटि उपवास फल, लहें नित्य सुख नव्य।।४।।
नाटक कूट (४)
श्री अरजिनवर नाटक सुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये।
इस ही से निन्यानवे कोटि, निन्यानवे लाख महामुनि ये।।
नव सौ निन्यानवे सर्व साधु, निर्वाण पधारे वंदूं मैं।
सम्यक्त्व कली को विकसित कर, संपूर्ण दुःखों से छूटूँ मैं।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे कोटि उपवास फल, पाय लहँूं निजराज।।५।।
संबल कूट (५)
श्री मल्लिनाथ संबल सुकूट से, मोक्ष गये सब कर्म हने।
मुनि पाँच शतक प्रभु साथ मुक्ति को, प्राप्त किया गुण पाय घने।।
इस ही से छ्यानवे कोटि महामुनि, सर्व अघाती घाता था।
मैं परमानंदामृत हेतू, इन वंदूं गाऊँ गुण गाथा।।
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार।
एक कोटि प्रोषधमयी, फल उपवास जु सार।।६।।
संकुल कूट (६)
श्रेयांस प्रभू संकुल सुकूट से, एक सहस मुनि के साथे।
निर्वाण पधारे परम सौख्य को, प्राप्त किया भवरिपु घाते।।
इससे छ्यानवे कोटिकोटि, छ्यानवे कोटि छ्यानवे लक्ष।
नव सहस पाँच सौ ब्यालिस मुनि, शिव गये नमूं कर चित्त स्वच्छ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, मिले पुन: शिवराज।।७।।
सुप्रभ कूट (७)
श्री पुष्पदंत सुप्रभ सुकूट से, सहस साधु सह सिद्ध हुये।
इससे ही इक कोड़ाकोड़ी, निन्यानवे लाख महामुनि ये।।
पुनि सात सहस चार सौ अस्सी, मुनी मोक्ष को पाए हैं।
मैं वंदूं नितप्रति भक्ती से, ये गुण अनंत निज पाए हैं।।
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदें कर जोड़।
एक कोटि उपवास फल, लहें विघ्नघन तोड़।।८।।
मोहन कूट (८)
श्री पद्मप्रभू मोहन सुकूट से, तीन शतक चौबिस मुनि सह।
निर्वाण पधारे आत्मसुधारस, पीते मुक्तिवल्लभा सह।।
इससे निन्यानवे कोटि सत्यासी, लाख तेतालिस सहस तथा।
मुनि सात शतक सत्ताइस सब, शिव पहुँचे वंदत हरूँ व्यथा।।
जो वंदें इस टोंक को, स्वर्ग मोक्ष फल लेय।
एक कोटि उपवास फल, तत्क्षण उन्हें मिलेय।।९।।
निर्जर कूट (९)
श्री मुनिसुव्रत निर्जरसुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये।
इससे निन्यानवे कोटिकोटि, सत्यानवे कोटि महामुनि ये।।
नौ लख नौ सौ निन्यानवे सब, मुनिराज मोक्ष को प्राप्त हुये।
हम इनके चरणों को वंदे, निज समतारस पीयूष पियें।।
कोटि प्रोषध उपवास फल, टोंक वंदते जान।
क्रम से सब सुख पायके, अंत लहें निर्वाण।।१०।।
ललित कूट (१०)
श्री चंद्रनाथ जिन ललितकूट से, सहस मुनी सह मोक्ष गए।
इससे नव सौ चौरासि अरब, बाहत्तर कोटि अस्सि लख ये।।
चौरासि हजार पाँच सौ पंचानवे साधुगण सिद्ध हुए।
इनके चरणों में बार-बार, प्रणमूँ शिवसुख की आश लिए।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे लाख उपवास फल, मिले सरें सब काज।।११।।
ऋषभदेव भगवान की टोंक (११)
-शेर छंद-
केलाशगिरि से ऋषभदेव मुक्ति पधारे।
उन साथ मुनि दस हजार मोक्ष सिधारे।।
मैं बार बार प्रभूपाद वंदना करूँ।
निजात्म तत्त्व ज्ञानज्योति से हृदय भरूँं।।१२।।
विद्युत्वर कूट (१२)
श्री शीतल जिन विद्युत् सुकूट से, सहस साधु सह मोक्ष गये।
इससे अठरा कोड़ाकोड़ी अरु, ब्यालीस कोटी साधु गये।।
बत्तीस लाख ब्यालिस हजार, नव शतक पाँच मुनि मोक्ष गये।
इनके चरणारविंद वंदूं, परमानंद सुख की आश लिये।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से निज साम्राज्य।।१३।।
स्वयंभू कूट (१३)
वर कूट स्वयंभू से अनंत जिन, निज अनंत पद प्राप्त किया।
उन साथ सात हज्जार साधु ने, कर्मनाश निज राज्य लिया।।
इससे छ्यानवे कोटिकोटि, सत्तर करोड़ मुनि मोक्ष गये।
पुनि सत्तर लख सत्तर हजार, अरु सात शतक मुनि मुक्त भये।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
नव करोड़ उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।१४।।
धवल कूट (१४)
श्री संभव जिनवर धवलकूट से, हजार मुनिसह मोक्ष गये।
इससे नौ कोड़िकोड़ि बाहत्तर, लाख बयालिस हजार ये।।
पुनि पाँच शतक मुनिराज सर्व, निर्वाण धाम को प्राप्त किये।
इन सबके चरण कमल वंदूं, निज ज्ञानज्योति हो प्रगट हिये।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
ब्यालिस लाख उपवास फल, अनुक्रम से शिवराज्य।।१५।।
वासुपूज्य भगवान की टोंक (१५)
-शेर छंद-
चंपापुरी से वासुपूज्य मोक्ष गये हैं।
उन साथ छह सौ एक साधु मुक्त भये हैं।।
इनके पदारविंद को मैं भक्ति से नमूँ।
निज सौख्य अतीन्द्रिय लहूँ संसार सुख वमूँ।।१६।।
आनन्द कूट (१६)
अभिनंदन जिन आनंद कूट से, हजार मुनिसह सिद्ध बने।
बाहत्तर कोड़िकोड़ि सत्तर, कोटी पुनि सत्तर लाख भने।।
ब्यालीस सहस अरु सातशतक, मुनि यहाँ से मोक्ष पधारे हैं।
इन सबके चरण कमल वंदूँ, ये सबको भवदधि तारे हैं।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक लाख उपवास फल, मिले स्वात्म सुख नित्य।।१७।।
सुदत्त कूट (१७)
श्री धर्मनाथ जिन सुदत्त कूट से, कर्मनाश कर मोक्ष गये ।
उनके साथ आठ सौ इक मुनि, पूर्ण सौख्य पा मुक्त भये ।।
उससे उनतिस कोड़ाकोड़ी, उन्निस कोटी साधू वंदूं।
नौ लाख नौ सहस सात शतक, पंचानवे मुक्त गये वंदूं।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से अनुपम रिद्धि।।१८।।
अविचल कूट (१८)
श्री सुमतिनाथ अविचल सुकूट से, सहस साधु सह मोक्ष गये।
इक कोड़िकोड़ि चौरासि कोटि, बाहत्तर लाख महामुनि ये।।
इक्यासी सहस सात सौ, इक्यासी मुनि इससे मोक्ष गये।
इन सबके चरण कमल वंदूं, हो शांति अलौकिक प्रभो ! हिये।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि बत्तीस लख, मिले सुफल उपवास।।१९।।
कुंदप्रभ कूट (१९)
श्री शांतिनाथ जिन कुंद कूट से, नव सौ मुनि सह मुक्ति गये।
नव कोटि कोटि नव लाख तथा, नव सहस व नौ सौ निन्यानवे।।
इस ही सुकूट से मोक्ष गये, इन सबके चरण कमल वंदूँ।
प्रभु दीजे परम शांति मुझको, मैं शीघ्र कर्म अरि को खंडूँ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, मिले ज्ञान सुख नित्य।।२०।।
भगवान महावीर की टोंक (२०)
-शेर छंद-
पावापुरी सरोवर से वीरप्रभू जी।
निज आत्म सौख्य पाया निर्वाण गये जी।।
इनके चरणकमल की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण रोग दुःख की मैं खंडना करूँ।।२१।।
प्रभास कूट (२१)
जिनवर सुपार्श्व सुप्रभासकूट से, पाँच शतक मुनि साथ लिए।
उनचास कोटिकोटि चौरासी, कोटि सुबत्तिस लाख सु ये।।
मुनि सात सहस सात सौ ब्यालिस, कर्मनाश शिवनारि वरी।
मैं सबके चरण कमल वंदूं, मेरी होवे शुभ पुण्य घड़ी।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, मिले मोक्ष सुख राज्य।।२२।।
सुवीर कूट (२२)
श्री विमल जिनेंद्र सुवीर कूट से, छह सौ मुनि सह सिद्ध हुए।
इससे सत्तर कोड़ाकोड़ी अरु, साठ लाख छह सहस हुए।।
पुनि सात शतक ब्यालीस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये।
उन सबके चरण कमल वंदूं, मेरे सब कारज सिद्ध भये।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।२३।।
सिद्धवर कूट (२३)
श्री अजितनाथ जिन कूट सिद्धवर से निर्वाण पधारे हैं।
उन संघ हजार महामुनिगण, हन मृत्यू मोक्ष सिधारे हैं।।
इससे ही एक अरब अस्सी, कोटी अरु चौवन लाख मुनी।
निर्वाण गये सबको वंदूं, मैं पाऊँ निज चैतन्यमणी।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, अनुक्रम से निज राज्य।।२४।।
नेमिनाथ भगवान की टोेंक (२४)
-शेर छन्द-
गिरनार से नेमी प्रभू निर्वाण गये हैं।
शंबू प्रद्युम्न आदि मुनी मुक्त भए हैं।।
ये कोटि बाहत्तर व सात सौ मुनी कहे।
इन सबकी वंदना करूँ ये सौख्यप्रद कहे।।२५।।
सुवर्णभद्र कूट (२५)
श्री पार्श्व सुवर्णभद्र कूट से, छत्तिस मुनि सह मुक्ति गये।
इससे ही ब्यासी कोटि चुरासी, लाख सहस पैंतालिस ये।।
पुनि सात शतक ब्यालीस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये।
उन सबको वंदूं भक्ती से, इससे मनवांछित पूर्ण भये।।
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार।
सोलह कोटि उपवास फल, मिले भवोदधि पार।।२६।।
-शंभु छन्द-
नंदीश्वर द्वीप बना कृत्रिम, उसमें बावन जिनमंदिर हैं।
इनमें जिनप्रतिमाएँ मनहर, उनकी पूजा सब सुखकर है।।
मैं वंदूं भक्ती श्रद्धा से, संसार भ्रमण का नाश करूँ।
निज आत्म सुधारस पी करके, निज में ही स्वस्थ निवास करूँ।।२७।।
तीर्थंकर का शुभ समवसरण, अतिशायी सुंदर शोभ रहा।
श्री गंधकुटी में पार्श्वनाथ प्रभु, राज रहें मन मोह रहा।।
मैं मन वच तन से नित बँदू, तीर्थंकर को जिनबिंबों को।
सब रोग शोक दारिद्र हरूँ, पा जाऊँ निज गुणरत्नों को।।२८।।
गिरिवर सम्मेदशिखर से ही, अजितादि बीस तीर्थंकर जिन।
निज के अनन्त गुण प्राप्त किये, मैं उन्हें नमूं शिरनत निशदिन।।
यह ही अनादि अनिधन चौबीसों, जिनवर की निर्वाणभूमि।
मुनि संख्यातीत मुक्तिथल हैं, वंदत मिलती निर्वाणभूमि।।२९।।
-दोहा-
चिन्मूरति चिंतामणि, चिन्मय ज्योतीपुंज।
नमूं नमूं नित भक्ति से, चिन्मय आतमकुंज।।३०।।
-शंभु छन्द-
जय जय सम्मेदशिखर पर्वत, जय जय अतिशय महिमाशाली।
जय अनुपम तीर्थराज पर्वत, जय भव्य कमल दीधितमाली।।
जय कूट सिद्धवर धवलकूट, आनंदकूट अविचलसुकूट।
जय मोहनकूट प्रभासकूट, जय ललितकूट जय सुप्रभकूट।।३१।।
जय विद्युत संकुलकूट सुवीरकूट स्वयंभूकूट वंद्य।
जय जय सुदत्तकूट शांतिप्रभ, कूट ज्ञानधरकूट वंद्य।।
जय नाटक संबलकूट व निर्जर, कूट मित्रधरकूट वंद्य।
जय पार्श्वनाथ निर्वाणभूमि, जय सुवरणभद्र सुकूट वंद्य।।३२।।
जय अजितनाथ संभव अभिनंदन, सुमति पद्मप्रभ जिन सुपार्श्व।
चंदाप्रभु पुष्पदंत शीतल, श्रेयांस विमल व अनंतनाथ।।
जय धर्म शांति कुंथू अरजिन, जय मल्लिनाथ मुनिसुव्रत जी।
जय नमि जिन पार्श्वनाथ स्वामी, इस गिरि से पाई शिवपदवी।।३३।।
वैâलाशगिरी से ऋषभदेव, श्री वासुपूज्य चंपापुरि से।
गिरनारगिरी से नेमिनाथ, महावीर प्रभू पावापुरि से।।
निर्वाण पधारे चउ जिनवर, ये तीर्थ सुरासुर वंद्य हुए।
हुंडावसर्पिणी के निमित्त ये, अन्यस्थल से मुक्त हुए।।३४।।
जय जय वैâलाशगिरी चंपा, पावापुरि ऊर्जयंत पर्वत।
जय जय तीर्थंकर के निर्वाणों, से पवित्र यतिनुत पर्वत।।
जय जय चौबीस जिनेश्वर के, चौदह सौ उनसठ गुरु गणधर।
जय जय जय वृषभसेन आदी, जय जय गौतम स्वामी गुरुवर।।३५।।
सम्मेदशिखर पर्वत उत्तम, मुनिवृंद वंदना करते हैं।
सुरपति नरपति खगपति पूजें, भविवृंद अर्चना करते हैं।।
पर्वत पर चढ़कर टोेंक-टोंक पर, शीश झुकाकर नमते हैं।
मिथ्यात्व अचल शतखंड करें, सम्यक्त्वरत्न को लभते हैं।।३६।।
इस पर्वत की महिमा अचिन्त्य, भव्यों को ही दर्शन मिलते।
जो वंदन करते भक्ती से, कुछ भव में ही शिवसुख लभते।।
बस अधिक उनंचास भव धर, निश्चित ही मुक्ती पाते हैं।
वंदन से नरक पशूगति से, बचते निगोद नहिं जाते हैं।।३७।।
दस लाख व्यंतरों का अधिपति, भूतक सुर इस गिरि का रक्षक।
यह यक्षदेव जिनभाक्तिकजन, वत्सल है जिनवृष का रक्षक।।
जो जन अभव्य हैं इस पर्वत का, वंदन नहिं कर सकते हैं।
मुक्तीगामी निजसुख इच्छुक, जन ही दर्शन कर सकते हैं।।३८।।
यह कल्पवृक्ष सम वांछितप्रद, चिंतामणि चिंतित फल देता।
पारसमणि भविजन लोहे को, कंचन क्या पारस कर देता।।
यह आत्म सुधारस गंगा है, समरस सुखमय शीतल जलयुत।
यह परमानंद सौख्य सागर, यह गुण अनंतप्रद त्रिभुवन नुत।।३९।।
मैं नमूँ नमूँ इस पर्वत को, यह तीर्थराज है त्रिभुवन में।
इसकी भक्ती निर्झरणी में, स्नान करूँ अघ धो लूँ मैं।।
अद्भुत अनंत निज शांती को, पाकर निज में विश्राम करूँ।
निज ‘ज्ञानमती’ ज्योती पाकर, अज्ञान तिमिर अवसान करूँ।।।४०।।
दोहा- नमूँ नमूँ सम्मेदगिरि, करूँ मोह अरि विद्ध।
मृत्युंजय पद प्राप्त कर, वरूँ सर्वसुख सिद्धि।।४१।।
प्रशस्ति…..
तीर्थंकर को नित नमूँ, नमूँ सरस्वति मात।
गौतमादि गणधर नमूँ, नमूँ साधु जग तात।।१।।
कुंदकुंद आम्नाय में, गच्छ सरस्वति मान्य।
बलात्कारगण ख्यात में, हुये सूरि जग मान्य।।२।।
इस युग के चूड़ामणी, शांतिसागराचार्य।
चारितचक्री धर्मधुरि, हुये प्रथम आचार्य।।३।।
इनके पट्टाधीश थे, वीरसागराचार्य।
मुझे आर्यिका व्रत दिया, नाम ज्ञानमति धार्य।।४।।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, पार्श्वनाथ निर्वाण।
सम्मेदशिखर स्तोत्र यह रचना पूरण जान।।५।।
सर्वोत्तम जिनतीर्थ यह, जब तक जग में सिद्ध।
गणिनी ज्ञानमती कृती, तब तक रहे प्रसिद्ध।।६।।
इस जग में जिन भक्त के, मन में करे प्रमोद।
तीर्थ सुरक्षित नित रहे, जग को दे आलोक।।७।।