== दर्शनमोहरूपी अंधकार के नाश (उपशम, क्षय या क्षयोपशम) होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाने से जिसको सम्यग्ज्ञान प्रगट हो गया है, ऐसा भव्यजीव रागद्वेष को नष्ट करने के लिए चारित्र को धारण करता है। जिसका आचरण किया जाता है, वह चारित्र है। पापों की नाली के समान हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह से विरक्त होना सम्यक्चारित्र है। चारित्र के भेद-वह सम्यक्चारित्र सकल और विकल के भेद से दो प्रकार का है। समस्त परिग्रह से रहित मुनियों के सकल चारित्र होता है। परिग्रह सहित गृहस्थों के एकदेश चारित्र होता है। श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि-‘‘सर्वथा सर्वदेश त्याग में लवलीन यह मुनि समयसारस्वरूप-शुद्धोपयोगरूप स्वरूप में आचरण करने वाला होता है और जो एकदेश विरति में लगा हुआ है, वह श्रावक उपासक कहलाता है।’’ उपासक के ग्यारह प्रतिमा नाम से ग्यारह भेद हैं। उनका वर्णन आगे करेंगे। पांचों पापों का एकदेश त्याग करना विकल चारित्र है।