सम्यग्दर्शन के विषय में अध्यात्मवादियों के यहाँ सदा चर्चा चला करती है। वे व्यवहार को अनावश्यक मान गृहस्थ के लिए भी निश्चय सम्यक्त्व आवश्यक सोचते हैं। उस सम्यग्दर्शन के विषय में स्पष्टीकरण आवश्यक है। जैसे धर्म अहिंसा रूप है, यह गौतम गणधर ने प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी में कहा है। उस धर्म के श्रावक की अपेक्षा अष्ट मूलगुण तथा मुनि की अपेक्षा २८ मूलगुण भेद कहे गए हैं, उसी प्रकार श्रावक की अपेक्षा सम्यक्त्व का स्वरूप देव, शास्त्र, गुरु का श्रद्धान कहा गया है। मोक्षपाहुड में श्रावक की अपेक्षा सम्यग्दर्शन का लक्षण इस प्रकार कहा है।
हिंसा रहिये धम्मे अट्ठारह दोस वज्जिये देव। निग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं।।९०।।
यहां अर्हंत भक्ति का कथन है, सिद्धभक्ति नहीं कही है, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि रूपादिरहित अशरीरी सिद्धों का ज्ञान जिनवाणी के माध्यम से होता है। उनका दर्शन इन्द्रियों के अगोचर है किन्तु अर्हन्त देव सशरीरी होने से दर्शनगोचर होते हैं, उनकी वाणी भव्य जीव सुनते हैं। उनके ही द्वारा सिद्धों का परिचय और परिज्ञान प्राप्त होता है अत: अर्हन्त देव की भक्ति का मुख्यता से निरूपण किया जाता है। हिंसारहित धर्म, अष्टादश दोष रहित देव, निग्र्रन्थ गुरु तथा जिनवाणी में श्रद्धा करना सम्यक्त्व है। यह सम्यक्त्व बाह्य लक्षण है, ऐसा कोई सोचते हैं किन्तु यह भ्रम है। मूलगाथा के आशय के विपरीत है। यह कथन श्रावक की अपेक्षा हुआ है। गाथा नंबर ८५ में आचार्य ने कहा है ‘‘सावयाणं पुण सुणसु’’—श्रावकों की अपेक्षा सम्यक्त्व का वर्णन सुनो। वही कथन उपरोक्त गाथा नं. ९० में आया है। दर्शनपाहुड़ में कहा है—
जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं। ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं।।२०।।
व्यवहारनय की अपेक्षा जिनेन्द्र ने जीवादि का श्रद्धान सम्यक्त्व कहा है तथा निश्चयनय से आत्मा का श्रद्धान सम्यक्त्व कहा है। पंचमकाल में धर्मध्यान रूप अपरमभाव होता है। अपरमभाव वाले मुनि तथा श्रावक दोनों व्यवहारनय की देशना के पात्र हैं अत: इस काल में उनके व्यवहार सम्यक्त्व होगा निश्चय सम्यक्त्व नहीं होगा। ववहार देसिदा पुण जेदु अपरमेट्ठिदा भावे (समयसार १२) दोनों नय यथार्थ हैं : सम्यग्ज्ञान के भेद रूप दोनों नय हैं अत: दोनों नयों की देशना यथार्थ है। प्रारम्भ में ‘‘पराश्रितो व्यवहार:’’—परावलंबन सहित व्यवहार दृष्टि उपकारी है। नियमसार में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं—
अत्तागम तच्चाणं सद्दहणादो हवेइ सम्मत्तं।।५।।
आप्त, आगम तथा तत्त्वों की श्रद्धा करने से सम्यक्त्व होता है। पाश्र्व पुराण में कहा है—
दोष अठारह वर्जित देव, दुविध संग त्यागी गुरु एव।
हिंसा वर्जित धरम अनूप यह सरधा समकित को रूप।।
शीलपाहुड में अरहन्त भक्ति को सम्यक्त्व कहा है।
‘‘अरहंते सुहभत्ती सम्मत्तं’’।।४०।।
सम्यक्त्वी श्रावक तथा श्रमण पूर्वाचार्य प्रणीत वाणी की श्रद्धा करते हैं, ऐसा रयणसार में कहा है। इस प्रकाश में समंतभद्र स्वामी द्वारा प्रतिपादित लक्षण पूर्णतया प्रामाणिक है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है—
श्रद्धानं परमार्थाना माप्तागम तपोभृताम्। त्रिमूढापोढ मष्टांगं—सम्यग्दर्शन—मस्मयम्।।४।।
परमार्थ रूप आप्त, (भगवान), आगम, मुनि का तीन मूढ़ता रहित अष्टांग सहित तथा अष्ट मद विविर्जित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। आत्महितैषी व्यक्ति को यह नहीं भूलना चाहिए कि आत्मा—आत्मा रटते रहने से सम्यक्त्व नहीं होता। सम्यक्त्वी जीव में अष्ट अंगों का सद्भाव जरूरी है। उसमें प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुण आवश्यक हैं। इसमें भी जिनेन्द्रोक्त कथन में श्रद्धा रूप आस्तिक्य गुण का विशिष्ट स्थान है। पूज्यपाद स्वामी ने उपासकाचार में लिखा है—
नास्त्यर्हत्परो देवो नास्ति धर्मो दयां विना। तप: परं च नैग्रन्थ्यं एतत्सम्यक्त्व लक्षणम्।।
अर्हत् के सिवाय अन्य देव नहीं हैं, दया के बिना धर्म नहीं है तथा तप:प्रधान मुनिपद की श्रद्धा सम्यक्त्व का लक्षण है। इस आगम वाणी पर श्रद्धा रखने वाला सम्यक्त्वी है। पहले व्यवहार सम्यक्त्वी बनना चाहिये। इस तत्त्व के विपरीत प्रलाप करने वाला मिथ्यात्वी है। द्यानतराय की पूजा का यह कथन शास्त्रानुवूल है।
प्रथम देव अरहंत सुश्रुत सिद्धान्त जू। गुरु निग्र्रन्थ महान मुकतिपुर पंथ जू।।
तीन रतन जगमांहि सुये भवि ध्याइये। तिनकी भगति प्रसाद परमपद पाइये।।
जो द्वादशांग जिनवाणी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग रूप परमागम की श्रद्धा नहीं करता वह व्यक्ति कोई भी हो, श्रावक हो या श्रमण हो, सम्यक्त्व के प्रकाश से शून्य है। विवेकी व्यक्ति संपूर्ण जिनागमरूप महोदधि को सदा प्रणाम करता है। निर्दोष रूप से व्यवहार सम्यक्त्वी व्यक्ति निश्चय सम्यक्त्व रूप विमल दृष्टि का स्वामी बनता है। व्यवहार दृष्टि निश्चय का कारण है। पुण्य के विषय में विशिष्ट बात : पुण्य के विषय में भी एकांतवादी मान्यता आगमविरुद्ध है। कर्मों के घातिया तथा अघातिया दो भेद हैं। जीव के गुणों का घात करने से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तराय इन चार कर्मों को घातिया कहा है तथा इन चारोें घातिया कर्मों को पाप प्रकृति रूप कहा है। जब वीतरागता के प्रभाव से चार घातिया का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त होता है, तब उन भगवान के अघातिया कर्मों का सद्भाव पाया जाता है। पुण्य कर्म अघातिया है। सयोगकेवली भगवान् के तीर्थंकर प्रकृति का उदय है। उस समय उनके योग का सद्भाव रहने से पुण्य कर्म का आस्रव प्रचुर मात्रा में होता है। सयोगकेवली भी पुण्यकर्म का क्षय नहीं करते। अयोगकेवली होने पर पुण्य का क्षय होता है। विपरीत कथन : एकांतवादी सप्तव्यसन त्यागादि से भयभीत होते हैं, संयम सदाचार की चर्चा नहीं चलाते। उन्हें पाप क्षय का पथ ठीक नहीं प्रतीत होता। वे पुण्य क्षय का अभियान अभिमानपूर्वक छेड़ा करते हैं। यथार्थ में देखा जाय तो यह बात सत्य है कि पुण्य क्षय का नारा बुलन्द करने वाला गृहस्थ पापसंचय द्वारा नरकादि की दु:खद स्थिति को आमन्त्रण देता है। इसका कारण विचारणीय है। तत्वार्थ सूत्र अध्याय ६ में कहा है ‘‘कायवाङ् मन: कर्मयोग: स आस्रव:। शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य।’’ मन वचन काय की क्रिया योग है। वह योग ही कर्मों के आगमन का कारण है। शुभ परिणाम से युक्त योग पुण्य प्रकृतियों में विशेष अनुभाग प्रदान करता है। हिंसा, मात्सर्य, तस्कर वृत्ति आदि पाप परिणामों से पापाश्रव के साथ पाप प्रकृतियों में विशेष अनुभाग बंध होता है। जब गृहस्थ के बंध के कारण मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग विद्यमान हैं, तब उसके कर्मों का आस्रव (जो पुण्य—पाप के भेद से दो प्रकार का है) नियम से होगा; भले ही वह उस कर्मागमन को बुरा कहते रहें। कारण रहने से कार्य अवश्य होगा। आगमभक्त सिद्ध भगवान को पुण्य—पाप सभी कर्मों के बन्धन से विमुक्त मान उन्हें प्रणाम करता है। ‘‘कर्माष्टकं विनिर्मुक्तं सिद्धचक्रं नमाम्यहम्’’ पाठ सभी धार्मिक लोग पूजा में पढ़ते हैं अत: मोक्ष के लिए पुण्य का विनाश आवश्यक है।
वह पुण्य क्या है ? क्या मोक्ष जाने के पूर्व कर्मप्रदत्त सामग्री जरूरी है या नहीं, इत्यादि बातों पर ध्यान देना आवश्यक है। द्रव्य संग्रह में कहा है—‘‘सादं सुहाउ णामं गोदं पराणि पावं च’’—सातावेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र ये चार अघातिया कर्म पुण्य रूप हैं। असाता वेदनीय, अशुभ आयु, हीन संहननादि, अशुभ नाम, नीच गोत्र पाप कर्म हैं। चार घातिया भी पाप कर्म हैं। मोक्ष जाने वाले व्यक्ति को उच्च गोत्र, वङ्कावृषभ संहनन रूप शुभ नाम, मनुष्यायु रूप शुभ आयु तथा सातावेदनीय की भी आवश्यकता पड़ती है। नीच गोत्र, हीन संहनन, नरकायु, तीव्र असाता का उदययुक्त जीव महाव्रत पालन करने का अपात्र है अत: मोक्ष की प्राप्ति में पुण्योदय की भी आवश्यकता है। शंका—कर्मों का क्षय करने में पुण्य कर्म की अनुकूलता आवश्यक है, यह बात बड़ी विचित्र—सी लगती है ? उत्तर—जैसे काष्ठसमूह रूप वन के वृक्षोें को काटने के लिए कुल्हाड़ी को एक लकड़ी रूप बेंट की जरूरत पड़ती है। अकेली कुल्हाड़ी जंगल को नष्ट नहीं कर सकती, इसी प्रकार वङ्कासंहनन, मनुष्यायु, उच्च वंश में जन्म आदि पुण्योदय प्रदत्त सामग्री की सहायता (मोक्ष के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति के लिए) परमावश्यक है। पुण्य जीव, पाप जीव : आगम में पुण्य—पाप का भिन्न—भिन्न अपेक्षाओं से प्रतिपादन आया है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में कहा है— ‘‘ मिच्छाइट्ठी पावा णंता’’ (६२२)
मिथ्यादृष्टि पाप हैं। वे अनन्त हैं। जीवा पुण्ण हु सम्मगुण—सहिदा।
वद सहिदावि य पावा तव्विवरीया हवंति त्ति।।६२१।।
सत्यक्त्वरूप गुण सहित, व्रत सहित जीव पुण्य कहे गये हैं, मिथ्यात्वयुक्त जीव पाप कहे गये हैं।
शंका— षटकर्मभि किमस्माकं पुण साधनकारणै:।
पुण्यात्प्रजायते बंध बंधात्संसारत: यत:।।६०३।। भावसंग्रह।।
देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दानस्वरूप षट्कर्म से जो पुण्य प्राप्ति के साधन हैं, हमारा क्या हित है ? पुण्य कर्म से बंध होता है। बंध से संसार में भ्रमण होता है।
निजात्मानं निरालंब—ध्यानयोगेन चिन्त्यते।
येनेह बंध विच्छेदं कृत्वा मुत्तिं प्रगम्यते।।६०४।।
आलम्बनरहित ध्यान योग से जब आत्मा का चिंतन किया जाता है, तब उससे बंध का नाश होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है।
समाधान—कनक—कामिनी विषयों के चक्कर में फंसे गृहस्थ की मनोवृत्ति इतनी स्वच्छ नहीं हो पाती कि वह शुक्लध्यान की स्थिति को प्राप्त कर ले। नीतिकार कहता है—
माला तो कर में फिरै जीभ फिरै मुंह मांहि।
मनुआ फिरै बाजार में कैसे सुमरन पांहि।।
चंचल मन जीव को नचाता है। उसको वश में करके निर्मल ध्यान करना बिरली आत्माओं की उपलब्धि है—
मन सब पर असवार है, मन के मते अनेक। जे मन पर असवार हैं, वे लाखन में एक।।
यदि गृहस्थ पुण्यसाधक जिनभक्ति, पात्रदान, स्वाध्याय आदि आवश्यक कर्मों का त्याग करता है तो उसकी दुर्गति हुए बिना न रहेगी। भाव संग्रह में कहा है—
त्यक्त पुण्यस्य जीवस्य पापास्रवो भवेद्ध्रुवम्।
पापबंधो भवेत्तस्मात् पापबंधाच्च दुर्गति:।।६११।।
पुण्य के साधनों का परित्याग करने वाले जीव के पाप कर्मों का आस्रव होगा, उससे पाप का बंध होगा, पाप बंध से पशु आदि की दुर्गति प्राप्त होगी। सम्यक्त्वी का पुण्य : आचार्य देवसेन कहते हैं— पूर्वाचार्यों ने दो प्रकार का पुण्य कहा है—एक पुण्य मिथ्यादृष्टि द्वारा अर्जित किया जाता है, दूसरा पुण्य वह है, जो सम्यक्त्वी धर्मात्मा बांधता है। मिथ्यात्वी पुण्योदय से सुखप्रद सामग्री को पाकर पुन: पाप के साधनों को जुटाता है, इस कारण उसका पतन होता है। सम्यक्त्वी जीव पुण्योदय से प्राप्त सामग्री का उपयोग सत्कार्यों में लगाकर आत्मकल्याण करता है। जैसे एक लाख रुपया किसी कसाई को प्राप्त हुए, तो वह उस संपत्ति द्वारा अधिक जीव वध में सहायक यंत्रादि को लेकर पाप कार्य द्वारा अन्त में नरक जाता है। वही धन यदि विवेकी, उदार धर्मात्मा को मिलता है तो वह उसको पात्रदान, पूजा, जीर्णोद्धार आदि धर्म के आयतनों में लगाकर अपने तथा दूसरे जीवों के हित का कार्य करता हुआ भविष्य में निर्वाण साधक सामग्री को प्राप्त करता है। भावसंग्रह में देवसेन आचार्य कहते हैं।
सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होई संसार कारण णियमा।
मोक्खस्स होइ हेउं जइवि णियाणं ण सो कुणई।।४०४।
सम्यग्दृष्टि जीव का पुण्य संसार का कारण नहीं होता है, ऐसा नियम है। वह पुण्य मोक्ष का हेतु होता है, यदि वह निदान बंध नहीं करता है। पुण्यकर्म का बंध करने वाला यदि सौधर्मेन्द्र बनता है, तो वह पुण्यात्मा सम्यक्त्वी आगामी भव में मानव पर्याय धारण कर मुनि होकर निर्वाण को प्राप्त करता है। पुण्य—पाप सर्वथा समान नहीं हैं। पुण्य का कारण धर्मध्यान रूप शुभभाव हैं, पाप का कारण आर्त रौद्र ध्यान रूप अशुभभाव हैं। विष और अमृत दोनों अचेतन तत्त्व हैं किन्तु विष का पान मृत्यु प्रदाता है, अमृतसेवन आरोग्यप्रद कहा गया है। पुण्य में रागांश सूर्योदय के पूर्व आकाश में दिखाई देने वाले राग (लालिमा) सदृश, जिसके पश्चात् प्रभापुन्ज प्रभाकर का प्रकाश प्राप्त होता है आत्मानुशासन में कहा है—
विधूततमसो रागस्तप: श्रुतनिबन्धन:।
संध्याराग इवाक्रस्य जंतोरभ्युदयाय स:।।१२३।।
अज्ञानांधकार को नष्ट करने वाले जीव के तप और शास्त्र सम्बन्धी राग होता है वह जीव को अभ्युदय प्रदान करता है, जैसे सूर्योदय के पूर्व की उषाकालीन लालिमा (राग) तेजोमय प्रभाकर की ज्योति का दर्शन कराती है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है—यदि यह जीव स्त्री आदि में प्रेम छोड़कर उस प्रकार जिनधर्म में प्रेम करे, तो वह शीघ्र ही निर्वाण पद को प्राप्त करता है।
जह जीवो कुणइ रइं पुत्तकलत्तेसु कामभोगेसु।
तह जइ जिणिंद धम्मे तो लीलाए सुहं लहदि।।
इसका अनुवाद इस प्रकार है—
जैसे रमणी विषय सुत ममता के आधार।
वैसा यदि जिनधर्म हो शीघ्र होय भव पार।।
किसी अजैन व्यक्ति को जैनाचार्य आशीर्वाद देते हैं, तो यह नहीं कहते ‘‘पुण्यक्षयोस्तु’’— तेरे पुण्य का क्षय हो। वे कहते हैं, ‘‘पापंक्षयोस्तु’’। पुण्य क्षय का आशीर्वाद गृहस्थ को देने का अर्थ होता है, ‘‘तू दु:खी हो नरक की वेदना भोग, तेरा सर्वनाश हो। तू अंधा, गूंगा, लंगड़ा बन, तू दर—दर, मारा—मारा चीखता, रोता फिर आदि।’’ पुण्य क्षय का यह अर्थ गृहस्थ की समझ में आवे, तो वह पुण्य क्षय की बात भी न करे, कारण उसे धन, वैभव, सुवर्ण, कीर्ति, कामिनी, आरोग्य तथा सर्व प्रकार की समृद्धि चाहिए। उसका एकमात्र कारण पुण्य की प्राप्ति है। पुण्य हेतु प्रेरणा : रयणसार में कुन्दकुन्द स्वामी पाप त्याग तथा पुण्य प्राप्ति हेतु कहते हैं—
पावारंभणिवित्ती पुण्णारंभे पउत्तिकरणं पि।
णाणं धम्मज्झाणं जिणभणियं सव्वजीवाण।।९७।।
पाप कार्यों का परित्याग, पुण्य कार्यों में प्रवृत्ति करना, ज्ञान प्राप्त करना तथा धर्म का आश्रय लेना ये कार्य जिनेन्द्र ने सर्व जीवों के लिए कहे हैं। इस कारण विचारशील गृहस्थों को जिनपूजा, सुपात्रदान, व्रतानुचरण तथा उपवास का आश्रय ले उस पुण्य को प्राप्त करना चाहिये, जिससे यह जीव धर्म—तीर्थंकर होकर अगणित जीवों का कल्याण कर अन्त में रत्नत्रय के आश्रय से अविनाशी मुक्तिश्री को प्राप्त करता है। पाप का त्याग प्राथमिक कत्र्तव्य है। पुण्य का संचय धन, धान्यादि संग्रहार्थी गृहस्थ के लिए आवश्यक है। पाप पंक में फंसा जीव पुण्य के त्याग की क्या बात करता है। उसका पुण्य स्वयं त्याग करता है, जिससे वह नरकादि में जा पाप का फल भोगा करता है, तब उसके सिर पर पाप नृत्य करता है और पीड़ित हो वह रोता रहता है। यत्नाचार : गौतम गणधर ने महावीर तीर्थंकर से पूछा था, ‘भगवन् ’! किस प्रकार प्रवृत्ति करें, जिससे पाप का बंध न हो। गणधरदेव के शब्द थे, ‘कथं पावं ण बज्झदि’।।२२१।। भगवान ने गौतम स्वामी से यत्नाचारपूर्वक आचरण हेतु यह कहा था।
जदं चरे जदं चिट्ठे जदं मासे जदं सये।
जदं भुंजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झद।।१२२।।
(मूलाचार समयसाराधिकार) ईर्यापथशुद्धिपूर्वक गमन करो, सावधानीपूर्वक बैठो, प्रयत्नपूर्वक आहार करो, सावधानी पूर्वक वचन बोलो, इससे पाप का बंध नहीं होगा। गृहस्थ का मुख्य कत्र्तव्य: आरंभ तथा परिग्रहरूप पाप कार्यों में सदा फंसे हुए गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य है कि पाप के बंध का अधिक से अधिक निरोध करे। गुणभद्र आचार्य आत्मानुशासन ग्रन्थ में कहते हैं— ‘‘पापात दु:ख’’ पाप से दु:ख होता है। इससे विवेकी व्यक्ति का क्या कर्तव्य है ?
तस्मात् पापापचय: पुण्योपचयश्च सुविधेय:।।२३।।
इस कारण पाप का निरोध एवं सुखदायी पुण्य का संचय भलीभांति करे। पुण्य के फल का उपयोग करने की लालसा लगाए हुए कनक, कामिनी से आसक्त गृहस्थ का पुण्यबंध का निरोध उस व्यक्ति के सदृश है जो आम भक्षण करना चाहता है किन्तु उस आम के वृक्ष को दग्ध करने की बात बनाता है। वर्तमान स्थिति : वर्तमान युग में पापाचार की अमर्यादित वृद्धि हो रही है। आज से चालीस—पचास वर्ष पूर्व बड़े—बड़े धनिक जैनधर्म प्रेमवश लाक्षा आदि के व्यापार का त्यागकर लाखों रूपयों की आमदनी पर लात मारते थे, किन्तु अब समाज की स्थिति भिन्न हो गई है। धन का लोलुपी कोई गृहस्थ जैनधर्म को भूलकर शराब का कारखाना खोलता है, पंचेन्द्रिय त्रस घात से प्राप्त चमड़े का व्यापार कर धन संचय करता है। लोभी समाज के लोग ऐसे महान व्रूâरतम कुकर्म करने वालों को अपना प्रमुख मानते हैं।लोगों को जिनागम कहता है, ‘‘यह स्मरण रखो, पापकर्मों में संलग्न व्यक्ति पूर्व संचित पुण्य की संपत्ति स्वाहा करके आगे नियम से नरक निगोद पर्याय में कष्ट भोगेगा।’’ अध्यात्म विद्या और द्रव्यदृष्टि (निश्चयनय) की बात करने वाले ये लोग यथार्थ में द्रव्य (रुपया, सोना, चाँदी) पर विशेष दृष्टि रखकर पापी धनिकों को गुमराह करते हैं कि तुम्हें पाप का फल नहीं भोगना पड़ेगा। आत्मा तो ज्ञाता दृष्टा मात्र है। इनके कान पकड़कर कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं—अरे मूर्खों ! यह बात याद रखो—
एक्को करेदि पावं विसण णिमित्तेण तिव्वलोहेण।
णिरय—ाqतरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को।।१५।।
विषयों के हेतु तीव्र लोभवश जीव अकेला पाप करता है तथा वही जीव नरक एवं पशु पर्याय में उस पाप का फल भोगता है। समन्तभद्र स्वामी का कथन धनलोलुपी, संग्रहपरायण तथा पापाचारी धनिकों को सचेत करता है—
यदि पाप निरोधोन्य संपदा किं प्रयोजनम्। अथ पापास्रवोस्त्यन्य—संपदा किं प्रयोजनम्।।२७।।
यदि पाप का निरोध हो गया है अर्थात् जीव हिंसा, चोरी, झूठ आदि पाप कर्मों का परित्याग रूप कार्य संपन्न हुआ है तो संपत्ति से क्या प्रयोजन है ? उस सदाचार के प्रताप से स्वयं समृद्धि धर्मात्मा का अनुगमन करेगी। यदि पाप का आस्रव हो रहा है अर्थात् वैभवसम्पन्न होते हुए भी हीना— चरण में वह फंसे हैं तो कुछ काल के पश्चात् संगृहीत संपत्ति, वैभव समाप्त हो जायेंगे। इससे कुन्दकुन्द स्वामी ‘‘पावारंभ—ाqणवित्ती’’ पापारंभ निवृत्ति हेतु देशना देते हैं तथा ‘‘पुण्णारंभे पउत्तिकरणं’’ पुण्यारंभ में प्रवृत्ति के लिए उपदेश देते हैं। इस कुन्दकुन्द आचार्य वाणी को मिथ्यात्व रोग से ग्रस्त होने के कारण मोही जीव अपने हृदयों में स्थान नहीं दे पाते। कर्मोदय की विचित्रता है यह— मोह मद्य का प्रभाव: भावसंग्रह में आचार्य देवसेन ने कहा है ‘मोहेइ मोहणीयं जह मइरा’ मोहयति मोहनीयं यथा मदिरा (गाथा ३३)। जिस प्रकार शराब सेवन द्वारा मनुष्य की विवेक तथा चिन्तन शक्ति नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से जीव भी उन्मत्त, विक्षिप्त के समान बातें करता है। उपरोक्त प्रतिपादन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुन्दकुन्द स्वामी के कथनानुसार पूर्व आचार्य परम्परा से प्रतिकूल प्रतिपादन करने के कारण मिथ्यात्व प्रचार का संगठित आयोजन शोचनीय है। मिथ्यात्व की मदिरापान के कारण उनकी वाणी विक्षिप्त दिमाग वाले सदृश लगती है। जैसे यह कथन कि जिनेन्द्र की मूर्ति का दर्शन आत्मा को निर्मल बनाता है। बाहुबली भगवान का श्रवणबेलगोला में दर्शन करने वाले अन्य धर्म के महान चिन्तक लोग तक अपूर्व शांति प्राप्त करते हुए मूर्ति के प्रति हार्दिक सम्मान व्यक्त करते हैं किन्तु हमारे ये मोहरूपी मद्यसेवी महानुभाव जिनेन्द्र भगवान् की मूर्ति को अत्यन्त निन्दनीय शब्दों द्वारा स्मरण करते हैं ‘द्रव्य दृष्टि प्रकाश’ में लिखा है, ‘यदि उपयोग भगवान की ओर जाता है तो समझना चाहिए कि यमदूत दिखाई दे रहा है।’ (बोल नम्बर ५६३) संयम, सदाचार आदि सत्प्रवृत्तियों का मौनवाणी द्वारा उपदेश देने वाली भगवान् की मूर्ति यमदूत लगती है तथा असंयममयी निन्दनीय जीवन बिताने वाले धर्मदूत लगते हैं। मिथ्यात्व के चश्मे से देखने से उनको जिनागम की यथार्थता का परिज्ञान नहीं होता। वे दया धर्म का भी विरोध करते हैं। व्यक्ति तथा समाज का कल्याण करने वाले नैतिक जीवन के प्रति ये अनादरपूर्ण दृष्टि रखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस दु:षमाकाल रूप राजा द्वारा क्रीतदास होने से पाप की ओर जीवों को लगाने में अपने को कृतकृत्य मानते हैं। धर्मात्मा श्रावक को दान, पूजा आदि धर्मकार्य द्वारा पुण्यसंचय के पथ में प्रवृत्ति हेतु निरत रहना चाहिए तथा यह भावना करनी चाहिए कि कब वह साधु पदवी को प्राप्त करे और समस्त कर्मों का क्षय कर अविनाशी मोक्ष की लक्ष्मी प्राप्त हो।