सम्यक दर्शनचंद्रिका-स्वर्ण चित्रों से युक्त एक दुर्लभ अप्रकाशित पाण्डुलिपि
—सुरेखा मिश्रा एवं अनुपम जैन
सारांश
सम्यक्दर्शनचंद्रिका आचार्य उमास्वामी द्वारा लिखित तत्वार्थ सूत्र (अपरनाम मोक्षशास्त्र) की टीका है। आचार्य उमास्वामी दिगम्बर जैन परंपरा के द्वितीय शताब्दी के आचार्य हैं। सम्प्रति तत्वार्थ सूत्र के ऊपर सर्वाधिक लगभग ३८ टीकायें उपलब्ध है। सम्यव्दर्शनचंद्रिका इन्हीं में से एक अप्रकाशित टीका है जो कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ इंदौर में पाण्डुलिपि क्रमांक ५४२ पर संग्रहीत है। जैन दर्शन में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर नामक २ पंथ पाये जाते हैं तत्वार्थ सूत्र दोनों परंपराओं में मान्य ग्रंथ है। जैन धर्म और दर्शन के पुरा-साहित्य में ‘तत्वार्थ सू़त्र’ को अत्यन्त प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है। इसके सूत्रों पर पूज्यपाद (सर्वार्थसिद्धि), अकलंक (तत्वार्थाराजवार्तिक), उमास्वाति (तत्त्वार्थधिगम सूत्र-भाष्य), विद्यानंद (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार), सिद्ध सेन गणि जैसे प्रतिष्ठित आचार्यों ने विस्तृत टीकायें लिखी हैं। तत्त्वार्थ सूत्र जैन धर्म का संस्कृत भाषा में लिखित आद्य सूत्र ग्रंथ है। इसमें ३५७ सूत्र एवं १० अध्याय हैं। इन दस अध्यायों में १. जीव २. अजीव ३. आस्त्रव ४.बंध ५. संवर ६.निर्जरा ७. मोक्ष शीर्षक सात तत्वों का निरूपण है। प्रस्तुत कृति के १० अध्यायों में निहित विषय वस्तु का संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है:-
अध्याय १ से ४ तक
इसमें जीव तत्व का वर्णन किया गया है । इस भाग में कुल ३०६ पत्र हैं एवं कुल चित्रांकित पृष्ठों की संख्या ८३ हैं। इसके अंतर्गत मोक्ष प्राप्ति का उपाय, सम्यग्दर्शन का लक्षण,भेद व नाम, प्रमाण का स्वरूप, मतिज्ञान की उत्पत्ति एवं कारण, स्वरूप भेद, श्रुतज्ञान की उत्पत्ति एवं भेद, केवलज्ञान का विषय, नयोें के भेद, जीव के असाधारण भाव, जन्म व योनियों के भेद, शरीर के नाम व भेद, अकाल मृत्यु, सात नरक, कुछ द्वीप समुद्रों के नाम, सरोवरों का वर्णन, कमलों का वर्णन, चौदह महानदियों के नाम, भरत क्षेत्र का विस्तार, देवों के भेद आदि का विस्तार से वर्णन है।
पाचवाँ अध्याय
इसमें अजीव तत्व का वर्णन है। इस अध्याय में ३०७-३४१ तक के कुल ३५ पत्र है एवं एक भी चित्र नहीं है। इसके अंतर्गत द्रव्यों की गणना, द्रव्यों की विशेषता, द्रव्यों के प्रदेश वर्णन, द्रव्यों के उपकार वर्णन, पुदगल का लक्षण, पुद्गल का पर्याय, पुद्गल के भेद, स्कन्धों की उत्पत्ति के कारण द्रव्य का लक्षण, सत का लक्षण, नित्य का लक्षण, एक ही द्रव्य के विरूद्ध धर्मों का संबंध, परमाणुओं में बंध, कालद्रव्य का वर्णन,गुण का लक्षण, पर्याय का लक्षण आदि का विस्तार से वर्णन है।
छटवाँ एवं सातवाँ अध्याय
इनमें आस्त्रव तत्व का वर्णन है। इस अध्याय में ३४२-४२४ तक के कुल ८३ पत्र हैं। एवं एक भी चित्र नहीं है। यह अध्याय परिणामों का दर्पण है। जीवन शुद्धि का अमोल रत्न है। इसके अंतर्गत योग के भेद व स्वरूप, अधिकरण के भेद, ज्ञानावरणी-दर्शनावरणी कर्म के आस्रव रूप परिणामों का कथन,असाता व साता वेदनीय के आस्त्रव रूप परिणमों का कथन, दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय चारों आयु,शुभ एवं अशुभ नामकर्म के आस्रव रूप परिणामों का कथन, नीच गोत्र व उच्च गोत्र कर्म के आस्त्रव, अन्तरायकर्म के आस्रव रूप परिणामों का कथन व्रतों के लक्षण व भेद, पाँच व्रतों की भावनाओं का विवेचन, चार भावनाओं व संसार तथा शरीर के स्वभाव का कथन, हिंसादि पापों के लक्षण, व्रतों की विशेषता, व्रती का कर्तव्य, सल्लेखना एवं दान के लक्षण आदि का वर्णन है।
आठवाँ अध्याय
इनमें बंध तत्व का वर्णन है। इस अध्याय में ४२५-४९९ तक के कुल ७४ पत्र है एवं एक भी चित्र नहीं है। इसके अंतर्गत बंघ के कारण बन्ध का स्वरूप बन्ध के भेद, प्रकृति बन्ध के उत्तर भेद, ज्ञानवरण के पाँच भेद, दर्शनावरण के ९ भेद, वेदनीय के २ भेद, मोहनीय के २८ भेद, आयुकर्म के ४ भेद, नामकर्म के ४२ भेद, गोत्रकर्म के २ भेद अन्तराय के ५ भेद, ज्ञानवरण, दर्शनावरण, वेदनीय अन्तराय की स्थिति, मोहनीय स्थिति नाम और गोत्र की स्थिति आयुकर्म की स्थिति वेदनीय की जघन्य स्थिति, नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति, शेष कर्मों की स्थिति, अनुभव बंध का लक्षण, फल के बाद निर्जरा, प्रदेश बन्ध,पुण्य प्रकृतियाँ, पाप प्रकृतियाँ आदि का विस्तार से वर्णन है।
नवाँ अध्याय
इनमें संवर और निर्जरा तत्व का वर्णन है। इस अध्याय में ५००-५६६ तक के कुल ६७ पत्र है एवं एक भी चित्र नहीं है। इसके अंतर्गत संवर का लक्षण, संवर के कारण, गुप्ति का लक्षण, समिति के भेद, धर्म के भेद, अनुप्रेक्षाओं के भेद, परीषह सहन उपदेश, बाईस परीषह गुणस्थानों की अपेक्षा परीषहों का वर्णन, परीषहों में निमित्त एक साथ होने वाले परिषहों की संख्या, पाँच चारित्र, बाह्य तप के भेद, अन्तरंग तप के भेद, अन्तरंग तप के उत्तर भेद, प्रायश्चित के ९ भेद, विनय के ४ भेद, वैयावृत्त के १० भेद, स्वाध्याय के ५ भेद, व्युत्सर्ग तप के दो भेद, ध्यान का लक्षण, ध्यान के भेद ध्यान का फल, आत्र्तध्यान के ४ भेद, रौद्रध्यान के भेद, धर्मध्यान का स्वरूप, शुक्लध्यान का वर्णन, पात्र की अपेक्षा निर्जरा में न्यूनाधिकता, निर्गन्थ साधुओं के भेद, पुलकादि की विशेषता आदि का विस्तार से वर्णन है।
दसवाँ अध्याय
इनमें मोक्ष तत्व का वर्णन है। इस अध्याय में ५६७-६१७ तक के कुल ५१ पत्र हैं एवं एक भी चित्र नहीं हैं। इसके अंतर्गत केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण, मोक्ष का लक्षण, मोक्ष में कर्मों के सिवाय किसका अभाव, कर्मों का क्षय होने के बाद ऊध्र्वगमन के कारण, उक्त चारों कारणों क कम से दुष्टान्त , लोकाग्र के आगे नहीं जाने के कारण, मुक्त जीवों के भेद आदि का विस्तार से वर्णन है। अब हम इस पाण्डुलिपि में समाहित स्वर्ण चित्रों का वैशिष्ठ्य एवं उसकी विषय वस्तु का वर्णन करेंगे
०१.पत्र १४६ एवं ३०२ पर मध्यलोक का रंगीन चित्र है। मन्दराचल (सुमेरू पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊध्र्वलोक है। मन्दराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है। मन्दराचल से परिच्छिन् न मध्यलोक है। मेरू पर्वत एक लाख योजन विस्तार वाला है। उसी मेरू पर्वत ऊपर तथा नीचे इस तिर्यग्लोक की अवधि निश्चित है। इसमें असंख्यात द्वीप, समुद्र एक दूसरे को वेष्ठित करके स्थित हैं। यह सारा का सारा तिर्यक्लोक कहलाता है,क्योंकि तिर्यंच जीव इस क्षेत्र में सर्वत्र पाये जाते हैं। तिर्यग्लोक के मध्यवर्ती जम्बूद्वीप से लेकर मानुषोत्तर पर्वत तक अढ़ाई द्वीप व दो सागर से वेष्ठित ४५,००.००० योजन प्रमाण क्षेत्र मनुष्य लोक है। देवों आदि के द्वारा भी मानुषोत्तर पर्वत के आगे के भाग में जाना संभव नहीं है। अढ़ाई द्वीप तथा अन्तिम द्वीप सागर मे ही कर्मभूमि हैं, अन्य सर्वद्वीप व सागर में सर्वदा भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। कृष्यादि षट् कर्म तथा धर्म-कर्म संबंधी अनुष्ठान जहाँ पाये जाते हैं वह कर्मभूमि है और जहाँ जीव बिना कुछ किये प्राकृतिक प्रदार्थों के आश्रय पर उत्तम भोग भोगते हुए सुखपूर्वक जीवन यापन करें वह भोगभूमि है।
०२.पत्र क्रमांक १४७ पर जम्बूवृक्ष का रंगीन चित्र दिया गया है।जम्बूद्वीप में जम्बू नामक वृक्ष है। जो अन्य द्वीपों में नहीं है। इसके असाधारण लक्षण से सहित होने के कारण सार्थक संज्ञा वाला जम्बूद्वीप है।यह नाम अनादिकाल से है। यह जम्बूवृक्ष उत्तर कुरू भोग भूमि के मध्य पाँच सौ योजन लम्बी चौड़ी एक जगती अर्थात गोल चौकोर स्थली पर स्थित है। तेरह योजन ऊँची यह जगती अर्थात प्रथम पीठ या चबूतरा है। उसके चारों ओर पद्मवर वेदिका अर्थात भीति है। उस जगती के बीच में नाना रत्नमयी एक पीठ और है।वह आठ योजन चौड़ी है। उसके चारों ओर बाहर पद्मवर वेदिकायें हैं। उन पदमवर वेदिकाओं के चारों तरफ प्रत्येक में चार-चार श्वेत तोरण हैं।वे चार-चार स्वर्ण के स्तूपों ऐसे सहित है। वह मणिमयी एक योजन चौड़ी व लम्बी गोल है। दो कोश ऊँची है।उस उपपीठ के ऊपर बीच में सुदर्शन नामक जम्बू का वृक्ष है। यह जम्बूवृक्ष सुमेरू पर्वत से ईशान दिशा और सीता नदी से पूर्व दिशा में और नीलाचल से दक्षिण दिशा तथा माल्यवान गजदन्त से पश्चिम उत्तर दिशा में है। यह वृक्ष के आकार में पृथ्वीकाय की रचना है एवं रत्न व स्वर्णमयी है।वृक्ष की उत्तर शाखा अर्थात डाली के ऊपर अर्हंत देव का अकृतिम चैत्यालय है। पूर्व दिशा में व्यन्तरदेव रहते हैं एवं पश्चिम दिशा में व्यन्तरेश्वर की रमणी अर्थात देवी की शय्या है।
०३.पत्र क्रमांक १४८ पर जम्बूवृक्ष की स्थली का रंगीन चित्र है। इस स्थल पर एक के पीछे एक करके १२ वेदियाँ है। जिनके बीच १२ भूमियाँ है। स्थल के चारों और तीन खण्ड है। प्रथम वनखण्ड की चारों दिशाओं में एक कोश लम्बे, आधे कोश चौड़े एवं एक कोश ऊँचे चार भवन हैं विदिशाओं में चार बावड़ी हैं। बावड़ियों की चारों दिशाओं में रजत और स्वर्ण से रचित श्वेत आठ वूâट है। एवं चार प्रासाद हैं। ऐसी जम्बूवृक्ष की रचना है। इन सभी जम्बूवृक्षों के ऊपर सुदर्शन जम्बूवृक्ष के जैसा एक-एक जिनेन्द्र देव का चैत्यालय है। ये सभी जम्बूवृक्ष पृथ्वीकाय हैं। वनस्पतिकाय नहीं हैं। इस वृक्ष के योग से इस द्वीप का सार्थक नाम जम्बूद्वीप है।
०४. पत्र १५३ पर हिमवान कुलाचल का रंगीन चित्र है। इसमें अत्याधिक हिम होने के कारण इसका नाम हिमवान पड़ा। इसको महाहिमवान की अपेक्षा क्षुद्रहिमवान भी कहा जाता है।भरत और हैमवत क सीमा में इसका सन्निवेश है। यह पृथ्वी से सौ योजन ऊँचा और तथा पच्चीस योजन पृथ्वी के अन्दर इसकी नींव है। क्षुद्रहिमवान के ऊपर पूर्व दिशा में सिद्धायतन कूट पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। इसी प्रकार अर्हदायन सहित सिद्ध कूट से पश्चिम दिशा में दश कूट और हैं। उनवे नाम हिमवत, भरत, इला, गंगा, श्री, रोहितास्था, सिन्धु, सुरा, हैमवत और वैश्रवण हैं। इसमें देव और देवियाँ रहती हैं।
०५.पत्र १६० पर कंचनगिरी (काँचनगिरि) का रंगीन चित्र है। प्रत्येक द्रह के पूर्व एवं पश्चिम दिग- भाग में सौ-सौ योजन उँचे दस-दस कांचन शैल (कनक पर्वत) हैं।ये सब मनोहर कनकगिरि मल में एवं ऊपर चार तोरण-वेदियों से वन-उपवनों और पुष्करिणियों से रमणीक हैं। कनकगिरियों पर स्वर्ण चाँदी एवं रत्नों से निर्मित नाचती हुई ध्वजा—पताकाओं सहित कालागरू धूप की गन्ध से व्याप्त प्रासाद हैं। साीता सोतोदा नदी से पूर्व-पश्चिम दिशा में पाँच-पाँच कांचनगिरि हैं। इस तरह दो सौ कांचनगिरि हैं इसका सिद्धान्तसार और राजवार्तिक ग्रंथ में अधिक वर्णन है त्रिलोकसार में सिद्धान्तसार के ही समान कुण्ड बीस, कांचनगिरि दो सौ तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में राजवार्तिक के समान ही देवकुरू और उत्तरकुरू में दशकुण्ड और एक कुण्ड के दोनों पाश् र्व मे दस-दस कांचनगिरि अर्थात् दो सौ कांचनगिरि कहां है अर्थात् एक-एक मेरू संबंधी दो सौ कुल पाँच मेरू संबंधी एक हजार कांचनगिरि हैं। यह गणना ठीक प्रतीत होती हैं।
०६.पत्र १७१ पर जन्मकल्याणक के समय सात सैन्य (बल) का रंगीन चित्र है। जिस समय मध्यलोक के किसी भी क्षेत्र में तीर्थंकर का जन्म होता है। उस समय ज्योतिषी देवों के सिहंनांद, भवनवासी देवों शंखनाद, व्यंतरदेवों के ढोल कल्पवासी देवों के घण्टे का शब्द बिना बजाए निरन्तर होेता रहता है। सिंहासन का कांपना, मुकुट का नमना इत्यादि चिन्हों से भगवान का जन्म हुआ है, ऐसा जानकर पहले इन्द्रादिक सभी देव अपने-अपने सिहांसन से उतरकर जिस दिशा के क्षेत्र में जन्म होता है, उस दिशा के सम्मुख सात कदम चलकर साष्टांग नमस्कार करते हैं। बाद में चारों प्रकार के देव, परम विभूति रूप छत्र, ध्वजा, विमानादि से सहित आकाश रूपी आंगन को आच्छादित करते हुए तीर्थंकर के जन्माभिषेकोत्सव के लिये जन्म नगरी को जाते हैं। जिसमें सात सैन (बल) वृषभ, रथ, तुरंग, हस्ति, नृत्यकारिणी, गन्धर्व और भव्य ऊँचे व बड़े रथों सहित श्री जिनेन्द्र देव के जन्माभिषेक के लिए जाते हैं।
०७. पत्र १७३ पर एक लाख योजन वाला ऐरावत हाथी का रंगीन चित्र परिचय है। जम्बूद्वीप प्रमाण एक लाख योजन विस्तार को धारण करने वाला, शंख, चन्द्रमा तथा कुन्द के पुण्य के समान सपेद उज्जवल वर्ण और नाना आभरण, घण्टा और किंकिणी अर्थात छोटी घण्टिकाओं व ताराकाओं से युक्त स्वर्ण भूषित, मनोहरमन, वांछित रूप का धारी, महान ऊँचा ऐरावत गज का रूप नागदत्त नामक अभियोग जाति के देवों का स्वामी धारण करता है। उस हाथी के नाना प्रकार के वर्ण युक्त विचित्र व रमणीक बत्तीस मुख होते हैं। एक-एक मुख में मृदु अर्थात कोमल और स्थूल अर्थात मोटे और लम्बे आठ-आठ दन्त होते हैं। एक-एक दन्त में चलायमान रमणीक एक-एक सरोवर होता है। एक—एक सरोवर में एक-एक कमलिनी होती है। नृत्यकारी देव नाना प्रकार के रूप धारण कर नृत्य करते हैं एवं उस गज की पीठ पर आरूढ़ होकर जिन महोत्सव में चलते हैं।
०८.पत्र १७८ पर अकृत्रिम चैत्यालय का सुन्दर चित्र हैं। मेरू से पूर्व और सीतानदी से पश्चिम में अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं। वे सौ योजन लम्बे, पचास चौडे और पचहत्तर योजन ऊँचे हैं। जिनके पूर्व, उत्तर और दक्षिण इन तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं। वे सोलह योजन उँचे और आठ योजन चौड़े हैं। आठ योजन के प्रवेश से युक्त वे जिनमन्दिर नाना प्रकार की मणियों एवं कांचन,रजत आदि से निर्मित हैं।उन द्वारों के आगे सौ योजन लम्बे और पचास योजन चौड़े तथा कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे मुखमण्डप हैं। उनके आगे इतने ही प्रमाण लिये प्रेक्षागृह हैं। उसके आगे स्तूप एवं चैत्यवृक्ष पीठ है। उनसे आगे नाना मणि व रत्नमयी पीठ पर स्थापित सोलह योजन उँचे और एक कोश चौड़े महेन्द्रध्वज हैं । उनसे आगे नन्दा को लेकर पुष्पकारिणी हैं। उनके बीच सोलह योजन लम्बे, आठ योजन चौड़े और आठ ही योजन ऊँचे रत्नमयी देवोपुनीत अर्हदायतन अर्थात जिनमन्दिरों की रचना है जिसमें शुभ १००८ लक्षण और व्यंजनों से चिन्हित और वैडूर्यमणिमयी, मणि-हेम मुक्तफलों के समूह से अलंकृत, सैकड़ों रत्नशालाओं और कांचन के तुम्बबिम्ब अर्थात झुमके वाले,रजतमयी पत्र से युक्त छत्रादि अष्टप्रतिहायों से व्याप्त और भव्यजनों से स्तवन, वन्दन, पूजन आदि के योग्य, अनादिनिधन एक सौ आठ संख्या वाले, विशेष गुणों से वर्णित,एक सौ आठ कलश, श्रृंगार आदि उपकरणों से घिरी हुई तथा अवर्णनीय वैभव वाली अर्हन्त प्रतिमा विराजमान है।
०९.पत्र २३५ पर एक हजार आठ कलशों से अभिषेक का वर्णन है। अहनिन्द्रों के आसन कम्पायमान होने से वे जिनेन्द्र का जन्म जानकर अपने-अपने सिंहासन उठकर सात कदम आगे चलकर महान भक्ति भाव से सभी अंगो को नवाते हुए मस्तक को धरती से लगाकर जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करते हैं विभूति से युक्त चतुर निकाय के देवन्द्र और देव एकत्र होकर नाना प्रकार के देव प्रणीत यंत्रों वाद्य के नाद से दशों दिशाओं को बहरे करते हुए नाद करतें हैं। नाना प्रकार के ध्वज, छत्र, चमर और विमानादिक विभूति से सहित आकाश, आंगन को आच्छादित करते हुए तीर्थेश की उत्पत्ति समय स्वर्ग से जन्म नगरी में आते हैं। सौधर्म इन्द्र भगवान को ऐरावत हाथी पर बैठाकर सुमेरू पर्वत पर ले जाते हैं और भगवान को पाण्डुक शिला पर बीच के सिहसन पर विराजमान कर उस सिंहासन के दोनों पार्श्व के सिंहासनों पर क्रम से दक्षिण की ओर सौधर्म और उत्तर की ओर ईशान इन्द्र खड़े होकर क्षीर समुद्र के जल से भरे हुए एक हजार आठ सुवर्णमयी कलशों से अभिषेक करते हैं।इस प्रकार नृत्य, गीत, और वादिन्नों (वाद्य यंत्रों) की ध्वनि तथा जय-जयकार शब्द आदि सैकड़ों महोत्सव सहित अभिषेक, विधिपूर्वक इन्द्र और देव गन्धोदक की वंदना करते हैं। इस प्रकार सम्यकदर्शनचंद्रिका की पाण्डुलिपि में कुल ६१७ पत्र एवं स्वर्णांकित चित्रों की संख्या ८३ है। प्रथम अध्याय की प्रशस्ति में मिती फागुन कृष्णा ३ संवत् १९७६ लिखा है एवं अन्तिम अध्याय की प्रशस्ति में र्काितक शुक्ल १२ संवत् १९७७ लिखा है। इस पाण्डुलिपि के लिपिकार पं. मोतीलाल चौबे, चंदेरी वाले हैं। दि. जैन उदासीन आश्रम हेतु मारवाड़ी मंदिर में इसे लिखवाया गया है। इसके प्रत्येक पत्र पर १५ लाइन एवं ५३ अक्षर हैं। इसकी लम्बाई और चौड़ाई ३४ ² २१ ² सें.मी. है। इसके टीकाकार का नाम अनुपलब्ध है एवं इसके पत्र क्रमांक २७४, २७७, २७८, २८२ एवं ३०१ अनुपलब्ध हैं।इसके साथ ही पत्र क्रमांक १५७, २४४, २४५, एवं २४६ का कागज अलग है जिससे प्रतीत होता है कि यह किसी दूसरी सम्यग्दर्शनचंद्रिका के पत्र हैं। इसी प्रकार चित्रांकित पत्रों मे ३५ ऐसे चित्र हैं जो डबल हैं। जो पहले प्रारूप के रूप में तैयार किये गये और बाद में उन्हें व्यवस्थित कर अन्तिम रूप से बनाया गया है। जिसमें से कुछ में स्वर्ण चित्रकारी भी है एवं इसी के साथ पत्र क्रमांक २३५, ३७४, ३८२, एवं ३७८ पर दिये गये चित्र विषय वस्तु से संबंधित नहीं हैं। ऐसा क्यों? पत्र १७१ पर ऐरावत हाथी, पत्र १७१ सात सैन्य, पत्र १७८ पर अकृतिम चैत्यालय, १६० पर कांचनगिरि, २३५ पर जन्मकल्याणक सुमेरू पर्वत, ३७४ पर स्वर्गों के पटल एवं ३७८ पर मानस्तंभ तीर्थंकरों के वस्त्राभरणों के चित्र बहुत सुन्दर हैं। इन्द्र की सभा एवं उत्पाद शय्या के चित्र बहुत सुन्दर हैं किन्तु उस पर पत्र क्रमांक नहीं दिया गया है। सम्यकदर्शनचंद्रिका की मूल प्रति वि.संवत् १९६० की किसी भंडार में और होना चाहिये, क्योंकि प्रस्तुत कृति के तृतीय अध्याय के अन्त में पत्र १८० पर पाण्डुलिपि लिखने का वर्ष ’’शुभ संवत् श्री वीर निर्वाण २४३०, वि.संवत् १९६० माघ सुदी ९ बुधवार ता दिन’’ यह अध्याय की टीका समाप्त हुई दिया गया है और प्रतिलिपि का वर्ष १९७८ लिखा गया है। अत: विक्रम संवत् १९६० की पाण्डुलिपि की खोज अपेक्षित है।संक्षेप में यह अपने प्रकार की विशिष्ट तत्वार्थ सूत्र की हिन्दी टीका है। स्वर्णचित्र इसकी विशेषता है। आभार:- लेखकद्वय बाल ब्र. पं. रतनलाल जी शास्त्री, इंदौर, ब्र. अनिल शास्त्री, जबलपुर द्वारा चित्र परिचय एवं वाचन में दिये गये मार्गदर्शन एवं श्री अरविन्द कुमार जैन, प्रबंधक-दि. जैन उदासीन आश्रम के प्रति इतर सहयोग हेतु आभारी हैं।