महानुभावों! आज मैं आपको बताऊंगी कि-सम्यग्ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? यह सम्यग्ज्ञान स्वाध्याय से और गुरूओं के प्रसाद से प्राप्त होता है। स्वाध्याय के पांच भेद हैं-
वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशा: ।।२५।।
निर्दोष ग्रन्थ और उसके अर्थ का पढ़ना-पढ़ाना वाचना है।संशय को दूर करने के लिए और समझे हुए में दृढ़ता लाने के लिए गुरु आदि से पूछना पृच्छना है। पढ़े हुए श्लोक आदि के अर्थ का मन में बार-बार चिन्तन-अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। पढ़े हुए को शुद्ध उच्चारणपूर्वक बार-बार रटना आम्नाय है और धर्मकथा आदि को सुनाना धर्मोपदेश है। ये पांचो प्रकार के स्वाध्याय ज्ञान की वृद्धि तथा चारित्र को प्राप्त कराने वाले हैं। स्वाध्याय को छह प्रकार के अंतरंग तप में लिया है और इसकी बहुत ही महिमा बताई है। यथा-
सज्ज्ञायं कुव्वंतो पंचिंदियसंपुडो तिगुत्तो य।
हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू ।।७८।।
विनय सहित स्वाध्याय करते हुए मुनि के पांचों इंद्रियों की प्रवृत्ति रूक जाती है और मन, वचन, काय भी वश में हो जाते हैं तथा मन एकदम एकाग्र हो जाता है।
वारस विधह्मि य तवे सब्भतर बाहिरे कुसलदिट्ठे ।
णवि अत्थि ण विय होहदि सज्ज्ञायसम तवो कम्मं ।।७९।।
तीर्थंकर गणधर देव आदि द्वारा कहे गये अंतरंग और बहिरंग ऐसे बारह प्रकार के तपों में स्वाध्याय के समान तप न अन्य कोई हुआ है और न होगा ही।
सूई जहा ससुत्ता ण, णस्सदि दु पमाददोसेण।
एवं ससुत्तपुरिसो ण णस्सदि तहा पमाददोसेण ।।८०।।
जिस प्रकार सूत्र-डोरे से सहित सुई यदि प्रमाद से कहीं गिर भी जाए तो भी मिल जाती है, उसी प्रकार सूत्र-शास्त्र के ज्ञान से युक्त पुरूष यदि प्रमाद दोष के युक्त भी है, अनशन आदि तपश्चरण से रहित है फिर भी संसार में नहीं डूबता है अपना हित अवश्य कर लेता है। इसी मूलाचार में कहा है-
विणएण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होइ विस्सरिदं।
तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आहवदि।।
जिसने विनयपूर्वक श्रुत को पढ़ा है यदि कदाचित वह प्रमाद से भूल भी जाता है तो भी वह पढ़ा हुआ श्रुतज्ञान अगले भव में ज्यों की त्यों उपलब्ध हो जाता है तथा केवलज्ञान तक प्राप्त करा देता है। अनगार धर्मामृत में स्वाध्याय को ध्यान के बराबर महत्वशाली बतलाया गया है-
मनो बोधाधीन विनयविनियुत्तंकं निजवपु: ।
वच: पाठयत्तं करणगणमाधाय नियतम् ।।
दधान: स्वाध्यायं कृतपरिणतिर्जैनवचने ।
करोत्यात्मा कर्मक्षयमिति समाध्यंतरमिदम् ।।
जिनेन्द्रदेव के वचनों के अध्ययन में जिसकी परिणति हो रही है ऐसा मनुष्य जब स्वाध्याय करता है उस समय उसका मन उस पढ़ते हुए पंक्तियो के अर्थ के आश्रित हो जाता है अर्थात् उस ज्ञान में तन्मय हो जाता है। शरीर विनय से युक्त अचल रहता है।
वचन भी उस पाठ के आधीन हो जाते हैं अर्थात् उस पाठ को पढ़ने में लग जाने से अन्य कुछ नहीं बोलते हैं और सभी इंद्रियाँ भी अपने विषयों की प्रवृत्ति छोड़कर उसी में तन्मय हो जाती हैं। इस प्रकार जो स्वाध्याय करता है उसके भी कर्मों का क्षय (निर्जरा) होता है। अतएव यह स्वाध्याय एक ध्यान ही है ऐसा समझना चाहिए। स्वाध्याय से असंख्यात गुणश्रेणी कर्मों की निर्जरा होती है।
यथा-
‘‘सुत्त पुण समयं पडि असंखेज्जगुणसेढीए पावं।
गलिय पच्छा सत्वकम्मक्खयकारणमिदि।।
सूत्र प्रतिसमय असंख्यात गुणित-श्रेणी रूप से पापों का नाश करके उसके बाद संपूर्ण कर्मों के क्षय का कारण होता है।
अर्थात् जिस समय सूत्र गंथों का स्वाध्याय करते हैं उस समय असंख्यातगुणित श्रेणी रूप कर्मों का नाश होता है और सूत्र के ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति का कारण ऐसा शुक्लध्यान भी प्रकट हो जाता है क्योंकि ज्ञान ही निश्चल अवस्था को प्राप्त हो जाने पर ध्यान कहलाता है जैसे कि न हिलती हुई अग्नि की शिखा निश्चल दिखती है।
मैं आपको सम्यग्ज्ञान की महिमा के एक-दो उदाहरण सुनाती हूँ- पुँड्रवर्धन देश के कीटापुर नगर के राजा पद्मरथ के समय वहां पर सोमशर्मा ब्राह्मण रहता था, इसकी भार्या का नाम श्रीदेवी था। इनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम ‘‘भद्रबाहु’’ रखा। एक समय अनेक बालकों के साथ वह बालक गोली खेल रहा था।
तभी उसने अपनी चतुराई से एक पर एक उस एक ऐसी चौदह गोलियां चढ़ा दीं। उसी समय श्री गोवर्धनाचार्य महामुनि गिरनार की यात्रा को जाते हुए इधर से निकले, उन्होंने भद्रबाहु के इस खेल की चतुराई को देखकर अपने निमित्त ज्ञान से यह जान लिया कि ‘‘यह बालक चौदह महापूर्वों का ज्ञाता श्रुतकेवली होने वाला है।’’
अत: वे उस बालक को साथ लेकर उसके पिता के घर गये। उससे बोले-तुम हमें अपना यह बालक विद्याध्ययन कराने के लिए दे दो, इसकी बुद्धि बहुत ही तीक्ष्ण है। सोमशर्मा ने बड़ी खुशी से अपना बालक गुरू के सुपुर्द कर दिया। आचार्यदेव ने बालक को सर्वविद्याओं में निष्णात बना दिया पुन: उसे वापस घर भेज दिया। परन्तु भद्रबाहु ने जो गुरू रूपी सूर्य से सम्यग्ज्ञान रूपी ज्योति को पाया था उससे उसका मोहरूपी अंधकार नष्ट हो चुका था अत: वह घर में आकर जैसे-तैसे माता-पिता की अनुमति लेकर पुन: गुरू के चरण सान्निध्य में आ गया और गुरू से दैगम्बरी दीक्षा ले ली।
कालांतर में ये महामुनि ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों के ज्ञाता अंतिम श्रुतकेवली हुए हैं। यह है गुरूमुख से अध्ययन करने का माहात्म्य। मैनासुन्दरी का उदाहरण जगत्प्रसिद्ध है। उज्जयिनी के राजा की दो पुत्रियां थीं। इनमें से बड़ी सुरसुन्दरी ने अन्य उपाध्याय के पास पढ़ा था और मदनसुन्दरी-मैनासुन्दरी ने मुनिश्री समाधिगुप्त के पास विद्याध्ययन किया था।
फलस्वरूप कर्मसिद्धांत पर अटल रहने से उसके पिता ने क्रुद्ध होकर उसका विवाह कोढ़ी राजकुमार श्रीपाल के साथ कर दिया तब भी मैनासुन्दरी ने धैर्य नहीं छोड़ा और कर्म सिद्धांत पर अडिग रही। मुनिराज के पास पहुँचकर रोग शांति का उपाय पूछा और मुनि ने सिद्धचक्र विधान के अनुष्ठान का उपदेश दिया।
मैना ने विधिवत् सिद्धचक्र का अनुष्ठान किया और भगवान का गन्धोदक लाकर पति के शरीर पर छिड़का तथा अन्य और पास सौ कुष्ठी योद्धाओं के शरीर पर छिड़का जिससे सभी का कुष्ठ रोग दूर हो गया तथा धर्म की बहुत ही प्रभावना हुई। आज भी सिद्धचक्र के पाठ के अनंतर प्रतिदिन भक्त लोग मैनासुन्दरी का नाम बड़े आदर से लेते हैं-
श्री सिद्धचक्र का पाठ करो दिन आठ ठाठ से प्राणी।
फल पायो मैना रानी ।।१।।
भव्यात्माओं! स्वाध्याय और धर्म ग्रंथों के पठन से प्रगट हुआ ज्ञान संपूर्ण पदार्थों की जानकारी करा देता है क्योंकि मति और श्रुतज्ञानरूपी तथा अरूपी सभी पदार्थों को और उनकी कुछ पर्यायों को जानने में सक्षम है किन्तु अवधि और मन:पर्ययज्ञान मात्र रूपी पदार्थों को ही जानते हैं। इसलिए श्रुतज्ञान की महिमा अपरम्पार है। कहा भी है-
श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सर्वपदार्थों को प्रकाशित करने वाले हैं। इन दोनों में यदि अन्तर है तो इतना ही है कि केवलज्ञान सभी पदार्थों को साक्षात् जानता है और श्रुतज्ञान परोक्ष जानता है। इसी अभिप्राय से सरस्वती की स्तुति में कहते हैं-
नमस्तस्यै सरस्वत्यै विमलज्ञानमूर्तये।
विचित्रालोकयात्रेयं यत्प्रसादात्प्रवर्तते।।
विमलज्ञान की मूर्ति ऐसी सरस्वती देवी को नमस्कार हो जिसके प्रसाद से यह विचित्र लोक यात्रा प्रवृत्त होती है अर्थात् जिसके पढ़ने से या जिसके अनुग्रह से सारे तीन लोक का ज्ञान हो जाता है।
ज्ञान का फल क्या है?
उपेक्षाफलमाद्स्य शेषस्यादानहानधी: ।
पूर्वं वा ज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे।।१०२।।
केवलज्ञान का फल उपेक्षा है अर्थात् राग और मोह का अभाव है। शेष प्रमाण ज्ञानों का फल है, अपने-अपने विषय में अज्ञान का नाश हो जाना यह तो फल औत्सर्गिक है। उपादेय-हेय पदार्थों में ग्रहण और त्याग की बुद्धि का होना तथा इस प्रकार ज्ञान का फल अज्ञान का अभाव होना तो है ही है साथ ही प्रीति-आनंद का हो जाना भी फल कहा गया है यही कारण है कि ज्ञान के साथ सुख का बहुत बड़ा सम्बन्ध है। यथा-
अर्थ का बोध हो जाने पर प्रीति देखी जाती है। यद्यपि यह आत्मा ज्ञान स्वभाव वाला है फिर भी कर्म के मल से मलिन होने से इंद्रियों के अवलंबन से अर्थ का निश्चय करता है तब इसे प्रीति-हर्ष, आनंद उत्पन्न होता है यह प्रीति ही प्रमाण-ज्ञान का फल है ऐसा कहा गया है। स्वाध्याय मेें गुरूपरम्परा का बहुत ही महत्व है बिना गुरू परम्परा के किया गया अध्ययन प्राय: अर्थ का अनर्थ कर देता है। कहा भी है-
शास्त्राग्नौ मणिवद् भव्य: विशुद्धो भाति निर्वृत:।
अंगारवत्खलो दीप्तो मली वा भस्म वा भवेत् ।।
शास्त्र एक अग्नि है उसमें भव्य जीव मणी के समान शुद्ध होकर चमकने लगता है और खल-दुुष्ट जीव उस अग्नि में अंगारे के समान जलता है वह या तो मलिन कोयला हो जाता है या भस्म-राख हो जाता है। इनके उदाहरण ‘अजैर्यष्टव्यं’ जैसे सूत्रों का गलत अर्थ करने वाले ‘पर्वत’ जैसे पापात्मा प्रसिद्ध हैं। इसीलिये गुरू परम्परा से पढ़ने का और उसी अनुरूप अर्थ करने का बहुत ही बड़ा महत्व है। कहा भी है-
ग्रंथार्थतो गुरू परम्परया यथावत् ।
श्रुत्वावधार्य भवभीरूतया विनेयान् ।।
ये ग्राह्ययन्युभयनीति बलेन सूत्र।
रत्नत्रयप्रणयिनो गणित: स्तुमस्तान् ।।४।।
जो गुरू परम्परा से ग्रंथ अर्थ और उभयरूप सूत्र को यथावत् सुनकर उसे अवधारण करके स्वयं संसार से भयभीत होकर शिष्यों को उभय नीति-निश्चय व्यवहारनय की पद्धति के बल से सूत्रों को पढ़ाते हैं उन रत्नत्रय धारक आचार्यों की स्तुति करते हैं। जितने भी आचार्य ग्रंथों की रचना करने वाले हुए हैं उन सबने गुरू परम्परा से ही ज्ञान प्राप्त कर शिष्यों को पढ़ाया है तथा ग्रंथ रचना की है।
कर्मप्राभृत (षट्खंडागम) और कषाय प्राभृत इन दोनों सिद्धांतों का ज्ञान गुरूपरिपाटी से कुन्दकुन्दपुर के ‘‘पद्मनंदि’ मुनि को प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खंडागम के प्रथम तीन खंडोें पर बारह हजार श्लोक प्रमाण ‘परिकर्म’ नाम की टीका रची है। इनके पहले धरसेनाचार्य तक श्रुतज्ञान गुरू परम्परा से ही चला आता रहा है।
श्रीधरसेनाचार्य ने भी अपना ज्ञान पुष्पदन्त और भूतबलि मुनियों को दिया था। उन्होंने ही षट्खंडागम सूत्र ग्रंथ रचे हैं। उसकी बहुत ही सुन्दर कथा है कि- ‘‘सौराष्ट्र देश (गुजरात) के गिरिनगर की चंद्रगुफा में श्रीधरसेनाचार्य रहते थे। इन्हें सभी अंग और पूर्वों का एकदेश ज्ञान आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था, ये अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल थे।
एक समय उन्हें अपने निमित्त से ‘‘अपनी उमर थोड़ी रह गई है’’ ऐसा ज्ञात हुआ, तभी उन्हें श्रुत की परम्परा को अविच्छिन्न रखने की चिन्ता जाग्रत हुई। उस समय महामहिमा अर्थात् पंचवर्षीय साधु सम्मेलन में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के निवासी आचार्यों के पास एक लेख भेजा। उसमें अभिप्राय था कि- भगवान् महावीर का शासन अचल रहे, उसका सब देशोें में प्रचार हो।
यद्यपि इस कलियुग में अंगादि का ज्ञान नहीं रहेगा तथापि शास्त्र ज्ञान की रक्षा हो, इसलिये कृपाकर आप ऐसे दो मुनियों को हमारे पास भेजें जिनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण हो, स्थिर हों, सहनशील हों और जैन सिद्धांत का उद्धार कर सके। ऐसा पत्र एक ब्रह्मचारी के हाथ से वहां भेजा। यह साधु सम्मेलन आन्ध्रप्रदेश में वेणानदी के तट पर हुआ। ब्रह्मचारी द्वारा पत्र प्राप्त कर अभिप्राय ज्ञातकर आचार्यों ने उत्तम देश, कुल और जाति में जन्में ऐसे दो मुनियों को गुजरात भेज दिया।
ये दोनों मुनि जिस दिन गुरू के पास पहुंचने वाले थे, उसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीधरसेनसूरि ने स्वप्न देखा कि दो श्वेत, सुन्दर, सपुष्ट बैल हमारी तीन प्रदक्षिणा देकर चरणों में नमस्कार कर रहे हैं। अनंतर उठते ही ‘‘जयउ सुददेवदा’’-श्रुतदेवता जयवंत हों, ऐसा उच्चारण किया। उसी दिन वे दोनों मुनि वहां आ गये। धरसेनाचार्य के चरणों की कृतिकर्मपूर्वक वंदना करके दो दिन बिताकर तृतीय दिवस अपने आने का कारण निवेदित किया।
गुरू ने कहा-‘‘अच्छा, कल्याण हो’’ ऐसा कहकर उन्हें आश्वासन देकर गुरू ने विचार किया कि-‘‘जो मुनि अयोग्य शिष्यों को मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है वह रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है। ऐसा सोचकर यद्यपि उत्तम स्वप्न देखने से ये योग्य हैं ऐसा समझ लिया फिर भी उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। तब गुरू ने दोनों मुनियों को एक-एक विद्यायें दीं और बेला करके इन्हें सिद्ध करो, गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ की निर्वाण भूमि पर जाकर विद्या सिद्ध करो, ऐसा आदेश दिया। गुरू की आज्ञानुसार इन्होंने विद्यायें सिद्ध कीं।
विद्यायें सिद्ध होते ही विद्या की अधिष्ठात्री दो देवता वहां आई। एक के दांत बाहर निकले थे, दूसरी कानी थी। मुनियों ने सोचा- देवियों का ऐसा विकृत रूप नहीं होता है अत: मंत्र संबंधी व्याकरण शास्त्र में कुशल दोनों मुनियों ने अपने-अपने मंत्र शुद्ध किए।
एक मंत्र में अक्षर अधिक था उसे निकाला और दूसरे मंत्र में अक्षर कम था उसे मिलाया फिर सिद्ध करना प्रारंभ किया। पुन: वे देवता अच्छे सुन्दर रूप में प्रगट हुई। अनंतर इन दोनों मुनियों ने गुरु के पास आकर सारा वृत्तान्त सुनाया। गुरु प्रसन्न हुए और बोले-‘‘बहुत अच्छा किया’’ अनंतर शुभ मुहूर्त में धरसेन भगवान ने उन दोनों का ग्रंथ पढ़ाना प्रारंभ किया। आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन पूर्वाण्ह काल में ग्रंथ पूर्ण किया।
तब संतुष्ट हुए व्यंतर देवों ने गाजे-बाजे के साथ पुष्पादि सामग्री से उन दोनों मुनियों के चरणों की पूजा की। यह देखकर धरसेनाचार्य गुरु ने जिनकी भूत जाति के देवों ने पूजा की थी उनका भूतबली और जिनके अस्त-व्यस्त दंतपंक्तियों को ठीक कर दांत समान कर दिये थे उनका ‘‘पुष्पदंत’’ ऐसा नाम रखा। इसके बाद उसी दिन गुरु की आज्ञा से भेजे गये वे दोनों मुनि वहाँ से विहार कर अंकलेश्वर आ गये वहाँ वर्षायोग बिताया।
अनंतर वहाँ से विहार कर पुष्पदंत मुनि जिनपालित (अपने भानजे) को साथ लेकर वनवासी देश चले गये और भूतबलि भट्टारक तमिल देश चले गये। पुष्पदंत भट्टारक ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित को पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा तथा यह भी कहलाया कि मेरी आयु अल्प ही शेष है अत: आगे का कार्य आपको करना है। जिनपालित मुनि से सारी बात समझकर भगवान भूतबलि ने महाकाल प्रकृति प्राभृत का विच्छेद न हो जाये इस अभिप्राय से द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रंथ रचना की है।
अत: इस षट्खण्डागम सूत्र ग्रंथ के कर्ता आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि हैं। जिस दिन ग्रंथ पूर्ण हुआ था उस दिन चतुर्विध संघ ने मिलकर ग्रंथ की महापूजा की थी। उस दिन ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी थी। अत: तभी से लेकर आज तक भी उसे श्रुतपंचमी कहते हैं और श्रुतपूजा की परम्परा चालू है। इसलिए सम्यग्ज्ञान की महिमा को जानकर स्वाध्याय और गुरुओं के प्रसाद से उन्हें प्राप्त कर मनुष्य पर्याय को सफल करें यही मंगल आशीर्वाद है।