(सम्यक्त्व ज्योति आत्मा के स्वस्थ भाव को प्रकट कर समस्त परभाव को आत्मा से जुदा दिखलाने वाला एक अमूल्य और अलौकिक पारदर्शक यंत्र है।)
आज्ञासमुद्भव, मार्गसमुद्भव, उपदेशसमुद्भव, सूत्रसमुद्भव, बीजसमुद्भव, संक्षेपसमुद्भव, विस्तारसमुद्भव, अर्थसमुद् भव:, अवगाढ़ और परमावगाढ़ इस प्रकार से सम्यग्दर्शन के दश भेद माने गये हैं।
१.दर्शन मोहनीय के उपशांत हो जाने से ग्रन्थश्रवण के बिना ही केवल वीतराग भगवान् की आज्ञा से जो तत्वश्रद्धान उत्पन्न होता है उसे आज्ञासम्यक्तव कहते हैं। अर्थात् शास्त्राभ्यास के बिना यदि किसी जीव को सर्वज्ञदेव की आज्ञा पर ही निश्चल श्रद्धान हो जाता है कि ये जिनेन्द्रदेव चूँकि सर्वदोष रहित वीतराग हैं और केवलज्ञान सहित होने से सर्वज्ञ हैं अत: ये अन्यथा उपदेश नहीं दे सकते । इनके जो वचन हैं सो सर्वथा सत्य ही हैं ऐसा दृढ़ विश्वास हो जाता है उसी का नाम आज्ञासम्यक्तव है चूँकि यह जिनेन्द्रदेव की आज्ञामात्र से उत्पन्न है।
२.ग्रन्थों के अर्थ विस्तार पूर्वक श्रवण किये बिना ही जो दर्शन मोह के उपशम से कल्याणकारी रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग पर श्रद्धान हो जाता है वह मार्ग सम्यक्तव है। अर्थात् इस सम्यक्तव में जीव सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र स्वरूप मोक्षमार्ग को हितकर समझकर दृढ़ श्रद्धान कर लेता है। इसीलिये मोक्षमार्ग से उत्पन्न हुआ जो श्रद्धान है वह मार्ग समुद्भव सम्यग्दर्शन है।
३.त्रेसठ शलाकापुरुषों के पुराण के उपदेश से जो सम्यक्तव प्रगट होता है वह उपदेश सम्यग्दर्शन है ऐसा गणधर देव ने कहा है। अर्थात् कोई जीव यदि तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव आदि महापुरुषों के चारित्र को सुनकर और उससे पुण्य—पाप के फल का विचार कर जिन धर्म पर दृढ़ श्रद्धान कर लेता है तब उपदेश से उत्पन्न हुए सम्यक्तव को उपदेश सम्यग्दर्शन कहते हैं।
४.मुनि के चारित्र के अनुष्ठान को सूचित करने वाले आचारसूत्र को सुनकर जो तत्वश्रद्धान होता है उसे उत्तम सूत्र सम्यक्त्व कहा है। अर्थात् चरणानुयोग ग्रन्थ मूलाचार आदि में वर्णित मुनियों के महाव्रत आदि चारित्र को सुनकर जो उससे तत्वरुचि उत्पन्न होती है उसे सूत्र सम्यग्दर्शन कहा है।
५.जिन जीवादि पदार्थों के समूह का अथवा गणित आदि विषयों का ज्ञान दुर्लभ है। उनका किन्हीं बीजपदों के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने वाले भव्य जीव के जो दर्शन मोहनीय के असाधारण उपशमवश तत्वश्रद्धान होता है उसे बीजसम्यग्दर्शन कहते हैं। अर्थात् करणानुयोग से सम्बन्धित गणित आदि की प्रधानता से वर्णित दुर्गम तत्वों का ज्ञान सर्वसासधारण के लिये दुर्लभ है। कोई जीव १. आत्मानुशासन श्लोक ११ से १४ तक । ऐसे क्लिष्ट किन्हीं बीजपदों के निमित्त से उस ज्ञान को प्राप्त करके जो जिनधर्म पर या तत्वार्थों पर दृढ़ श्रद्धान कर लेता है वह बीज पदों से उत्पन्न होने वाला सम्यक्त्व बीजसम्यग्दर्शन कहलाता है।
६.जो भव्यजीव जीवादि पदार्थों के स्वरूप को संक्षेप से ही जान करके तत्व श्रद्धान कर लेता है उसके संक्षेप सम्यग्दर्शन होता है। अर्थात् सूत्र, तत्वार्थ ग्रन्थ या सिद्धांत ग्रन्थ रूप द्रव्यानुयोग के द्वारा पदार्थों को संक्षेप से ही जानकर जो तत्त्वरुचि प्रगट हो जाती है उसे संक्षेप ज्ञान की अपेक्षा उत्पन्न हुआ होने से संक्षेपसम्यग्दर्शन कहा जाता है।
७.जो जीव बारह अंगों को पढ़कर तत्व श्रद्धानी होता है उसके विस्तार सम्यग्दर्शन होता है। अर्थात् विस्तार से संपूर्ण बारह अंगों का ज्ञान हो जाने पर जो दृढ़ विश्वास विशेष होता है उसे ही विस्तार सम्यक्त्व कहा है।
८.अंगबाह्य आगामों के पढ़ने के बिना भी उनमें प्रतिपादित किसी पदार्थ के निमित्त से जो द्वादशांगज्ञानी जीव के विशिष्ट क्षयोपशम के वश से श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे अर्थसम्यग्दर्शन कहते हैं। अर्थात् इस सम्यग्दर्शन में जीव विशिष्ट क्षयोपशम के बल से श्रुत को सुने बिना ही उसमें प्रतिपादित किसी अर्थ विशेष से दृढ़ श्रद्धानी हो जाता है इसीलिये इसे अर्थसम्यग्दर्शन कहा है।
९.अंगों के साथ अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करके जो सम्यग्दर्शन उतपन्न होता है उसे अवगाढ़ सम्यग्दर्शन कहते हैं अर्थात् संपूर्ण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के ज्ञाता श्रुतकेवली को जो विशेष तत्व श्रद्धान होता है उसी का नाम अवगाढ़ सम्यक्तव है।
१०. केवलज्ञान से देखे गये पदार्थों के विषय में जो रुचि होती है वह यहाँ परमावगाढ़ सम्यक्त्व है। अर्थात् यह सम्यग्दर्शन केवलज्ञानी भगवान् के होता है। यहाँ पर जो ये दश प्रकार के सम्यक्तव बतलाये गये हैं उनमें से आज इस दु:षमकाल मे द्वादशांग श्रुत के उपलब्ध न होने से विस्तार सम्यक्तव, अर्थसम्यक्तव, अवगाढ़ और परमावगाढ़ ये चार प्रकार के सम्यक्त्व तो असंभव ही है। अब रहे आदि के छह प्रकार के सम्यक्तव जो कि आज भी प्रगट हो सकते हैं। उनमें से प्रथम सम्यक्तव तो सर्वज्ञ भगवान् की आज्ञामात्र से विवक्षित है। आज प्राय: इसी की मुख्यता है। क्योंकि— ‘‘ जिनेन्द्र देव द्वारा कथित तत्त्व सूक्ष्म है, हेतुओं के द्वारा उसका खंडन नहीं किया जा सकता है। भले ही हमारी समझ में न आवे फिर भी जिनदेव की आज्ञा से सिद्ध होने से ही वह ग्राह्य है क्योंकि सर्वज्ञ भगवान् अन्यथावादी नहीं है’’ । आज के युग में केवली, श्रुतकेवली के न होने से किसी सूक्ष्म विषय को निर्णय करने के लिये हमारे पास साधन भी नहीं है। अत: वर्तमान की उपलब्ध जिनवाणी को ही साक्षात् जिनवचन मानकर उन पर श्रद्धान करना आज्ञा सम्यक्त्व है। तथा रत्नयत्र स्वरूप मोक्षमार्ग का श्रद्धान भी आज संभव है वैसे ही बहुधा लोगों को पुराणों के पढ़ने से पाप के फल को कटु समझकर और पुण्य के फल को मधुर समझकर तथा मोक्ष का लक्षण १. सूक्ष्मं जिनोदितं तत्वं हेतुभिर्नैव हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तद् ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना:।(आलापपद्धति) जानकर जो पापभीरुता उत्पन्न होती है और धर्म में अतीव अनुराग उत्पन्न होता है उसे ही उपदेश सम्यक्त्व कहा है। ऐसे मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि में मुनियों के आचरण का प्ररूपण देखकर हिंसादि पापों से विरक्ति होकर जो तत्वार्थ श्रद्धान हो जाता है अथवा करणानुयोग से सम्बन्धित षट्खंडागमसूत्र, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि के किसी बीजपद से जो जिनवचनों पर दृढ़ श्रद्धान हो जाता है जैसे कि देखा ! जिनागम में परमाणु की या समय की परिभाषा कितनी सूक्ष्म की गई है कितने सूक्ष्म निगोदिया जीवों की रक्षा का उपदेश दिया है या जंबूद्वीप, लवणसमुद्र आदि के वर्णन में कितनी सूक्ष्म गणित का प्रतिपादन किया है इत्यादि समझकर जो जिन भगवान के वचनों पर दृढ़ विश्वास उत्पन्न हो जाता है वह बीज सम्यक्तव है। ऐसे ही कोई संक्षिप्त रूचिवाले शिष्य हैं उन्हें संक्षेप से ही पदार्थों के ज्ञान से दृढ़ श्रद्धान हो जाता है। इत्यादि प्रकार से वर्तमान के उपलब्ध चारों अनुयोगों के ग्रन्थ सम्यक्तव के कारण हो जाते हैं।
प्रश्न— हमने तो सुना है कि समयसार आदि अध्यात्म ग्रंथों के पढ़ने से ही आत्मा की अनुभूति होती है इौर तभी निश्चय सम्यक्तव प्रकट होता है यों तो अन्य अनुयोगों के पढ़ने से जो सम्यक्तव होता है वह तो व्यवहार सम्यक्तव है उससे आत्मा का का भान नहीं होता है ?
उत्तर — ऐसी बात नहीं है, क्योंकि इन आज्ञासम्यक्तव से लेकर संक्षेपसम्यक्तव तक छहों सम्यक्तवों में दर्शनमोहनीयादि का क्षय, क्षयोपशम या उपशम विवक्षित है— हेता ही है। तभी वह सम्यक्तव इस नाम को पाता है अर्थात् चार अनंतानुबंधी कषायें और तीन दर्शन मोहनीय की प्रकृतियाँ इनका क्षय होने से क्षायिक सम्यक्तव होता है जो कि आज असंभव है क्योंकि केवली या श्रुत केवली के पाद मूल में ही इन प्रकृतियों का क्षय हो सकता है। इन सातों के उपशम से उपशम सम्यक्तव होता है जिसका काल अंतर्मुहूर्त है तथा सम्यक्तव प्रकृति के उदय से जो सम्यक्तव होता है उसे वेदक या क्षयोपशम कहते हैं। हमें या आपको यह वेदकसम्यक्त्व ही माना जा सकता है। चौथे, पांचवें और छठे गुणस्थान तक व्यवहार सम्यक्त्व ही होता है। इसके आगे रत्नत्रय की एकाग्र परिणति में निश्चयसम्यक्ता होता है उसे वीतराग सम्यक्त्व भी कहते हैं। यथा— ‘‘निश्चयनयेन निश्चयचारित्राविनाभावि निश्चयसम्यक्तवं वीतराग सम्यक्त्व भण्यते।’’ निश्चयनय से निश्चयचारित्र के बिना न होने वाला ऐसा निश्चसम्यक्तव ही वीतराग सम्यक्तव कहलाता है जो कि शुद्धोपयोगी मुनियों के होता है उसके पहले के सम्यत्व का नाम सरागसम्यक्तव या व्यवहारसम्यक्त्व है। अत: यहाँ तो स्पष्ट है कि किसी भी अनुयोग के शास्त्रों से सम्यग्दर्शन प्रगट हो सकता है। इसलिये हमारे लिये सभी अनुयोगों के शास्त्र समानरूप से प्रमाणिक हैं और समानरूप से स्वाध्याय से स्वाध्याय के लिए उपयोगी हैं तथा समानरूप से ही आत्मतत्व और परतत्व का बोध कराने वाले हैं। हाँ यदि किसी भी शास्त्र का अर्थ ठीक से न समझा जाये या एकांत दुराग्रह किया जाये तो वही शास्त्र शास्त्र के समान दु:खदायी हो जाता है। इसलिये इन दस प्रकार के सम्यक्तवों का स्वरूप समझकर तथा उनके कारणों को अच्छी तरह हृदयंगम करके वर्तमान में उपलब्ध आचार्यों द्वारा प्रणीत सभी जैन ग्रन्थों के प्रति आस्था रखना चाहिये और उनके स्वाध्याय से अपने में सम्यक्तव की ज्योति जलाना चाहिये।