समयसार ग्रन्थ में श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने सम्यग्दर्शन का लक्षण लिखा है—(१५ ज०)
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तंसमयसार पृ. ६३ श्लोक-१३।।।१३ अ०।।
भूतार्थनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च।
आस्रवसंवरनिर्जरा बंधो मोक्षश्च सम्यक्त्वम्।।१३।।
उत्थानिका — शुद्धनय से जानना ही सम्यक्त्व है, ऐसा सूत्रकार कहते हैं—
अन्वयार्थ — (भूतार्थेन अभिगताः जीवाजीवौ च पुण्यपापं च आस्रवसंवरनिर्जराः बंधः च मोक्षः सम्यक्त्वं) भूतार्थ से जाने हुये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नवतत्त्व ही सम्यक्त्व है।
नियमसार ग्रन्थ में सम्यग्दर्शन का लक्षण—
अत्तागमतच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं।
ववगयअसेसदोसो सयलगुणप्पा हवे अत्तो।।५।।
नियमसार पृ. १६ श्लोक-५।
आप्तागमतत्त्वानां श्रद्धानाद् भवति सम्यक्त्वम्।
व्यपगताशेषदोषः सकलगुणात्मा भवेदाप्तः।।५।।
पद्यानुवाद—गणिनी ज्ञानमती
सत्यार्थ आप्त आगम औ तत्त्व बताये। बस इनके हि श्रद्धान से सम्यक्त्व कहाये।।
संपूर्ण दोष रहित सकल गुण से युक्त जो। जो आत्मा है आप्त वीतराग द्वेष जो।।५।।
अन्वयार्थ — (अत्तागमतच्चाणं) आप्त, आगम और तत्वों के (सद्दहणादो सम्मत्तं हवेइ) श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। (ववगदअसेसदोसो) समस्त दोषों से रहित (सयलगुणप्पा) सकल गुणों से सहित आत्मा (अत्तो हवे) आप्त है। स्याद्वादचन्द्रिका टीका—आप्त, आगम और तत्त्व, इनका श्रद्धान करना, इनमें रुचि, प्रतीति और विश्वास रखना ही सम्यग्दर्शन है। यह व्यवहार सम्यक्त्व का कथन है। इसके आधार से निश्चयनय से अपनी शुद्ध-बुद्ध परमानंदमय परमात्मा में रुचिरूप श्रद्धान होना निश्चयसम्यक्त्व है। यह साध्य है और व्यवहारसम्यक्त्व साधन है। इसीलिए यहाँ आचार्यदेव ने पहले व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप कहा है।
पुव्वं जिणेहिं भणियं जहट्ठियं गणहरेहिं वित्थरियं।
पुव्वाइरियक्कमजं तं बोल्लइ सो हु सद्दिट्ठी।।२।।
रयणसार पृ. ४८ श्लोक-२।
पूर्वं जिनैः भणितं यथास्थितं गणधरैः विस्तरितं।
पूर्वाचार्यक्रमजं तत् कथयति सः खलु सद्दृष्टिः।।२।।
भावार्थ — जो व्यक्ति निश्चय से अतीत काल में सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए तथा गणधरों से विस्तृत एवं पूर्वाचार्यों के क्रम से प्राप्त वचनों को ज्यों का त्यों कहता है वह सम्यग्दृष्टि है। तत्त्वार्थसूत्र में श्री उमास्वामी आचार्य ने सम्यग्दर्शन का लक्षण लिखा है—
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।।२।।तत्त्वार्थसूत्र पृ. ९, अध्याय-१, सूत्र २।
अर्थ — तत्त्वार्थ अर्थात् तत्त्व और पदार्थों के यथावत् स्वरूप की श्रद्धा या रुचि को सम्यग्दर्शन कहते है।।
विशेषार्थ — सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है—१. सराग सम्यग्दर्शन, २. वीतराग सम्यग्दर्शन। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य से जिसका स्वरूप अभिव्यक्त होता है, वह सरागसम्यग्दर्शन है। रागादि की शान्ति प्रशम है। संसार से डरना संवेग है। प्राणिमात्र में मैत्रीभाव अनुकम्पा है। जीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप में ‘अस्ति’ बुद्धि होना आस्तिक्य है, मोहनीय की ७ कर्म प्रकृतियों का अत्यन्त विनाश होने पर आत्मविशुद्धिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है। सराग सम्यक्त्व साधन ही होता है और वीतराग सम्यग्दर्शन साध्य भी है, साधन भी है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में सम्यग्दर्शन का लक्षण—
श्रद्धानं परमार्थाना – माप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढ़ापोढ- मष्टाङ्गं, सम्यग्दर्शनमस्मयम्।।४।।
रत्नकरण्डश्रावकाचार पृ. ३ श्लोक-४।
पद्यानुवाद—गणिनी ज्ञानमती
परमार्थभूत जो आप्त और आगम औ मुनिगण होते हैं।
इनकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन, ये भवि का भव मल धोते हैं।।
मद आठ आठ शंकादि तीन मूढत्व अनायतनं छह हैं।
इनसे विरहित अष्टांग सहित सम्यग्दर्शन ही शिवप्रद है।।४।।
अर्थ — सच्चे आप्त, आगम और मुनि, इनकी श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। ये भव्यों का भवमल धोने वाले हैं। आठ मद, शंकादि आठ दोष, तीन मूढ़ता और छह अनायतन इन पच्चीस दोषों से रहित और आठ अंग से सहित सम्यग्दर्शन ही मोक्ष को प्रदान करने वाला है।।४।। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में श्री अमृतचन्द सूरि ने श्रावकधर्म व्याख्यान में सम्यग्दर्शन का लक्षण लिखा है— ‘वसुनन्दिश्रावकाचार में सम्यक्त्व का लक्षण—
अत्तागमतच्चाणं जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई।
संकाइदोसरहियं तं सम्मत्तं मुणेयव्वं।।६।।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय पृ. १३, श्लोक २२
आप्त (सत्यार्थ देव) आगम (शास्त्र) और तत्त्वों का शंकादि (पच्चीस) दोष-रहित जो अतिनिर्मल श्रद्धान होता है, उसे सम्यक्त्व जानना चाहिए।।६।।