अन्यूनमनतिरिक्तं, याथातथ्यं बिना च विपरीतात्।
नि:सदेहं वेद, यदाहुस्तजज्ञानमागमिन:।।
जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को, न्यूनता रहित, अधिकता से रहित विपरीतता रहित और संशय रहित ज्यों की त्यों जानता है। उसी का नाम सम्यग्ज्ञान है।
इसके पाँच भेद बताये गये हैं।
मतिश्रुतावधिमन: पर्ययकेवलानि ज्ञानम्।
अर्थ—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच सम्यग्ज्ञान हैं।
इन्द्रियों और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है या मनन मात्र मतिज्ञान कहलाता है। श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर निरूप्यमाण पदार्थ जिसके द्वारा सुना जाता हैै; जो सुनता है या सुनना मात्र श्रुतज्ञान कहलाता है। अवाग्धान को अवधि कहते हैं।
अधिकतर नीचे के विषय को जानने वाला होने से अवधि कहलाता है। देव अवधिज्ञान के द्वारा नीचे सप्तम नरक पर्यन्त देखते (जानते) हैं और ऊपर के भाग में अपने विमान के ध्वजदण्ड पर्यन्त ही जानते हैं—अत: अध:भाग का विषय अधिक है। अथवा परिमित विषय को जानता है अत: इसको अवधि कहते हैं। परिमित विषय क्या है? अवधिज्ञानरूपी पदार्थों को ही जानता है—अत: अवधि—मर्यादित पदार्थों को जानने वाला होने से अवधिज्ञान कहलाता है। मन का साहचर्य होने से दूसरों के मनोगत अर्थ को मन कहते हैं। मन का पर्ययण अर्थात् परिणमन करने वाले ज्ञान को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं।
यह मन:पर्ययज्ञान केवल क्षयोपशम शक्ति से अपना काम करता है तो भी केवल स्व और पर के मन की अपेक्षा उसका व्यवहार किया जाता है जैसे—आकाश में चन्द्रमा को देखो। यहाँ आकाश की अपेक्षा मात्र होने से ऐसा व्यवहार किया जाता है। उसी प्रकार मनोव्यापी अर्थ को मन कहकर मन:पर्ययज्ञान की व्युत्पत्ति होती है। जिसके लिए बाह्य और अभ्यन्तर तप के द्वारा मुनिजन मार्ग का केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है। अथवा केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय (बिना किसी सहाय्य के होने वाले) ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं।
केवलज्ञान की प्राप्ती सबसे अन्त में होती है अत: सूत्र में केवलज्ञान को अन्त में ग्रहण किया है। मन:पर्ययज्ञान के समीप में केवलज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए मन:पर्यय के समीप में केवलज्ञान को ग्रहण किया है।
इन दोनों का संयम ही एक आधार है, दोनों यथाख्यात चारित्र होने से होते हैं। केवलज्ञान से अवधिज्ञान को दूर रखा है।
प्रत्यक्ष तीन ज्ञान के पहले परोक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का कथन इसलिए किया है कि इन दोनों ज्ञानों की प्राप्ति सुगम है। सभी प्राणी दोनों ज्ञानों का अनुभव करते हैं। मति और श्रुतज्ञान की पद्धति श्रुतपरिचित और अनुभूत है। सर्व प्राणियों के द्वारा ये दोनों ज्ञान प्राय: करके प्राप्त किये जाते है। मति, श्रुत पद्धति के वचन से सुनकर उसके एक बार स्वरूप—संवेदन को परिचित कहते हैं। तथा अशेष—विशेष से बार—बार चित्त में उस स्वरूप की भावना करने को अनुभूत कहते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान हैं। इनके भेद आगे कहेंगे।
इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध को सन्निकर्ष कहते हैं। कोई इन्द्रिय को प्रमाण मानते हैं। परन्तु सन्निकर्ष या इन्द्रियादि प्रमाण नहीं हो सकते अत: इन्द्रिय और सन्निकर्ष की प्रमाणता का निराकरण करने के लिए अधिकारप्राप्त मत्यादिक ज्ञान ही प्रमाण हैं, इस बात की सूचना करने के लिए यह सूत्र कहते हैं—
तत्प्रमाणे।
अर्थ—उपर्युक्त मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँचों ज्ञान ही प्रमाण हैं।
ऊपर कथित मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान ही प्रमाण हैं। ये प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार के होते हैं।
इन्द्रियों के द्वारा सर्व पदार्थों का सम्बन्ध नहीं होता है, सम्बन्ध नहीं होने से सर्व पदार्थ जाने नहीं जाते अत: सर्व पदार्थों को नही जानने से सर्वज्ञ भी नहीं हो सकता, क्योंकि जो सब को जानता है, वही सर्वज्ञ होता है। इन्द्रियाँ भी प्रमाण नहीं हो सकतीं, क्योंकि इन्द्रियों को प्रमाण मान लेने पर भी उपर्युक्त दोष आता है अर्थात् सर्वज्ञ का अभाव होता है, क्योंकि चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय अल्प है और ज्ञेय अनन्त होने से अपरिमित हैं अथवा सर्व इन्द्रियों के सर्व पदार्थों के सन्निकर्ष का अभाव भी है—क्योंकि चक्षु और मन प्राप्यकारी नहीं है। ‘‘न चक्षुरनिन्द्रियाभ्यां’’ इस सूत्र के द्वारा आगे चक्षु और मन के अप्राप्यकारित्व का वर्णन करेगें।
राग—द्वेषरूप परिणामों का नहीं होना उपेक्षा है। अन्धकार के सदृश अज्ञान का नाश फल कहलाता है। अर्थात् किसी पदार्थ को जान लेने पर उस विषयक अज्ञान का दूर हो जाना ही प्रमाण का फल है।
प्रमाण शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है—‘प्रमिणोति इति प्रमाणं-’ जो सम्यक् प्रकार से जानता है, वह प्रमाण है
प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद बताने के लिए ‘‘तत्प्रमाणे’’ सूत्र में दो वचन का प्रयोग किया है। इस सूत्र में ‘‘प्रमाणे’’ यह द्विवचन का प्रयोग अन्य वादियों के द्वारा परिकल्पित ज्ञान की संख्याओं का निराकरण करने के लिए भी जानना चाहिए।
जैमिनि ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणों को पृथक्—पृथक् प्रमाण माना है।
पर वस्तुत: इनका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण में ही हो जाता है। पहले कहे गये पाँच प्रकार के ज्ञान दो प्रमाणों में आ जाते हैं इस प्रकार सुनिश्चित हो जाने पर ही वे दो प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान आदिक भी हो सकते हैं, अत: इस कल्पना को दूर करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं—
आद्ये परोक्षम्।
अर्थ—पहले के दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, क्योंकि इन्द्रियों से होते हैं, इसलिए परोक्ष प्रमाण हैं।
आदि शब्द प्राथम्यवाची है, जो आदि में हो, वह आद्य कहलाता है। अत: आदि के मति और श्रुत ये दो ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा लेकर अक्षररूप आत्मा के इन्द्रिय और मन तथा प्रकाश और उपेदशादिक बाह्य निमित्तों की अपेक्षा से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं अत: ये परोक्ष कहलाते हैं। आचार्यदेव के ‘‘तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं’’ ‘श्रुतमनिन्द्रियस्य’’ इन सूत्रों से मति और श्रुतज्ञान परोक्ष सिद्ध होते हैं।
प्रत्यक्षमन्यत्।
अर्थ—शेष तीन अर्थात् अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। (क्योंकि ये ज्ञान पर निमित्त की अपेक्षा के बिना स्वयं आत्मा द्वारा होते हैं।)
अक्ष् शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है—अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा। अक्ष् व्याप् और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं इसलिए अक्ष का अर्थ आत्मा होता है। इस प्रकार क्षयोपशम वाले अवधि, मन:पर्ययज्ञान या आवरणरहित केवलज्ञान आत्मा के प्रति जो नियमत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रियादिक की अपेक्षा से न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरण रहित आत्मा से होते हैं, वे अवधि, मन:पर्यय और केवल ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाते हैं।
मति: स्मृति संज्ञाचिंताभिनिबोधइत्यनर्थान्तरम्।
अर्थ—मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध इत्यादि मतिज्ञान के दूसरे नाम हैं।
मननं मति:। स्मरणं स्मृति। संज्ञान संज्ञा। चिन्तनं—चिन्ता और अभिनिबोधनं अभिनिबोध यह इनकी व्युत्पत्ति है। जिस प्रकार इन्दन क्रीड़ा करनेवाला होने से इन्द्र, समर्थ होने से शुक्र, पुर—नगर आदि की रचना करने वाला होने से पुरन्दर कहलाता है। जिस प्रकार इन्दन आदि क्रिया की अपेक्षा भेद होने पर भी समभिरूढ़नय की अपेक्षा इन्द्र आदि शचीपति के ही नामान्तर हैं, उसी प्रकार मति आदि में नामभेद होने पर भी ये सब मतिज्ञान के ही भेद हैं, क्योंकि ये मति, स्मृति आदि अन्तरंग निमित्त मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम होने पर ही होते हैं। इनका विषय भी एक है और श्रुत आदि ज्ञानों में इनकी प्रवृत्ति नहीं होती है। ये सब मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम निमित्त होने वाले उपयोग का उल्लंघन नही करते हैं तथा मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध के द्वारा जो अर्थ कहा जाता है वह यद्यपि एक ही है तथापि भेद कहा जाता है। बहिरंग और अन्तरंग अर्थों को जो आत्मा स्फुटरूप से मानता है (जानता है) वह अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणात्मक मति कहलाती है। पाँच इन्द्रिय और मन से जो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाज्ञान होता है वह मति हैं। स्वसंवेदन और इन्द्रियज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहे जाते हैं। तत् (वह) इस प्रकार अतीत अर्थ के स्मरण करने को स्मृति कहते हैं। ‘यह वही हैं’, यह उसके सदृश है,’ इस प्रकार पूर्व और उत्तर अवस्था में रहने वाली पदार्थ की एकता, सदृशता आदि के ज्ञान को संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) कहते हैं। किन्हीं दो पदार्थों में कार्यकारण आदि सम्बन्ध के ज्ञान को चिन्ता (तर्क) कहते हैं। जैसे—अग्नि के बिना धूम नहीं होता है, आत्मा के बिना शरीरव्यापार, वचन आदि नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार विचार कर उक्त पदार्थों में कार्य कारण सम्बन्ध का ज्ञान करना तर्क है। एक प्रत्यक्ष पदार्थ को देखकर उससे सम्बन्ध रखने वाले अप्रत्यक्ष अर्थ का ज्ञान करना अभिनिबोध (अनुमान) है, जैसे—पर्वत में धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान करना। आदि शब्द से प्रतिभा, बुद्धि, मेघा आदि को भी मतिज्ञान जानना चाहिए । दिन या रात्रि में कारण के बिना ही जो एक प्रकार का स्वत: प्रतिभास हो जाता है, वह प्रतिभा है। जैसे प्रात: मुझे इष्ट वस्तु की प्राप्ति होगी या कल मेरा भाई आयेगा, आदि। अर्थ को ग्रहण करने की शक्ति को बुद्धि कहते हैं और पाठ को ग्रहण करने की शक्ति का नाम मेधा है। कहा भी है—भविष्यत् को जानने वाली मति कहलाती है, तत्कालदर्शिनी बुद्धि होती है, अतीत काल को जानने वाली प्रज्ञा और तीनों कालों को जानने वाली मेधा है।
तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।
अर्थ:—वह मतिज्ञान पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है।
जो इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानता है उसे मतिज्ञान कहते हैं।
जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में लिंग अर्थात् कारण है उसे इन्द्रिय कहते हैं। जैसे लोक में धूम अग्नि का ज्ञान कराने में कारण है। (वह अग्नि का लिंग है) उसी प्रकार स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ आत्मा को ज्ञान कराने में कारण हैं, अत: वे आत्मा का लिंग हैं। जैसे अग्नि के बिना धूम नहीं होता, उसी प्रकार आत्मा के बिना इन्द्रियाँ नहीं होतीं—अत: ज्ञाता, कर्त्ता, आत्मा का अस्तित्व इन्द्रियोें के द्वारा जाना जाता है। अथवा नामकर्म को इन्द्र कहते हैं और उस नामकर्मरूपी इन्द्र के द्वारा जो रची जाती हैं, वे इन्द्रियाँ कहलाती हैं। वे इन्द्रियाँ स्पर्शन आदि पाँच प्रकार की हैं—‘‘स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुश्रोत्राणि’’ अर्थात् स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत। अनिन्द्रिय मन और अन्त:करण ये एकार्थवाची हैं।
अवग्रहेहावायधारणा:।
अर्थ—मतिज्ञान के अवग्रह (सामान्य अवलोकन), ईहा (विशेष विचार), अवाय (निर्णय) और धारणा (स्मरण शक्ति) ये चार मुख्य भेद हैं।
अवग्रहण को वा सामान्य ग्रहण को अवग्रह, उसको विशेष जानने की चेष्टा ईहा, निश्चय करना अवाय और जाने हुए को नहीं भूलना धारणा है। ये अवग्रहादि मतिज्ञान के चार भेद हैं। अवग्रह के पूर्व सन्निपातमात्र को दर्शन कहते हैं। अवग्रह तो मतिज्ञान का भेद है। सन्निपातलक्षण दर्शन के बाद होने वाले प्रथम ग्रहण को अवग्रह कहते हैं।
विषय और विषयी का सन्निपात (सम्बन्ध) होने पर दर्शन होता है। उस दर्शन के पश्चात् जो अर्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है, जैसे चक्षु इन्द्रिय के द्वारा यह ‘शुक्लरूप है’ ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है। अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों के विशेष को जानने की इच्छा ईहा कहलाती है। जैसे जो मैंने शुक्लरूप देखा वह बलाका (मादा बगुला) है कि पताका (ध्वजा) है? इस प्रकार विशेष को जानने की इच्छा होना ईहा ज्ञान है। उसके पश्चात् यह उछल रही है, पंख को इधर—उधर पैâला रही है, इससे जाना जाता है कि यह बलाका ही है, पताका नहीं है। इस प्रकार याथात्म्य का अवगमन—वस्तुस्वरूप का निर्धारण (निश्चय) अवाय ज्ञान कहलाता है। जानी हुई (सम्यक् प्रकार से परिज्ञात) वस्तु का जिस कारण से कालान्तर में विस्मरण होना नहीं उसे धारणा कहते हैं। जैसे—जो बलाका मैंने प्रात:काल देखी थी, यह वही बलाका है, इस प्रकार का ज्ञान धारणा लक्षण ज्ञान है अर्थात् अवाय से जाने हुए पदार्थ को कालान्तर में नहीं भूलना ही धारणा है। धारणाज्ञान स्मृति का कारण है। इस प्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का उपन्यास क्रम किया है।
बहुबहुविधक्षिप्रानि: सृताऽनुक्तध्रुवाणां सेतराणां।
अर्थ—वह मतिज्ञान बहुत, बहुत प्रकार, क्षिप्र (शीघ्र), अनि:सृत (अप्रकट), अनुक्त (नहीं कहा हुआ), ध्रुव (स्थिर) तथा इन छहों के उल्टे प्रकार अर्थात् एक, एक प्रकार, अक्षिप्र, (धीमा), नि:सृत (प्रकट), उक्त (कथित) और अध्रुव (अस्थिर) होता है।
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा क्रियाविशेष वा क्रिया के भेद कहे हैं। उन ईहा आदि क्रियाओं की अपेक्षा बहु आदि को कर्म का निर्देश किया है—वा अवग्रह आदि ज्ञान के बहु आदि और उनसे विपरीत एकादि विषय (जानने योग्य) हैं। यहाँ बहु शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची है, ऐसा जानना चाहिए। जैसे—संख्यावाची एक, दो, तीन, बहु आदि। वैपुल्य (परिणामवाची) जैसे बहुत से भात, बहुत सी दाल आदि। अनेक पदार्थों को बहुविध कहते हैं। जिसका ज्ञान शीघ्र हो वह क्षिप्र है। जिस पदार्थ के एकदेश को देखकर सर्वदेश का ज्ञान हो जाता है वह अनि:सृत है। वचन से बिना कहे जिस वस्तु का ज्ञान हो जाय वह अनुक्त है। बहुत काल तक जिसका ज्ञान यथार्थ बना रहे वह ध्रुव है। एक पदार्थ का ज्ञान एक और एक प्रकार के पदार्थों के ज्ञान को एकविध ज्ञान कहते है। जिसका ज्ञान शीघ्र न हो वह अक्षिप्र है। प्रकट पदार्थों के ज्ञान को नि:सृत कहते हैं। वचन को सुनकर अर्थ का ज्ञान होना उक्त है। जिसका ज्ञान बहुत समय तक एक सा न रहे, वह अध्रुव है। अत: इसका यह अर्थ है—बहु का अवग्रह, उससे विपरीत अल्प का अवग्रह है। बहुविध का अवग्रह, बहुविध का प्रतिपक्षीभूत— एकविध का अवग्रह, क्षिप्र का अवग्रह, अक्षिप्र का अवग्रह, अनि:सृत का अवग्रह, नि:सृत का अवग्रह, ध्रुव का अवग्रह, अध्रुव का अवग्रह—इस प्रकार१२ प्रकार का अवग्रह है, बारह प्रकार की ईहा है। बारह प्रकार का अवाय और बाहर प्रकार का धारणा ज्ञान है। इन सब का जोड़ करने से १२²४·४८ भेद होते हैं। इन अड़तालीस भेदों को पाँच इन्द्रियों और मन इन छह से गुणा करने पर ४८²६·२८८ (दो सौ अठासी) भेद मतिज्ञान के होते हैं। इस प्रकार बहु आदि अवग्रह छह प्रकार के हैं। इन बहु आदि छह के प्रभेदों का ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के प्रकर्ष क्षयोपशम से होता है और ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के अप्रकर्ष से एक आदि पदार्थों का ज्ञान होता है। वा क्षयोपशम मात्र से होता है। इसलिए पूज्य होने से बहु आदि को प्रथम ग्रहण किया गया है। क्योंकि कातन्त्र व्याकरण में पूज्य का ग्रहण प्रथम होता है। अत: बहु आदि श्रेष्ठ होने से बहु आदि को प्रथम ग्रहण किया है।
यदि अवग्रहादि ज्ञान बहुआदि विषयों के स्वीकार करने वाले होते हैं तो बहुआदि विशेषण किसके है ? ऐसा पूछने पर आचार्य सूत्र कहते हैं—
अर्थस्य।
अर्थ—उपर कहे गये मतिज्ञान के भेद अर्थ यानि पदार्थ के होते हैं।
चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयभूत स्थिर और स्थूल पदार्थ को अर्थ कहते हैं। वा द्रव्य को भी अर्थ कहते हैं। बहु आदि विशेषणों से युक्त अर्थ के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान होते हैं, ऐसा सम्बन्ध लगाना चाहिए।
अब, अव्यक्त वस्तु का अवग्रह ही होता है—ईहा, अवाय, धारणा नहीं, इस अर्थ का प्रतिपादन करने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं—
व्यञ्जनस्यावग्रह:।
अर्थ:—व्यंजन पदार्थ (अर्थात् अव्यक्त अप्रगट रूप शब्दादि पदार्थों का अवग्रह ज्ञान होता है। (ईहा, अवाय और धारणा रूप ज्ञान नहीं होते)
व्यंजन (अव्यक्त शब्दादि पदार्थों) का अवग्रह ही होता है। वह अवग्रह बहु—बहुविध आदि के भेद से बारह प्रकार का है। बहु आदि बारह प्रकार के अव्यक्त पदार्थों का अवग्रह ज्ञान चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से होता है। अत: व्यञ्जनावग्रह मतिज्ञान के १२²४·४८ भेद होते हैं और मतिज्ञान के पूर्वोक्त दो सौ अठासी भेद मिला देने से मतिज्ञान के कुल तीन सौ छत्तीस भेद हो जाते हैं।
अव्यक्त पदार्थ का अवग्रह ही होता है, ईहा, अवाय आदि नहीं होते हैं, इसप्रकार का नियम करने के लिए इस सूत्र की रचना की गई है। जैसे माटी का नवीन सकोरा जल के दो तीन कणों (बूंद) से सींचने पर गीला नहीं होता और पुन: पुन: सींचने पर वह धीरे—धीरे गीला हो जाता है, उसी प्रकार श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा गृहीत शब्दादिरूप से परिणत पुद्गल एक, दो, तीन आदि क्षणों में व्यक्त नहीं होते हैं, परन्तु पुन:पुन: ग्रहण करने पर (अवग्रह होने पर) व्यक्त हो जाते हैं। अत: जब तक व्यक्त अवग्रह नहीं होता है तब तक अव्यक्त पदार्थ का अवग्रह ही होता है। परन्तु उत्तर काल में व्यक्त हो जाने पर उसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान भी होते है।
सब इन्द्रियों के द्वारा समानरूप से व्यञ्जनावग्रह के प्राप्त होने पर जिन इन्द्रियों के द्वारा व्यञ्जनावग्रह सम्भव नहीं है, उन दो इन्द्रियों का निषेध करने के लिए सूत्र कहा है कि—
न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम्।
अर्थ—चक्षु और मन के द्वारा व्यंजन अवग्रह नहीं होता है।
चक्षु और मन के द्वारा व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है, क्योंकि चक्षु अप्राप्त, योग्य दिशा में अवस्थित, युक्त, सन्निकर्ष के योग्य देश में अवस्थित और बाह्य प्रकाश आदि से व्यक्त पदार्थ को ही ग्रहण करती है और मन भी अप्राप्त अर्थ को ग्रहण करता है, अत: चक्षु और मन के द्वारा व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है।
इस प्रकार यहाँ इस पाठ में पाँच सम्यग्ज्ञानों के विषय में बतलाकर प्रथम मतिज्ञान के ३३६ भेद कहे हैं। तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ एवं उनकी टीकाओं से इनका विशेष वर्णन पठनीय है।