सम्यग्दर्शन के बाद सम्यग्ज्ञान का मोक्षमार्ग में दूसरा स्थान है। यद्यपि सूत्रकार ने सम्यग्ज्ञान की चर्चा द्रव्यानुयोग में की है, फिर भी सम्यग्चारित्र के निरूपण से पूर्व सम्यग्ज्ञान का सामान्य परिचय प्रासंगिक है। वस्तुओं को यथारीति जैसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। दृढ़ आत्मविश्वास के अनन्तर ज्ञान में सम्यक् पना आता है। यों तो संसार के पदार्थों का ज्ञान हीनाधिक रूप में प्रत्येक व्यक्ति को होता है, पर उस ज्ञान का आत्मविकास के लिए उपयोग करना बहुत ही कम लोग जानते हैं। सम्यग्दर्शन के साथ उत्पन्न हुआ ज्ञान आत्म विकास का कारण होता है। स्व और पर का भेद विज्ञान यर्थाथत: सम्यग्ज्ञान है। हेय—उपादेय का विवेक करना इसका मूल कार्य है।
सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान के भी आठ अंग निरूपित किये गये हैं।
१. शब्दाचार—मूल ग्रंथ के शब्दों, स्वर, व्यञ्जन और मात्राओं को शुद्ध उच्चारण पूर्वक पढ़ना।
२. अर्थाचार—शास्त्र की आवृत्ति मात्र न करके उसका अर्थ समझकर पढ़ना।
३. तदुभयाचार—अर्थ समझते हुए शुद्ध उच्चारण सहित पढ़ना।
४. कालाचार—शास्त्र पढ़ने योग्य काल में ही पढ़ना, अयोग्य काल में नहीं। दिग्दाह, उल्कापात, सूर्यचन्द्र ग्रहण, सन्ध्याकाल आदि में शास्त्र नहीं पढ़ना चाहिए।
५. विनयाचार—द्रव्य, क्षेत्र आदि की शुद्धि के साथ विनयपूर्वक शास्त्र अभ्यास करना।
६. उपधानाचार—शास्त्र के मूल एवं अर्थ का बार बार स्मरण करना, उसे विस्मृत नहीं होने देना अथवा नियम विशेष पूर्वक पठन—पाठन करना उपाधानाचार है।
७. बहुमानाचार—ज्ञान के उपकरण एवं गुरुजनों की विनय करना।
८. अनिह्नवाचार—जिस शास्त्र या गुरु से ज्ञान प्राप्त किया है, उसका नाम न छिपाना।
उक्त आठ अंगों के पालन से सम्यग्ज्ञान पुष्ट एवं परिष्कृत होता है।
सम्यक्ज्ञान के पाँच भेद हैं। मति, श्रुत, अवधि , मन:पर्यय और केवलज्ञान।
मतिज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। इसके चार भेद हैं। अवग्रह ईहा अवाह और धारणा। विषय और विषयी के सन्निपात/सम्पर्क के अनन्तर ‘‘आदितम कुछ है’’ इस प्रकार के अर्थबोध को अवग्रह कहते हैं। अवग्रह के द्वारा ज्ञात पदार्थ के विषय में और स्पष्ट जानने की इच्छा की ईहा कहते हैं। ईहा में निर्णय की ओर झुकाव होता है। ईहा के बाद एक निर्णय पर पहुँचना अवाय है। अवाय द्वारा गृहीत अर्थ को संस्कार के रूप में धारण कर लेना ताकि कालान्तर में उसकी स्मृति रह सके, धारणा है। पदार्थ ज्ञान का यही क्रम है। ज्ञात वस्तु के ज्ञान में यह क्रम बड़ी दु्रतगति से चलता है।
पूर्वोक्त अवग्रह ज्ञान दो प्रकार का होता है। ‘‘अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह’’ व्यंजन अर्थात् अव्यक्त अथवा अस्पष्ट पदार्थों का ज्ञान व्यंजनावग्रह है। यह चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों द्वारा ही होता है। व्यक्त अथवा स्पष्ट शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाला ज्ञान अर्थावग्रह कहलाता है। यह पाँचों इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है। जैसे-मिट्टी के नये घड़े पर पानी की बूंदे डालने पर वह गीला नहीं होता परन्तु लगातार जल बिन्दुओं को डालते रहने पर वह गीला हो जाता है। उसी प्रकार व्यक्त ग्रहण के पहले अव्यक्त ज्ञान व्यंजनावग्रह है और व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह है।
बहु-बहुविधादि पदार्थों की अपेक्षा मतिज्ञान बारह प्रकार का होता है तथा विस्तार से इन्हीं भेदों की संख्या ३३६ हो जाती है।
मतिज्ञान के पश्चात् जो चिन्तन-मनन द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। मतिज्ञान द्वारा पदार्थ के विषय में या उसके संबंध से अन्य वस्तु के विषय में जो विशेष चिन्तन आरंभ होता है यह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के लिए शब्द, श्रवण या संकेत आवश्यक है। अमुक शब्द का अमुक अर्थ में संकेत है या जानने के बाद ही उस शब्द के द्वारा उसके अर्थ का बोध होता है। शब्द, श्रवण, संकेत मतिज्ञान है। उसके बाद शब्द और अर्थ के वाच्य वाचक संबंध के आधार पर होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। इसलिए मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य। मतिज्ञान के अभाव में श्रुतज्ञान संभव नहीं है।
प्राचीन आगम की भाषा में श्रुतज्ञान का अर्थ है वह ज्ञान जो श्रुत अर्थात् शास्त्र से संबंधित हो। आप्त/वीतरागी पुरुषों द्वारा रचित आगम या शास्त्रों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं।
इस श्रुतज्ञान के दो भेद हैं-अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य। अंग प्रविष्ट के बारह भेद हैं तथा अंग बाह्य अनेक भेद वाला है।
इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही मर्यादापूर्वकरूपी पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान दो प्रकार का होता है। भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय। देवों और नारकियों को यह ज्ञान जन्म के क्षणों में ही स्वभावत: प्राप्त हो जाता है अतएव वह भव प्रत्यय है। मनुष्य और पशुओं में यह ज्ञान सम्यक् दर्शनादि विशेष गुणों के प्रभाव से ही उत्पन्न होता है। इसलिए इसे गुण प्रत्यय अवधि ज्ञान कहते हें। इसके छह भेद हैं-१. अनुगामी, २. अननुगामी, ३. वर्धमान, ४. हीयमान, ५. अवस्थित, ६. अनवस्थित।
अनुगामी अवधिज्ञान ज्ञाता का अनुसरण करता हुआ छाया की तरह उसके साथ-साथ जाता है। इसके विपरीत अननुगामी अवधिज्ञान क्षेत्र विशेष से पृथक् होने पर छूट जाता है। वर्धमान अवधिज्ञान शुक्लपक्ष की चन्द्रकलाओं की तरह उत्पत्ति के बाद निरन्तर वृद्धिगत होता रहता है। जबकि हीयमान अवधिज्ञान कृष्णपक्ष की चन्द्र कलाओं की तरह निरन्तर घटता रहता है। अवस्थित अवधिज्ञान एक-सी स्थिति में रहता है तथा अनवस्थित अवधिज्ञान अक्रम से कभी एक रूप नहीं रहता है। यह छह भेद स्वामी की अपेक्षा है। विषयक्षेत्र की अपेक्षा अवधिज्ञान के तीन भेद है। देशावधि, परमावधि और सर्वाविधि। इनके विषयक्षेत्र और पदार्थों के ज्ञान में उत्तरोत्तर अधिक विस्तार और विशुद्धि पाई जाती है। देशावधि एक बार होकर छूट भी सकता है और इस कारण वह प्रतिपाती है किन्तु परमावधि और सर्वावधि ज्ञान उत्पन्न होने के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त कभी नहीं छूटते। ये दोनों तद्भव मोक्षगामी मुनियों के ही होते हैं।
दूसरों के मनोगत अर्थ को जानने वाला ज्ञान मन:पर्ययज्ञान है। यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गल द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। चिन्तक जैसा सोचता है मन में उसके अनुरूप पुद्गल द्रव्यों की आकृतियाँ/पर्याएँ बन जाती हैं। वस्तुत: मन:पर्यय का अर्थ है मन की पर्यायों का ज्ञान।
मन:पर्ययज्ञान के दो भेद हैं ‘‘ऋजुमति और विपुलमति’’ ऋजुमति सरल मन, वचन, काय से विचार किए गये पदार्थ को जानता है पर विपुलमति मन:पर्ययज्ञान सरल और कुटिल दोनों तरह से विचार किये गये पदाथों को जानता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति की अधिक विशुद्धि होती है। ऋजुमति एक बार होकर छूट भी सकता है किन्तु विपुलमतीज्ञान केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यंत बना रहता है। इसलिए इसे अप्रतिपाती कहते हैं। दोनों प्रकार का मन:पर्ययज्ञान ऋद्धिधारी मुनियों को ही होता है।
अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा अन्तर है। अवधिज्ञान के द्वारा ज्ञात किये गये पदार्थ के अनन्तवें भाग को मन:पर्ययज्ञान जानता है।
त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्यों और पर्यायों को युगपत् प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। केवलज्ञानी को ही सर्वज्ञ कहते हैं। केवलज्ञानी केवलज्ञान होते ही लोक और अलोक दोनों को जानने लगता है। केवलज्ञान का विषय सर्वद्रव्य और पर्याय है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। समस्त ज्ञानावरण कर्म के समूल विनष्ट होने पर यह ज्ञान उत्पन्न होता है। यह पूर्णत: निरावरण और निर्मल ज्ञान है। इस ज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त क्षायोपशिक ज्ञान विलीन हो जाते हैं। केवलज्ञान आत्मा की ज्ञान शक्ति का पूर्ण विकसित रूप है।