जैसे—जैसे मुनि अतिशय रस के अतिरेक से युक्त अपूर्वश्रुत का अवगाहन करता है, वैसे—वैसे नित—नूतन वैराग्ययुक्त श्रद्धा से आह्लादित होता है। सूची यथा ससूत्रा, न नश्यति कचवरे पतिताऽपि। जीवोऽपि तथा ससूत्रो, न नश्यति गतोऽपि संसारे।।
जैसे धागा पिरोई हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञानयुक्त जीव संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता। य: आत्मानं जानाति, अशुचिशरीरात् तत्त्वत: भिन्नम्। ज्ञायकरूपस्वरूपं, स शास्त्रं जानाति सर्वम्।।
जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वत: भिन्न तथा ज्ञायक—भाव रूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। संसयविमोहविब्भमविवज्जियं अप्परससरूवस्स गहणं सम्मण्णाणं।
आत्मा व अनात्मा के स्वरूप को संशय, विमोह और विभ्रमरहित जानना सम्यक् ज्ञान है।