भिन्न-भिन्न अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के भेद यहाँ बतलाये जा रहे हैं।
सराग सम्यग्दर्शन—धर्मानुराग युक्त सम्यग्दर्शन सराग सम्यग्दर्शन है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि गुणों की अभिव्यक्ति इसका मुख्य लक्षण है।
प्रशम—क्रोधादिक विकारों का अनुद्रेक।
संवेग—संसार से सतत भीति और मोक्ष की अभिलाषा।
अनुकम्पा—प्राणिमात्र के प्रति दया भाव।
आस्तिक्य—आत्मा, कर्म, कर्मफल और पुनर्जन्म आदि में विश्वास।
वीतराग सम्यग्दर्शन—रागरहित सम्यग्दर्शन वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाता है। यह वीतरागी मुनियों को ही होता है क्योंकि यह वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। अविनाभाव का अर्थ है—जो जिसके होने पर हो और नहीं होने पर नहीं हो। जैसे—धूम्र और अग्नि का अविनाभाव संबंध है। जहाँ—जहाँ धूम्र होगा, वहाँ अग्नि अवश्य होगी। जहाँ—जहाँ अग्नि नहीं है, वहाँ—वहाँ धूम्र भी नहीं होगा। इसी प्रकार वीतराग चारित्र के अभाव में वीतराग सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं है।
व्यवहार और निश्चय की अपेक्षा भी सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं। वीतरागी देव, शास्त्र और गुरु पर एक निष्ठ श्रद्धा व भक्तिव्यवहार सम्यग्दर्शन है तथा शुद्ध आत्मतत्व की प्रतीति निश्चय सम्यग्दर्शन है। व्यवहार सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्दर्शन का साधन है।
सम्यग्दर्शन का अंतरंग हेतु सम्यक्त्व विरोधी कर्मों का उपशम, क्षय और क्षयोपशम है। इस अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के तीन भेद हैं—
१. उपशम सम्यग्दर्शन
२. क्षायिक सम्यग्दर्शन
३. क्षयोपशम सम्यग्दर्शन
सम्यक्त्व विरोधी कर्मों के उपशम/दबने से उत्पन्न सम्यक्त्व उपशम सम्यग्दर्शन है। दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यक््âमिथ्यात्व और सम्यक््âप्रकृति रूप तीन और चारित्र मोहनीय की चार प्रकृतियाँ—अनन्तानुबन्धी—क्रोध, मान, माया और लोभ, ये सात कर्म प्रकृतियाँ सम्यक्त्व विरोधी कर्म मानी जाती हैं। इनके पूर्णतया उपशान्त होने पर जो सम्यक्त्व उपलब्ध होता है वह उपशम सम्यक्त्व कहलाता है। उपशम सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। उसके बाद वह नियमत: छूट जाता है।
उपर्युक्त सातों प्रकृतियों के क्षय से उत्पन्न सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है। यह सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद सदा बना रहता है। इसकी उपलब्धि केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में रहने वाले कर्मभूमि के मनुष्य को ही होती है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर चारों गति में जा सकता है, किन्तु नरक में प्रथम नरक से आगे नहीं जाता। वह भी सम्यक्त्व ग्रहण से पूर्व आयु बँध जाने की स्थिति में। इसी प्रकार जिन्होंने मनुष्यायु या तिर्यञ्चायु का बन्ध कर लिया है, वे मनुष्य यदि क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करते हैं तो भोगभूमि के मनुष्य या तिर्यञ्च बनते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि दो या तीन भवों के अन्तराल में अवश्य ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
सम्यक्त्व विरोधी कर्मों के कुछ अंशों में क्षय और कुछ अंशों में उपशम से उत्पन्न क्षयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है। इस अवस्था में उपर्युक्त सातों प्रकृतियाँ स्थूल रूप से विपाकावस्था में नहीं रहतीं, अपने फल का स्पष्ट अनुभवन नहीं करा पाती हैं। इसे वेदक सम्यग्दर्शन भी कहते हैं।
क्षयोपशम सम्यक्त्व की आगमिक परिभाषा बताते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी—क्रोध, मान, माया, लोभ, इन छह सर्वघाती प्रकृतियों के वर्तमान काल में उदित होने वाले निषेकों का उदयाभावी क्षय तथा आगामी काल में उदित होने वाले उन्हीं का सदवस्था रूप उपशम और सम्यक्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय रहने पर होने वाला सम्यक्त्व क्षयोपशम सम्यग्दर्शन है।
उक्त परिभाषा को स्पष्ट करते हुए कहा गया है—कर्मों के एक देश क्षय तथा एक देश उपशम को क्षयोपशम कहते हैं। यद्यपि यहाँ कुछ कर्मों का उदय भी विद्यमान रहता है, परन्तु उनकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाने के कारण वह जीव के गुण को घातने में समर्थ नहीं होता। पूर्ण शक्ति के साथ उदय में न आकर शक्तिक्षीण होकर उदय में आना ही यहाँ क्षय या उदयाभावी क्षय कहलाता है और सत्तावाले सर्वघाती कर्मों का अकस्मात् उदय में न आना ही उसका सदवस्था रूप उपशम है।
आज्ञा सम्यक्त्व, मार्ग सम्यक्त्व, उपदेश सम्यक्त्व, सूत्र सम्यक्त्व, बीज सम्यक्त्व, संक्षेप सम्यक्त्व, विस्तार सम्यक्त्व, अर्थ सम्यक्त्व, अगाढ़ सम्यक्त्व और परमावगाढ़ सम्यक्त्व के भेद से सम्यग्दर्शन के दशभेद हैं।
१. आज्ञासम्यक्त्व—वीतराग जिनेन्द्र की आज्ञा मात्र का श्रद्धान करने से उत्पन्न सम्यक्त्व।
२. मार्गसम्यक्त्व—मोक्ष मार्ग को कल्याणकारी समझकर उस पर अचल श्रद्धान।
३. उपदेशसम्यक्त्व—पुराण—पुरुषों के चरित्र श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान।
४. सूत्रसम्यक्त्व—मुनियों के चरित्र—निरूपक शास्त्रों के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान।
५. बीजसम्यक्त्व—बीज पदों के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान।
६. संक्षेपसम्यक्त्व—संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान।
७. विस्तारसम्यक्त्व—तत्त्व के विस्तृत विवेचन के श्रवण से उत्पन्न श्रद्धान।
८. अर्थसम्यक्त्व—वचन विस्तार के बिना केवल अर्थ ग्रहण से उत्पन्न तत्त्व श्रद्धान।
९. अवगाढ़ सम्यक्त्व—श्रुतकेवली का सम्यक्त्व।
१०. परमावगाढ़ सम्यक्त्व—केवलज्ञानी का सम्यग्दर्शन।