क्षायिकदृष्टिलब्ध्यै या, सामग्रयार्षे प्ररूपिता। सा मे भूयात्त्वरं देव!, युष्मत्पादप्रसादत:।।१।।
क्षायिक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये जो सामग्री आर्षग्रंथों में कही गई है। हे भगवन्! आपके चरण कमल के प्रसाद से वह मुझे शीघ्र ही प्राप्त होेवे। मार्ग और मार्ग का फल ये दो प्रकार ही जिनशासन मेें कहे गए हैं। मोक्ष के उपाय का नाम मार्ग है और निर्वाण उसका फल है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इनकी एकता ही मोक्ष का उपाय है। अपने-अपने स्वरूप के अनुसार पदार्थों का जो श्रद्धान होता है वह सम्यग्दर्शन है। जिस-जिस प्रकार से जीवादि पदार्थ व्यवस्थित हैं उस-उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिए उद्यत है उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रिया के त्याग को सम्यक्चारित्र कहते हैं। इन तीनों की पूर्णता से होने वाला जो फल है उसी का नाम निर्वाण है जो कि अक्षय, अनंत, अतीन्द्रिय, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यस्वरूप है। इस निर्वाण के विषय में प्राय: किसी को विसंवाद नहीं है क्योंकि सभी लोग सामान्य से सर्व दु:खों से छूट जाने को ही निर्वाण या मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का उपाय अर्थात् मार्ग, साधन, हेतु या कारण ये सब पर्यायवाची हैं। अनादिकाल से यह ‘मार्ग’ दुर्लभ ही रहा है अन्यथा सभी को मोक्ष हो जाता। इस मार्ग के विषय में ‘विसंवाद’ भी सदैव होता रहा है। कोई मात्र दर्शन से, कोई ज्ञान से, कोई चारित्र से या कोई किसी दो के संयोग से इत्यादि। यह मोक्ष के कारण का विसंवाद प्राय: नाना सम्प्रदाय का रूप लिए हुए है। जैसे कि सांख्यदर्शन वाले ज्ञान से मोक्ष मानते हैं, मीमांसक क्रियाकाण्ड से इत्यादि। इन तीनों कारणों में सबसे प्रथम कारण ‘सम्यग्दर्शन’ है जो कि ज्ञान और चारित्र को भी समीचीन बनाने वाला है। वर्तमान के युग में इस सम्यग्दर्शन के विषय में ही विवाद चल रहा है। और आश्चर्य इस बात का है कि वह विवाद अपने को दिगम्बर जैन मानने वाले ‘दिगम्बर सम्प्रदाय’ के भीतर ही चल रहा है। इसलिए सम्यग्दर्शन के बारे में ही भली प्रकार से जान लेना आवश्यक हो जाता है। यह सम्यग्दर्शन किसको, कब और कैसे होता है ? ये तीन बातें ही मुख्यतया ज्ञातव्य हैं। वह भव्य जीव को ही होता है, अभव्य को नहीं। काललब्धि आदि के मिलने पर ही होता है, उसके बिना नहीं और अंतरंग तथा बहिरंग कारणों से ही होता है बिना कारण के नहीं। हम और आप भव्य हैं या अभव्य ? काललब्धि आई है या नहीं ? इसका निर्णय तो सर्वज्ञ के सिवाय अन्य कोई कर नहीं सकता। क्योंकि कोई अभव्य जीव ग्यारह अंग का ज्ञानी और निर्दोष-निरतिचार चारित्र का पालन करने वाला महातपस्वी मुनि होकर ही नवमें ग्रैवेयक में जा सकता है। हम और आप जैसे आज के साधारणजन नहीं। उसमें किस रूप से मिथ्यात्व रहता है उसका निर्णय साधारणजन नहीं कर सकते। वह तो सर्वज्ञगम्य ही है। हाँ, काललब्धि आदि कारणों को आगम से जान लेने की जिज्ञासा अवश्य होनी चाहिए। उसमें से काललब्धि का वर्णन आगे पाँच लब्धियों में आ जाएगा। यहाँ सर्वप्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारणों पर प्रकाश डाला जाता है।
सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण
सम्यक्त्व की प्राप्ति के उपाय, साधन या हेतु को ‘कारण’ कहते हैं। आजकल यह ‘कारण’ ही विसंवाद का मूल कारण हो रहा है। जिसके होने पर कार्य हो जावे अथवा नहीं भी होवे किन्तु जिसके बिना नहीं होवे वह कारण है। जैसे-मुनिमुद्रा के होने पर मोक्ष होेवे अथवा नहीं भी होवे किन्तु उसके बिना नहीं हो सकता है। तथा जिसके होने पर नियम से कार्य हो जावे वह कारण, कारण न कहलाकर ‘करण’ कहलाता है और वह साधकतम माना जाता है जैसे कि अध:करण आदि तीन करणरूप करणलब्धि के होने पर नियम से सम्यक्त्वरूप कार्य प्रकट हो जाता है। कुछ लोग कारणों को अत्यंत हेय अथवा उपेक्षा बुद्धि से देखते हैं। वे इन्हें कार्य की उत्पत्ति में नगण्य अथवा अिंकचित्कर मानते हैं किन्तु ऐसी बात नहीं है। आगम में तो कारणों के बिना ‘करणलब्धि’ का होना ही असंभव बतलाया है। इन्हीं बातों का इस प्रकरण में सप्रमाण वर्णन किया जायेगा। यहाँ पर यह बात भी समझ लेने की है कि जिस प्रकार से हमें श्री कुन्दकुन्द आचार्य के वचन प्रमाण हैं उसी प्रकार से श्री गुणधर आचार्य, श्री पुष्पदंत और श्री भूतबलि आचार्य के वचन भी प्रमाण होने चाहिये क्योंकि श्री गुणधर आचार्य का ‘कषायपाहुड़’कषायपाहुड़ सुत्त पृ. १। नामक सिद्धांत ग्रंंथ तो द्वादशांग का अंश है जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है कि-
पुव्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिये। पेज्जं पाहुडम्मि दु हवदि कसायाणं पाहुडं णाम।।१।।
पाँचवें (ज्ञानप्रवाद) पूर्व की दसवीं वस्तु में ‘पेज्जपाहुड़’ नामक तीसरा अधिकार है उससे यह ‘कषायपाहुड़’ उत्पन्न हुआ है। ऐसे ही ‘षट्खंडागम’ सिद्धांत ग्रंथ भी द्वितीय अग्रायणीय पूर्व के चयनलब्धि नामक पाँचवें अर्थाधिकार के चौथे प्राभृत से निकला हुआ है। इसका नाम ‘कर्मप्रकृतिमहाप्राभृत’ है। इन दोनों ग्रंथों की धवला-जयधवला नाम की टीका श्री वीरसेनाचार्य कृत है। वर्तमान में ये धवल, जयधवल ग्रंथ सर्वोपरि होने से सर्वमान्य हैं। इसी तरह से उमास्वामी आचार्य कृत तत्त्वार्थसूत्र भी महाशास्त्र के नाम से ही सर्वमान्य है। ऐसे ही और भी अनेक प्रमुख ग्रंथों के विषय में समझ लेना चाहिए। यहाँ सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति यह कार्य है, उसके लिये गुरु उपदेश आदि बहिरंग कारण हैं तथा दर्शनमोहनीय आदि का उपशम, क्षयोपशम या क्षय होना सो अंतरंग कारण या करण है। अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यजीव संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त हो तो वह चारों गतियों में भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्रकट कर सकता है। धवला की छठी पुस्तक में सम्यक्त्व के कारणों का बहुत ही सुंदर विवेचन है। उसी को यहाँ देखिये-
नारकी मिथ्यादृष्टि जीव तीन कारणों से प्रथमप्रथमोपशम सम्यक्त्व। सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं।।७।।
शंका –यह प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति रूप कार्य तीन कारणों से किस प्रकार उत्पन्न हो सकता है ?
समाधान –ऐसा नहीं कहना, क्योंकि मुद्गर, लकड़ी, दंड, स्तम्भ, शिला, भूमि व घटरूप विरोधरहित करणों से खप्पड़ों की उत्पत्तिरूप कार्य देखा जाता है। ऐसा ही यहाँ समझना।
शंका –वे तीन कारण कौन से हैं ?
समाधान – कितने ही नारकी जीव जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही वेदना से अभिभूत होकर सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं।।८।।
शंका –धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्व हो जावे सो ठीक है किन्तु जातिस्मरण कारण समझ में नहीं आया, चूँकि सभी नारकी जीव विभंगज्ञान के द्वारा एक, दो या तीन आदि भवों को जानते हैं, इसलिये सभी के जातिस्मरण होता है पुन: सभी के सम्यक्त्व प्रकट हो जाना चाहिये ?
समाधान – ऐसी बात नहीं है, सामान्य रूप से भवस्मरण के द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु यदि किसी ने पूर्वभव में धर्मबुद्धि से कुछ अनुष्ठान किये थे और वे वास्तविक धर्मरूप न होने से उनका फल नहीं मिल सका ऐसा जानकर ही कदाचित् किसी को सम्यक्त्व उत्पन्न हो गया हो तो वह जातिस्मरणनिमित्तक कहलाता है और इस प्रकार की बुद्धि सब नारकी जीवों के होती नहीं है, क्योंकि तीव्र मिथ्यात्व के उदय के वशीभूत नारकी जीवों के पूर्वभवों का स्मरण होते हुए भी उक्त प्रकार के उपयोग का अभाव है। अत: इस प्रकार जातिस्मरण प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण है।
शंका – नाारकी जीवों के धर्मश्रवण किस प्रकार संभव है, क्योंकि वहाँ तो ऋषियों के गमन का अभाव है ?
समाधान –कोई-कोई सम्यग्दृष्टि देव किसी नारकी को अपने पूर्वभव का सम्बंधी जान लेते हैं और यदि उसको धर्म में लगाना चाहते हैं तो वे वहाँ नरकों में जाकर धर्मोपदेश देकर सम्यक्त्व ग्रहण करा देते हैं।
शंका –वेदना का अनुभवन सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण नहीं हो सकता, क्योंकि वह अनुभवन तो सब नारकियों के साधारण होता है। यदि वह अनुभवन कारण हो तो सभी नारकी जीव सम्यग्दृष्टि हो जावेंगे ?
समाधान –वेदना सामान्य तो सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण नहीं है। किन्तु जिन जीवों के ऐसा उपयोग होता है कि अमुक वेदना अमुक मिथ्यात्व के कारण या अमुक असंयम से उत्पन्न हुई है, उन्हीं जीवों की वेदना सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण होती है अर्थात् पूर्वभव में मैंने अमुक पाप किया जिसके फलस्वरूप मुझे आज यहाँ इस नरक में यह घोर वेदना मिल रही है ऐसा भाव हो जाने से उस पाप और मिथ्यात्व से भय उत्पन्न होता है पुन: सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है परन्तु अन्य जीवों की वेदना वहाँ सम्यक्त्व का कारण नहीं बनती है। ऊपर की तीन पृथ्वियों के नारकी जीवों के लिये ये तीन कारण होते हैं। किन्तु नीचे की चार पृथ्वियों में कितने जीव जातिस्मरण से और कितने ही वेदना से अभिभूत होकर सम्यक्त्व उत्पत्ति करते हैं। चूँकि वहाँ देवों के गमन का अभाव होने से धर्मश्रवण कारण असंभव है।
शंका – वहाँ के सम्यग्दृष्टि नारकी जीव ही अन्य दूसरों को धर्मश्रवण क्यों नहीं करा देते ?
समाधान – भवसम्बन्ध से या पूर्ववैर के संबंध से परस्पर विरोधी हुये नारकी जीवों के अनुगृह्य-अनुग्राहक भाव उत्पन्न होना असम्भव है अर्थात् नारकी परस्पर में एक दूसरे के प्रति उपकार का भाव ही नहीं कर पाते हैं ऐसा कुछ उस नरक पर्याय का ही प्रभाव है। तिर्यंचों में एकेन्द्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इनके सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है तथा सम्मूच्र्छन तिर्यंचों के भी प्रथम उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करने की योग्यता नहीं है। अत: गर्भ से जन्म लेने वाले पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही इस सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं। वे बहुत से दिवस पृथक्त्व के व्यतीत हो जाने पर तीन कारणोें से सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही जिनबिम्बों के दर्शन करके।
शंका –जनबिम्ब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण किस प्रकार से है ?
समाधान – जनबिम्ब के दर्शन से निधत्त और निकाचितरूप भी मिथ्यात्व आदि कर्मसमूह का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्ब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति का कारण होता है।
जिनेन्द्रों के दर्शन से पापसंघातरूपी कुंजर के सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार कि वङ्का के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं। मनुष्यों में गर्भज पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि मनुष्य ही इस प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करते हैं, सम्मूच्र्छन और अपर्याप्तक नहीं। ये मनुष्य आठ वर्ष की उम्र से लेकर किसी भी काल में तीन कारणों से सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं, उसके नीचे के काल में नहीं। कितने ही मनुष्य जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही जिनबिम्ब के दर्शन करके सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेते हैं।
शंका –जनमहिमा को देखकर भी कितने ही मनुष्य प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं।
समाधान – जिनमहिमादर्शन का जिनबिम्बदर्शन में अंतर्भाव हो जाता है अथवा मिथ्यादृष्टि मनुष्यों के आकाश में गमन करने की शक्ति न होने से उनके चतुर्विध देवनिकायों के द्वारा किये जाने वाले नंदीश्वरद्वीपवर्ती जिनेन्द्र प्रतिमाओं के महामहोत्सवों का देखना सम्भव नहीं है, इसलिए उनके जिनमहिमादर्शनरूप कारण का अभाव है। किन्तु मेरुपर्वत पर किये जाने वाले जिनेन्द्र महोत्सवों को विद्याधर मिथ्यादृष्टि देखते हैं, इसलिये उपर्युक्त अर्थ नहीं कहना चाहिए, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। अतएव पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना योग्य है।
शंका –लब्धिसम्पन्न ऋषियों का दर्शन भी तो प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण होता है, पुन: इस कारण को यहाँ पृथक रूप से क्यों नहीं कहा ?
समाधान –नहीं, क्योंकि लब्धिसंपन्न ऋषियों के दर्शन का भी जिनबिम्ब दर्शन में ही अंतर्भाव हो जाता है। ऊर्जयंत पर्वत तथा चंपापुर व पावापुर आदि के दर्शन को भी जिनबिम्ब दर्शन के भीतर ही ग्रहण कर लेना चाहिये। क्यों ? क्योंकि उक्त प्रदेशवर्ती जिनबिम्बों के दर्शन तथा जिन भगवान के मोक्षगमन के कथन के बिना प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। तत्त्वार्थसूत्र में नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व का भी कथन किया गया है, उसका भी पूर्वोक्त कारणों से उत्पन्न हुये सम्यक्त्व में ही अंतर्भाव कर लेना चाहिए क्योंकि जातिस्मरण और जिनबिम्बदर्शन के बिना उत्पन्न होने वाला निसर्गज नामक प्रथम सम्यक्त्व असंभव है।असंभवादो। (धवला पु. ६, पृ. ४३०)
भावार्थ –निसर्गज सम्यक्त्व के लिये भी जातिस्मरण अथवा जिनबिम्बदर्शन निमित्त होना ही चाहिये, अन्यथा यह सम्यक्त्व भी प्रगट नहीं हो सकता। हाँ! इसमें धर्मोपदेश की अपेक्षा नहीं है। धर्मोपदेश निमित्त से हुआ सम्यक्त्व अधिगमज कहलायेगा। देवों में पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि देव अंतर्मुहूर्त काल से लेकर ऊपर कभी भी प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं, अंतर्मुहूर्त से पहले नहीं। देव चार कारणों से सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं-कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, कितने ही जिनमहिमा देखकर और कितने ही देवों की ऋद्धि देखकर।
शंका –यहाँ जिनबिम्बदर्शन को कारणरूप से क्यों नहीं कहा ?
समाधान –क्योंकि जिनबिम्बदर्शन का जिनमहिमादर्शन में ही अंतर्भाव हो जाता है। कारण कि जिनबिम्ब के बिना जिनमहिमा की उपपत्ति (व्यवस्था) बनती नहीं है।
शंका – स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमायें जिनबिम्ब के बिना की गई देखी जाती हैं, इसलिए जिनमहिमादर्शन में जिनबिम्बदर्शन का अविनाभाव नहीं है ?
समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाओं में भी भावी जिनबिम्ब का दर्शन पाया जाता है अथवा इन महिमाओं में उत्पन्न होने वाला प्रथम सम्यक्त्व जिनबिम्बदर्शन निमित्तक नहीं है, किन्तु जिनगुणश्रवण निमित्तक है।
शंका – देवद्र्धिदर्शन का जातिस्मरण में समावेश क्यों नहीं होता ?
समाधान – नहीं होता, क्योंकि अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब यह विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिन भगवान उपदिष्ट धर्म के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई हैं। तब प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जातिस्मरणनिमित्तक होती है। किन्तु जब सौधर्मेन्द्र आदिक देवों की महाऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दर्शन से संयुक्त संयम पालन करने के फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्व से रहित द्रव्य संयम के फल से इन वाहन आदि नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ तब प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण देर्विद्धदर्शन निमित्तक होता है। इससे जातिस्मरण और देर्विद्धदर्शन ये दोनों कारण एक नहीं हो सकते तथा जातिस्मरण वहाँ पर उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अंतर्मुहूर्त काल के भीतर ही होता है किन्तु देर्विद्धदर्शन उत्पन्न होने के समय से अंतर्मुहूर्त काल के पश्चात् ही होता है इसलिये भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है। ये सम्यक्त्व के चार कारण भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी और प्रथम स्वर्ग से लेकर बारहवें स्वर्गपर्यंत के देवों में होते हैं। आगे आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चार स्वर्गों के देवों में देर्विद्धदर्शन को छोड़कर शेष तीन कारण ही होते हैं।
शंका –यहाँ देर्विद्धदर्शन कारण क्यों नहीं होता ?
समाधान – उन चार स्वर्गों में महद्र्धि से संयुक्त ऊपर के देवों का आगमन नहीं होता, अत: वहाँ यह कारण नहीं होता है और उन्हीं कल्पों में स्थित देवों की महद्र्धि का देखना वहाँ सम्यक्त्व में निमित्त नहीं हो सकता क्योंकि उसी ऋद्धि को बार-बार देखने से विस्मय नहीं होता अथवा वहाँ शुक्ल लेश्या के सद्भाव के कारण महद्र्धि के दर्शन से कोई संक्लेश भाव उत्पन्न नहीं होते। नव ग्रैवेयक के मिथ्यादृष्टि देवों में कितने ही देव जातिस्मरण से और कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, इन दो कारणों से प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं। यहाँ जिनमहिमा दर्शन कारण नहीं है, क्योंकि यहाँ के देव नंदीश्वरादि के महोत्सव देखने नहीं जाते।
शंका –ग्रैवेयकवासी अहमिन्द्रों में धर्मश्रवण किस प्रकार सम्भव है ?
समाधान –नहीं, क्योंकि उनमें परस्पर संलाप होने पर अहमिन्द्रत्व से विरोध नहीं आता अतएव वह संलाप ही धर्मोपदेशरूप से सम्यक्त्वोत्पत्ति का कारण हो जाता है। अनुदिशों से लगाकर सवार्थसिद्धि तक के देव सभी नियम से सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। जिस महान् परमागम ग्रंथ षट्खंडागम के सूत्रों का भगवान महावीर स्वामी की वाणी से सीधा संबंध है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं। उस ग्रंथ के सूत्रों में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के लिए ये निमित्तकारण माने गये हैं। ये निमित्तकारण अंकिचित्कर भी नही हैं क्योंकि इनमें से किसी एक निमित्त के बिना सम्यक्त्वोत्पत्ति असम्भव है। धवलाकार ने तो यहाँ तक कह दिया है कि निसर्गज सम्यक्त्व में भी जातिस्मरण अथवा जिनबिम्बदर्शन इन दोनों में से कोई एक कारण अवश्य ही चाहिये अन्यथा निसर्गज प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति असम्भव है—
इसमें जो ‘असंभवादो’ पद है उस पर विद्वानों को लक्ष्य देना चाहिये। लब्धिसंपन्न मुनिराजों को ‘जिनबिम्बदर्शन’ कारण में गर्भित करना भी बहुत ही महत्त्व की बात है। इससे जिनमुद्राधारी महर्षियों की महत्ता का स्पष्टीकरण सहज ही हो जाता है। इसी प्रकार से अचेतन पर्वत, भूमि, नगर आदि जो कि जिनकल्याणक से पवित्र हो चुके हैं उनकी महिमा भी अचिन्त्य है तभी तो इसमें कहा है कि-‘‘उज्जयंतचंपा-पावाणयरादिदंसणं पि एदेणेव घेत्तव्वं’’ ऊर्जयंत पर्वत, चंपापुरी, पावापुरी नगरी आदि का दर्शन भी जिनबिम्ब दर्शन में ही गर्भित है। यह तीर्थदर्शन भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन बहिरंग कारणों के मिलने पर ही अंतरंग में दर्शनमोहनीय का उपशम या क्षयोपशम आदि होता है अन्यथा नहीं, चूँकि जब निसर्गज सम्यक्त्व में भी बाह्य कारण के बिना ‘असंभवादो’ शब्द कह दिया है तो फिर इससे और अधिक निमित्तकारणों की विशेषता के लिये क्या प्रमाण हो सकेगा ? श्री कुन्दकुन्ददेव भी सम्यक्त्व के अंतरंग और बहिरंग हेतु को बताते हुए कहते हैं-
जिनसूत्र और उसके जानने वाले पुरुष (महर्षि) सम्यक्त्व के लिये बाह्य निमित्त हैं और दर्शनमोहनीय का क्षय, क्षयोपशम आदि अंतरंग हेतु है। द्वादशांग या उसके अंशरूप सूत्र तथा उन सूत्रों के जानने वाले महर्षिगण-आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तो बाह्य हेतु हैं एवं दर्शनमोहनीय का क्षय आदि अंतरंग हेतु हैं। इस गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि परम आध्यात्मिक महर्षि श्री कुन्दकुन्ददेव भी सम्यक्त्व उत्पत्ति के लिये बहिरंग निमित्तकारण और अंतरंग निमित्तकारण को मानते हैं। चूँकि इन अंतरंग-बहिरंग निमित्तों के बिना सम्यक्त्व असंभव है।
शंका –जनबिम्बदर्शन आदि बाह्य कारणों में इतनी सामथ्र्य हो जावे कि वे दर्शनमोह आदि सात प्रकृतियों का उपशम आदि करा देंवे, यह कुछ समझ में नहीं आता है ?
समाधान – यह बात तो ‘षट्खंडागम’ ग्रंथ के सूत्रों से ही स्पष्ट है और आगम को प्रमाण सिद्ध करने के लिये युक्ति आदि की आवश्यकता नहीं रहती है क्योंकि आगम तो स्वयं सर्वज्ञदेव के मुखकमल से निर्गत होने से सर्वोपरि प्रमाण है। फिर भी युक्ति से भी इस बात को अच्छी तरह से समझा जा सकता है। देखो! बाह्य वातावरण-जलवायु आदि का अंतरंग पर कितना प्रभाव पड़ता है। स्वच्छ जल, वायु, औषधि आदि से स्वास्थ्य लाभ होता है और गंदे जल, वायु या अपथ्य सेवन आदि से मलेरिया, हैजा आदि अनेकों रोगों के प्रकोप उत्पन्न हो जाते हैं। फूलों के बगीचे में प्रवेश करने से बिना इच्छा के भी फूलों की सुगंधि नाक में प्रवेश कर जाती है तथा मिट्टी के तेल, पेट्रोल आदि की दुर्गन्धि से प्राय: बहुत से लोगों को वमन तक हो जाता है। इष्ट वस्तु के वियोग आदि से चिन्ता होकर मन में क्षोभ बना रहता है, प्रिय वस्तु के संयोग से हृदय आनंद से विभोर हो जाता है। अचेतन वस्तुयें अचेतन पर भी अपना विशेष प्रभाव डाल देती हैं। चुंबक लोहे को अपनी ओर खींच लेता है। विष मारणशक्ति को रखते हुये भी कुछ उचित वस्तुओं के मिश्रण से रसायन बन जाता है। जब ऐसे-ऐेसे अगणित उदाहरण लोकव्यवहार में देखे जाते हैं तब पुन: जिनबिम्बदर्शन आदि बाह्य कारण अंतरंग के दर्शनमोह आदि के उपशम में निमित्त बन जावें इसमें क्या आश्चर्य है ? आचार्यदेव ने तो बलपूर्वक कहा है कि ‘जिनबिम्बदर्शन’ में मिथ्यात्व जैसे कर्म के नष्ट कर देने की सामथ्र्य है, उसे क्यों न माना जाय ?
शंका – तब तो जिनबिम्ब के दर्शन करने वाले सभी को सम्यक्त्व हो जाना चाहिये ?
समाधान – यह बात पहले ही कही जा चुकी है कि कारण के होने पर कार्य होता है; नहीं भी होता है, किन्तु कारण के बिना कार्य का होना असंभव है। अत: ये सब बाह्य कारण ही हैं न कि करण। हाँ, जिनबिम्बदर्शन’ निरर्थक नहीं हो सकता है इससे कदाचित् सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं भी हुई तो भी अनंत-अनंत जन्म के संचित पापकर्म समूह का नाश होकर महान् पुण्य कर्म का संचय होना पाया ही जाता है। कहा भी है-
एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गिंत निवारयितुं। पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिन:।।
जिनेन्द्रदेव के चरणों का स्मरण अनंत-अनंत संसार की परम्परा को समाप्त करने में समर्थ है, वही मेरे लिये शरण है। यह एक जिनभक्ति ही विद्वानों के दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य को परिपूर्ण करने में और मुक्तिलक्ष्मी को देने में समर्थ है। ऐसे ही अन्य जो भी कारण हैं वे दर्शनमोह आदि के उपशम में निमित्त बन जाते हैं इसलिये श्री पुष्पदंत आचार्य ने इन्हें सूत्र में कहा है।
सम्यक्त्व प्राप्ति के लिये पाँचलब्धि
औपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण सबसे पहले अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को उपशम सम्यक्त्व ही उत्पन्न होता है। कषायपाहुड़ नामक परमागम में कहते हैं-‘‘दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाला जीव चारों ही गतियों में जानना चाहिए। वह जीव नियम से पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक होता है। इंद्रक, श्रेणीबद्ध आदि सर्व नरकों में, सर्व प्रकार के भवनवासी देवों में, सर्वद्वीप और समुद्रों में, व्यंतर देवों में, समस्त ज्योतिषी देवों में, सौधर्म स्वर्ग से लेकर नव ग्रैवेयक तक के सर्व विमानवासी देवों में, आभियोग्य अर्थात् वाहन आदि कुत्सित कर्म में नियुक्त वाहन देवों में, उनसे भिन्न किल्विषक आदि अनुत्तम तथा पारिषद आदि उत्तम देवों में दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम होता है’’ कषायपाहुड़ गाथा ९५, ९६। ।।९५-९६।।
भावार्थ- ‘सर्वद्वीप और समुद्रों में’ इस वाक्य से ऐसा समझना कि अढ़ाई द्वीपवर्ती संख्यात या असंख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्य और तिर्यंचों के प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करने की योग्यता है किन्तु आगे के द्वीप- समुद्रों में यदि यहाँ के तिर्यंचों को कोई पूर्वभव का वैरी देव उठाकर डाल देवे, तो उन जीवों के सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता है। धवलाकार सम्यक्त्व के लिए पाँच प्रकार की लब्धियों का निरूपण करते हैं-‘‘क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ये पाँच लब्धियाँ होती हैं। इनमें पहली चार तो सामान्य हैं अर्थात् भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीवों के होती हैं किन्तु करणलब्धि सम्यक्त्व होने के समय ही होती है।’’धवला पु. ६, पृ. २०३।
क्षयोपशमलब्धि- पूर्वसंचित कर्मों के मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनंतगुणहीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं, उस समय क्षयोपशमलब्धि होती है।
भावार्थ- कर्मों के मैलरूप जो अशुभ ज्ञानावरणादि समूह उनका अनुभाग जिस काल में समय-समय अनंतगुणा क्रम से घटता हुआ उदय को प्राप्त होता है उस काल में क्षयोपशमलब्धि होती है। विशुद्धिलब्धि – प्रतिसमय अनंतगुणित हीन क्रम से उदीरित अनुभाग स्पर्धकों से उत्पन्न हुआ साता आदि शुभ कर्मों के बंध का निमित्तभूत और असाता आदि कर्मों के बंध का विरोधी जो जीव का परिणाम है उसे fिवशुद्धि कहते हैं। उसकी प्राप्ति का नाम विशुद्धिलब्धि है। भावार्थ – पहली क्षयोपशम लब्धि से उत्पन्न हुआ जो जीव के साता आदि शुभ प्रकृतियों के बंधने का कारणरूप शुभ परिणाम उसकी जो प्राप्ति वह विशुद्धिलब्धि है क्योंकि अशुभ कर्म का अनुभाग घटने से संक्लेश की हानि और उसके विपक्षी विशुद्धि की वृद्धि होना स्वाभाविक ही है। देशनालब्धि – छह द्रव्य और नव पदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत आचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं। विशेषार्थ – लब्धिसार में कहते हैं कि-‘‘छह द्रव्य और नव पदार्थों का उपदेश देने वाले आचार्य का लाभ मिलना देशनालब्धि है अथवा उनके द्वारा उपदेशित पदार्थों के धारण करने का लाभ होना यह तृतीय लब्धि है। आचार्य, उपाध्याय आदि छह द्रव्यादि का उपदेश करने वाले हैं उनका जो मिलना है वही देशना की प्राप्ति है अथवा चिर अतीत काल में उपदेशित पदार्थ के धारण करने का लाभ होना वह देशनालब्धि होती है। गाथा में ‘तु’ शब्द है उससे यह अर्थ समझना कि उपदेश करने वालों से रहित नरक आदि पर्यायों में पूर्वभव में सुनकर धारण किया हुआ जो तत्त्वों का अर्थ है उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। ऐसा यहाँ सूचित किया गया है
छद्दव्वणवपयत्थोपदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो। देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्धी दु।।६।।
टीका…..सप्ततत्त्वान्यत्रैवांतर्भूतानि तेषामुपदेशकरा: आचार्योपाध्यायादय:, तेषां लाभो यस्तद्देशनाप्राप्ति: चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारणलाभो वा स देशनालब्धिर्भवति तु शब्देनोपदैशकरहितेषु नारकादिभवेषु पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कारबलात् सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति, इति सूच्यते। (लब्धिसार)।’’
प्रायोग्यलब्धि – सर्व कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग को घात करके अंत:कोड़ाकोड़ी स्थिति में और द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान करने को प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। क्योंकि इन अवस्थाओं के होने पर करण अर्थात् पाँचवीं करणलब्धि के योग्य भाव पाये जाते हैं।
विशेषार्थ –यहाँ पर ‘अनुभाग को घात करके द्विस्थानीय अवस्थान करना, ऐसा जो कहा है उसका अभिप्राय यह है कि घातिया कर्मों की अनुभाग शक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल सदृश चार प्रकार की होती है। अघातिया कर्मों में दो विभाग हैं-पुण्यप्रकृतिरूप और पापप्रकृतिरूप। पुण्यप्रकृतियों की अनुभाग शक्ति गुड़, खांड, शक्कर और अमृत के समान होती है और पापरूप अघातिया कर्मों की अनुभाग शक्ति नीम, कांजीर, विष और हलाहल के समान हीनाधिकता लिये हुए होती है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव प्रायोग्यलब्धि के द्वारा घातिया कर्मों के अनुभाग को घटाकर लता और दारु इन दो स्थानों में तथा अघातिया कर्मों की पापरूप प्रकृतियों के अनुभाग को नीम और कांजीर इन दो स्थानों में अवस्थित करता है। इसी को द्विस्थानीय अनुभाग में अवस्थान कहते हैंइन चार लब्धियों का वर्णन धवला पु.६, पृ.२०४ के आधार से है। लब्धिसार में कहते हैं कि पूर्वोक्त तीन लब्धि से संयुक्त जीव प्रतिसमय विशुद्धि को बढ़ाता हुआ आयु के बिना सात कर्मों की अंत:कोड़ाकोड़ी मात्र स्थिति अवशेष कर देता है।….पूर्व में अनुभाग था उसमें अनंत का भाग देने से बहुत भागमात्र अनुभाग को छेदकर अवशेष रहे अनुभाग में प्राप्त करा देता है। इस कार्य को करने की योग्यता की प्राप्ति ही प्रायोग्यलब्धि है।
चूँकि विशुद्धि से शुभ प्रकृतियों का अनुभाग खंडन नहीं होता है। संक्लेश परिणाम वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के जिस समय कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबंध हो रहा है और उत्कृष्ट स्थिति अनुभाग प्रदेश का सत्त्व है उस समय उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता नहीं है। ऐसे जघन्य स्थितिबंध आदि तो क्षपक श्रेणी में होते हैंं अत: वहाँ तो क्षायिक सम्यक्त्व है पुन: इस सम्यक्त्व की बात ही नहीं उठती। अत: प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सन्मुख होता हुआ यह मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्धि की वृद्धि करता हुआ प्रायोग्यलब्धि के पहले समय से लेकर पूर्वस्थिति बंध के संख्यातवें भाग ऐसी अंत:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण आयु के बिना सात कर्मों की स्थिति बाँधता है। इस प्रायोग्यलब्धि में बहुत सी प्रक्रियाएँ होती हैं उन्हें लब्धिसार तथा धवला ग्रंथ आदि से विस्तारपूर्वक समझना चाहिये।
शंका – सूत्र में केवल काललब्धि ही कही गई है, उसमें इन शेष लब्धियों का होना कैसे संभव है ?
समाधान – ऐसी बात नहीं है, क्योंकि प्रतिसमय अनंतगुणा हीन अनुभाग की उदीरणा का होना, अनंतगुणित क्रम द्वारा वृद्धिंगत विशुद्धि का होना और आचार्य के उपदेश की प्राप्ति का होना उसी एक काललब्धि में सम्भव है। अर्थात् उक्त चारों लब्धियों की प्राप्ति एक काललब्धि के ही आधीन है धवला पु. ६, पृ. २०५।। चतुर्थ प्रायोग्यलब्धि में ही प्रकृति बंधापसरण के चौंतीस स्थान क्रम से होते हैं। उन चौंतीस स्थानों में कौन-कौन सी प्रकृतियों का व्युच्छेद होता है, उनके नाम देखिये- १. नरकायु का बंधापसरण, २. तिर्यंचायु, ३. मनुष्यायु, ४. देवायु, ५. नरकगति व नरकगत्यानुपूर्वी, ६. संयुक्तरूप से सूक्ष्म अपर्याप्त, साधारण, ७. संयुक्त सूक्ष्म, अपर्याप्त प्रत्येक, ८. संयुक्त बादर, अपर्याप्त साधारण, ९. संयुक्त बादर, अपर्याप्त प्रत्येक, १०. संयुक्त द्वीन्द्रिय जाति अपर्याप्त, ११. संयुक्त त्रींद्रिय अपर्याप्त, १२. संयुक्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, १३. संयुक्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, १४. संयुक्त संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, १५. संयुक्त सूक्ष्म पर्याप्त साधारण, १६. संयुक्त सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक, १७. संयुक्त बादर पर्याप्त साधारण, १८. संयुक्त बादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रिय आतप स्थावर, १९. संयुक्त द्वीन्द्रिय पर्याप्त, २०. संयुक्त त्रीन्द्रिय पर्याप्त, २१. संयुक्त चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, २२. संयुक्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, २३. संयुक्त तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, उद्योत, २४. नीच गोत्र, २५. अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दु:स्वर, अनादेय, २६. हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, २७. नपुंसकवेद, २८. वामन संस्थान, कीलकसंहनन, २९. कुब्जकसंस्थान, अद्र्धनाराचसंहनन, ३०. स्त्रीवेद, ३१. स्वातिसंस्थान, नाराचसंहनन, ३२. न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान वङ्कानाराचसंहनन, ३३. मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिकआंगोपांग, वङ्कावृषभनाराचसंहनन, ३४. अस्थिर, अशुभ, अयश:कीर्ति, अरति, शोक, असाता का बंधापसरण। ये ३४ बंधापसरण मनुष्य और तिर्यंचों के होते हैं। नारकी व देवों के यथायोग्य कोई-कोई होते हैं सब नहीं। इन बंधापसरणों में व्युच्छेद को प्राप्त हुई प्रकृतियाँ उपशम सम्यक्त्व होने तक नहीं बंधती हैं। इनमें से बहुत सी प्रकृतियाँ ऐसी भी हैं जो कि आगे के गुणस्थानों में बंधती हैंं। जैसे-अस्थिर, अशुभ, असाता आदि छठे तक बंधती हैं, छठे के अंत में उनकी व्युच्छित्ति होती है। यहाँ खास बात समझने की यही है कि इस प्रायोग्यलब्धि में परिणाम इतने निर्मल हो जाते हैं कि इन उपर्युक्त प्रकृतियों का बंध रुक जाता है। यह लब्धि भव्य और अभव्य दोनों में समान है अर्थात् अभव्य भी यहाँ तक स्थिति को पा सकते हैं किन्तु करणलब्धि उनके नहीं हो सकती है।
करणलब्धि- इस प्रकार स्थिति और अनुभागों के कांडक घात को बहुत बार करके ‘गुरु के उपदेश के बल से’धवला पु. ६, पृ.२०६। अथवा उसके बिना भी अभव्य जीवों के योग्य विशुद्धियों को व्यतीत करके भव्य जीवों के योग्य अध:प्रवृत्तकरण संज्ञा वाली विशुद्धि में भव्य जीव परिणत होता है अर्थात् करण नाम परिणामों का है। इस करणलब्धि के तीन भेद हैं-अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण।
अध:करण- जिस भाव में वर्तमान जीवों के उपरितन समयवर्ती परिणाम अधस्तन समयवर्ती जीवों के साथ संख्या और विशुद्धि की अपेक्षा सदृश होते हैं, उन भावों के समुदाय को अध:करण कहते हैं। इस अध:करण का काल अंतर्मुहूर्त है और परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं।
अपूर्वकरण- जस काल में प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि को लिये हुये अपूर्व-अपूर्व परिणाम होते हैं, उन परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्वकरण के विभिन्न समयों में वर्तमान जीवों के परिणाम सदृश नहीं होेते, किन्तु विसदृश या असमान और अनंतगुणी विशुद्धता से युक्त पाये जाते हैं। अध:प्रवृत्तकरण की अपेक्षा इसका काल अल्प है किन्तु परिणाम उससे असंख्यात लोकगुणित हैं।
अनिवृत्तिकरण- इसमें एक समयवर्ती जीव के एक ही परिणाम पाया जाता है और एक समयवर्ती अनेक जीवों के भी एक सदृश ही परिणाम पाये जाते हैं। एक कालवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति, भेद या विसदृशता नहीं पायी जाती है इसीलिये उन्हें अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इसके परिणामों की संख्या इसके काल के समयों के समान ही है क्योंकि इस अनिवृत्तिकरण काल के समय-समय में एक-एक ही परिणाम होते हैं। इन तीनों करणों का काल अन्तर्मुहूर्त है तथा प्रत्येक का काल भी अंतर्मुहूर्त है चूूँकि अंतर्मुहूर्त के असंख्यात भेद होते हैं। अनिवृत्तिकरण का काल थोड़ा है उससे अपूर्वकरण का काल संख्यातगुणा है, उससे संख्यातगुणाकाल अध:प्रवृत्तकरण का है। पहले अध:प्रवृत्तकरण में गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण स्थितिकांडकघात और अनुभागकांडकघात नहीं होता है। यहाँ पर समय-समय में अनंतगुणी विशुद्धता बढ़ती जाती है। साता आदि शुभ प्रकृतियों का प्रतिसमय अनंतगुणा चार स्थानरूप अनुभाग बँधता है तथा असाता आदि अशुभ प्रकृतियों का समय-समय प्रति अनंतवें भागहीन अनुभाग बँधता है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के गुणश्रेणी निर्जरा आदि कार्य होते हैं। अंतिम अनिवृत्तिकरण काल के समाप्त होते ही अनादि मिथ्यादृष्टि के दर्शनमोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति और अनंतानुबंधी चतुष्क इन पाँच प्रकृतियों का उपशम होकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। पुन: उसके प्रथम समय में ही मिथ्यात्व के तीन टुकड़े हो जाते हैं। यथा- ‘यन्त्र अर्थात् घरटी-चक्की से दले हुए कोदों की तरह प्रथमोपशम सम्यक्त्व परिणामरूप यंत्र से मिथ्यात्वरूप कर्मद्रव्य द्रव्यप्रमाण क्रम से असंख्यात गुणा, असंख्यातगुणा कम होकर तीन प्रकार का हो जाता है।
जंतेण कोद्दवं वा पढमुवसमसम्मभावजंतेण। मिच्छं दव्व तु तिधा, असंखगुणहीण-दव्वकमा।।२६।।(गो.क.)
भावार्थ- जैसे कोदों-धान्य विशेष दलने पर तंदुल, कण और भूसी ऐसे तीन रूप हो जाता है उसी तरह मिथ्यात्वरूप कर्मद्रव्य भी उपशम सम्यक्त्वरूपी यंत्र के द्वारा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन स्वरूप परिणमन करता है। इस कारण एक मिथ्यात्वरूप दर्शनमोहनीय कर्म के ही तीन भेद कहे हैं। ‘‘सम्यक्त्व की प्रथम बार प्राप्ति के अनंतर और पश्चात् मिथ्यात्व का उदय होता है किन्तु अप्रथम बार सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् वह भजितव्य है
अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के जो प्रथम ही उपशम सम्यक्त्व का लाभ होता है उसके अंतर्मुहूर्त काल के बाद नियम से मिथ्यात्व का उदय आ जाने से वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है किन्तु सादि मिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने के बाद कोई नियम नहीं है। सम्यक्त्व का काल समाप्त होने पर यदि मिथ्यात्व का उदय आयेगा तो वह मिथ्यात्व में जायेगा, यदि मिश्र प्रकृति का उदय आ जावे तो तृतीय गुणस्थान में जायेगा और यदि सम्यक्त्व प्रकृति का उदय आ जावे तो वेदक सम्यग्दृष्टि हो जावेगा। कदाचित् सम्यक्त्व के काल में ही अनंतानुबंधी में से किसी का उदय आ जाने से सासादन भी हो जावेगा। उपशम सम्यक्त्व का जघन्य व उत्कृष्ट काल अंतर्मुहूर्त ही है। यह सम्यक्त्व एक बार उत्पन्न होकर अंतर्मुहूर्त के बाद समाप्त होकर पुन: संख्यातवर्ष की आयु वाले कर्मभूमिया मनुष्य या तिर्यंचों में उसी भव में नहीं हो सकता है चूँकि इसका अंतराल पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण
अनंतानुबंधी कषाय, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा देशघाती सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व प्रकट होता है उसे क्षायोपशमिक या वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। इसमें भी पूर्वोक्त पाँच लब्धियाँ कारण हैं ही हैं किन्तु सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होना यह मुख्य कारण है। इस सम्यक्त्व की उत्पत्ति में भी अध:प्रवृत्त आदि तीन करण होेते हैं अथवा अनिवृत्तिकरण को छोड़कर दो करण भी होते हैं, कदाचित् बिना करण के भी हो जाता है। जातिस्मरण आदि बाह्य कारण तो सभी के लिये होते ही हैं।
क्षायिक सम्यक्त्व के कारण
‘‘दर्शनमोहनीय का क्षपण करने के लिए आरम्भ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरंभ करता है ? अढ़ाई द्वीप समुद्रों में स्थित पंद्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस काल में जिन, केवली और तीर्थंकर होते हैं वहाँ उस काल में आरंभ करता हैधवला पु. ६, पृ. २४३। ।।११।।’’ कर्मभूमि में उत्पन्न हुआ मनुष्य केवली, श्रुतकेवली या तीर्थंकर के पादमूल में दर्शनमोहनीय का क्षय करना प्रारंभ करता है किन्तु उसकी पूर्ति चारों गतियों में से किसी में भी हो सकती है। धवला टीकाकार ने सूत्र के ‘जिन’ शब्द से चतुर्दशपूर्वधारियों को अर्थात् श्रुतकेवलियों को लिया है। ‘केवली’ पद से तीर्थंकर नामकर्म के उदय से रहित सामान्य केवलियों को लिया है और ‘तीर्थंकर’ पद से साक्षात् तीर्थंकर को लिया है। इनमें से किसी के पादमूल में मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। जिस प्रकार से प्रथमोपशम सम्यक्त्व में अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण से तीन करण आदि क्रियायें होती हैं उसी प्रकार से सर्वप्रथम यह जीव अध:प्रवृत्तकरण आदि तीन करणों को करके अनंतानुबंधी का विसंयोजन करता है। अनंतर अंतर्मुहूर्त काल के व्यतीत होने पर पुन: इन तीन करणों द्वारा दर्शनमोहनीय का क्षपण करता है। ‘‘दर्शनमोहनीय के तीन भेदों में सम्यक्त्व प्रकृति के क्षय में कुछ कार्य शेष रहने पर यह कृतकृत्यवेदक कहलाता है। उस समय कदाचित् आयु के पूर्ण होने से मरण को प्राप्त हो जाता है तो वह पूर्व में बद्ध हुई आयु के अनुसार किसी भी गति में जाकर वहाँ उस क्षायिक सम्यक्त्व को पूर्ण कर लेता है।’धवला पु. ६, पृ. २४७।
शंका – केवली, श्रुतकेवली और तीर्थंकर का सान्निध्य सम्यक्त्व प्राप्ति के लिये बाह्य निमित्त है या अंतरंग ?
समाधान –यह बाह्य निमित्त है। अंतरंग निमित्त तो सात प्रकृतियों का क्षय होना है।
शंका – क्या बाह्य निमित्त इतना बलशाली है कि इसके बिना दर्शनमोह का क्षय न हो सके ?
समाधान –आगम श्रद्धालु के लिये तो यह स्पष्ट ही है। केवली आदि के पादमूल के निकट ही दर्शनमोह और अनंतानुबंधी के नाश करने की योग्यता आ सकती है अन्यथा नहीं।
शंका – तो इनके दर्शन करने वाले सभी को क्षायिक सम्यक्त्व हो जाना चाहिए ?
समाधान –ऐसी बात नहीं है, क्योंकि पहले ही सूत्रकार श्री पुष्पदंत महर्षि ने कह दिया है कि पंद्रह कर्मभूमियों में किसी भी कर्मभूमि में जन्मा हुआ मनुष्य होना चाहिए। इससे देव, तिर्यंच, नारकी, भोगभूमिज मनुष्य तथा कर्मभूमिज महिलाओं का भी निषेध हो जाता है।
शंका – पुन: सभी पुरुषों को तो होना चाहिये ?
समाधान –यह भी बात नहीं है, क्योंकि केवली आदि का सानिध्य कारण है, करण नहीं है। कारण होने पर कार्य होवे ही यह नियम नहीं है फिर भी इन कारणों के बिना कार्य का होना सर्वथा असम्भव है। श्री उमास्वामी आचार्य सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारण को कहते हैं। उत्थानिका-जीवादि पदार्थों को विषय करने वाला यह सम्यग्दर्शन कैसे उत्पन्न होता है ? सो ही बताते हैं-
निसर्गज और अधिगमज सम्यक्त्व
तन्निसर्गादधिगमाद्वा (तत्त्वार्थसूत्र अ.१, सू.३) वह सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगमज इन दो प्रकार से उत्पन्न होता है। ‘‘प्रश्न-सम्यग्दर्शन में दो प्रकार की कल्पना नहीं बन सकती; क्योंकि तत्त्वों का ज्ञान हुए बिना उनका श्रद्धान कैसे हो सकता है ? जैसे कि जब तक रसायन का ज्ञान न हो तब तक उसका श्रद्धान असंभव है। अत: निसर्गज सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है
उत्तर-दोनों सम्यग्दर्शनों में अंतरंग कारण दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम समान है। इसके होने पर जो बाह्योपदेश के बिना प्रगट होता है वह निसर्गज कहलाता है तथा जो परोपदेश से होता है वह अधिगमज। लोक में भी शेर, भेड़िया, चीता में शूरता, क्रूरता आदि परोपदेश के बिना होने से नैसर्गिक कहे जाते हैं। यद्यपि इनमें कर्मोदय की अपेक्षा है फिर भी परोपदेश की अपेक्षा न होने से ही यह स्वाभाविक है। वैसे ही यहाँ पर भी सम्यग्दर्शन में परोपदेश की अपेक्षा न होने पर ही निसर्गता स्वीकार की गई है। प्रश्न-भव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जायेगा। यदि अधिगमज सम्यक्त्व के बल से समय से पहले मोक्ष प्राप्ति की संभावना हो तभी अधिगमज सम्यक्त्व की सार्थकता है। अत: एक निसर्गज सम्यक्त्व ही मानना चाहिए ?
उत्तर-यदि केवल निसर्गज या अधिगमज सम्यक्त्व से मोक्ष माना गया होता तो यह प्रश्न उचित था। पर मोक्ष तो ज्ञान व चारित्र सहित सम्यक्त्व से स्वीकार किया गया है। यहाँ विचार तो यह है कि वह सम्यग्दर्शन किन कारणों से उत्पन्न होता है ? उसमें जो बाह्य उपदेश के बिना प्रकट हो वह निसर्गज और जो बाह्य उपदेश को प्राप्त करके प्रकट हो वह अधिगमज है। अत: यहाँ मोक्ष का प्रश्न ही नहीं है। फिर भव्यों की कर्मनिर्जरा का कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्ष का ही। कोई भव्य संख्यात काल में सिद्ध होंगे, कोई असंख्यात में और कोई अनंतकाल में। कुछ ऐसे भी हैं जो अनंतानंत काल में भी सिद्ध होंगे। अत: भव्य के मोक्ष के काल नियम की बात उचित नहीं है। जो व्यक्ति मात्र ज्ञान या चारित्र से या दो से या तीन कारणों से मोक्ष मानते हैं उनके यहाँ ‘कालानुसार मोक्ष होेगा’ यह प्रश्न ही नहीं होता। यदि सबका काल ही कारण मान लिया जाय तो बाह्य और आभ्यंतर कारण सामग्री का ही लोप हो जाएगा।
इस पंक्ति से उन लोगों को अपनी धारणा सुधार लेनी चाहिए जो ऐसा कहते हैं कि ‘जब सम्यग्दर्शन प्राप्त होगा या मोक्ष जाना होगा तो निमित्त अपने आप उपस्थित हो जावेगा अथवा निमित्त कारण क्या कर सकता है ? इत्यादि। क्योंकि न काल ही मोक्ष का कारण है और न निमित्त ही स्वत: आते हैं किन्तु निमित्तों को तो जुटाने का पुरुषार्थ भी करना पड़ता है। इन दोनों सम्यग्दर्शनों में भी पाँचों लब्धियों को अंतर्गर्भित समझना चाहिये। प्रश्न-निसर्गज सम्यक्त्व के बाह्य उपदेश की अपेक्षा न होने से उसमें देशनालब्धि कैसे घटित होगी ?
उत्तर-इसमें भी गुरुओं का लाभ होना अथवा पूर्व के बहुत कुछ काल पहले से उपदेश का निमित्त रहना या पूर्वभव के उपदेश के संस्कार का निमित्त रहना ही देशनालब्धि है अथवा तत्त्वार्थवृत्तिकार कहते हैं कि ‘‘नैसर्गिकमपि सम्यग्दर्शनं गुरोरक्लेशकारित्वात् स्वाभाविकमुच्यते न तु गुरुपदेशं विना प्रायेण तदपि जायते। तत्त्वार्थवृत्ति, अ.१, सूत्र ३।’’
नैसर्गिक सम्यग्दर्शन भी गुरु को क्लेश करने वाला न होने से अर्थात् गुरु को अधिक परिश्रम कराने वाला न होने से स्वाभाविक कहलाता है किन्तु गुरु उपदेश के बिना प्राय: वह भी नहीं होता है। इस कथन से तो इस निसर्गज सम्यक्त्व में भी गुरु उपदेश विवक्षित है, मात्र इतना ही है कि वह गुरु के किंचित् उपदेश मात्र से हो जाता है। गुरु को उसे समझाने के लिए अधिक उपदेश नहीं करना पड़ता है। इसी प्रकार से सभी सम्यग्दर्शनों में बाह्य कारणों की कुछ न कुछ अपेक्षा रहती ही है यह बात स्पष्ट हो जाती है। अत: यह समझना चाहिये कि इन दोनों सम्यक्त्व के अंतरंग कारण समान होते हुए भी बाह्य कारणों के भेद से ही ये दो भेद हो गये हैं।
पूर्वकथित जातिस्मरण आदि कारण इन पाँच लब्धियों में गर्भित हैं-इन पाँच लब्धियों में से किसी एक के बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इनमें से पूर्व की चार लब्धियाँ तो कारण हैं और अंतिम लब्धि तो कारण है ही है। पूर्व की चार लब्धियों के होने पर सम्यक्त्व होवे ही यह नियम नहीं है किन्तु उनके बिना कभी भी सम्यक्त्व नहीं हो सकता है। प्रश्न-चौथे नरक से लेकर सातवें नरक तक धर्मोपदेश का अभाव होने से तीसरी देशनालब्धि उनमें नहीं पायी जाती है ? उत्तर-ऐसा नहीं समझना, क्योंकि लब्धिसार में स्पष्ट कहा है कि ‘तु’ शब्देनोपदेशकरहितेषु नारकादिभवेषु, पूर्वभवश्रुतधारिततत्त्वार्थस्य संस्कार-बलात्सम्यग्दर्शनप्राप्तिर्भवति, इति सूच्यते।’लब्धिसार गाथा ६ की टीका। गाथा में आये हुए ‘तु’ शब्द से ऐसा समझना कि जहाँ उपदेश करने वाले नहीं जा सकते ऐसे नारक आदि भवों में जीवों ने पूर्वभव में शास्त्र को सुनकर जो तत्त्वों का अर्थ अवधारण किया था उसके संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है ऐसा सूचित किया जाता है। अत: उन चारों नरकों के नारकियों को पूर्वभव में सुने गये गुरु उपदेश का संस्कार ‘देशनालब्धि’ रूप से काम में आता है। प्रश्न-पूर्व में जो जातिस्मरण, वेदनानुभव, धर्मश्रवण, जिनबिम्बदर्शन, जिनमहिमा और देर्विद्ध निरीक्षण कारण बताये गये हैं वे इन पाँच लब्धियों से रहित ही सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण बन जाते हैं क्या ?
उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि जातिस्मरण, वेदनानुभव, जिनबिम्बदर्शन, जिनमहिमादर्शन और देर्विद्धदर्शन इनमें से किसी एक कारण के होने पर धर्म से अनुरागरूप परिणाम होते हैं। उस समय असाता आदि अशुभ प्रकृतियों का अनुभाग घटेगा ही घटेगा और साता आदि शुभ प्रकृतियों का अनुभाग अनंतगुणारूप में बढ़ेगा ही बढ़ेगा तथा इस प्रक्रिया के होने पर कर्मों की स्थिति का अंत:कोड़ाकोड़ी सागर में हो जाना व चौंतीस बंधापसरणों के द्वारा तमाम प्रकृतियों का बंध से रुक जाना भी हो जावेगा। अत: इन उपर्युक्त पाँच कारणों में से किसी एक के होने पर क्षयोपशम, विशुद्धि और प्रायोग्य ये तीन लब्धियाँ स्वभावत: हो जावेंगी और देशनालब्धि के लिए तो ऊपर कथित प्रकार से ही समझ लेना चाहिए अर्थात् यदि ‘धर्मश्रवण’ कारण मिला है तब तो देशनालब्धि स्पष्ट ही है। यदि नहीं मिला तो पूर्वभव में गुरुओं के उपदेश का संस्कार इस भव में इस लब्धिरूप से हो जाता है। ‘अथवा तत्त्वों के उपदेष्टा आचार्य, उपाध्याय आदि का मिल जाना भी देशनालब्धि है या बहुत काल पूर्व में यदि उनका उपदेश सुना था और उस उपदेश में कथित पदार्थों के अर्थ का अवधारण किया था तो वह भी उस समय देशनालब्धिरूप माना गया है।’ यही बात तो लब्धिसार की टीका में आई हुई हैं। यथा—
चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थ-धारणलाभो वा स देशनालब्धिर्भवति
लब्धिसार गाथा ६ की टीका।।’’
इस कथन से उनके देशनालब्धि घटित हो जाती है। पुन: उसी समय करणलब्धिरूप परिणाम जो कि कर्मों के उपशम आदिरूप अंतरंग हेतु है उसके होने पर सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है। प्रश्न-यदि किसी मनुष्य या तिर्यंच को जिनबिम्ब का दर्शन करते ही परिणाम गद्गद हुये या मुनिदर्शन करके अथवा उनका उपदेश सुनकर या जातिस्मरण कारण से धर्म में अनुराग उत्पन्न होकर श्रद्धा उत्पन्न हो गई तो उतने अल्पकाल में इन पाँचों लब्धियों का होना कैसे संभव है ?
उत्तर-इन लब्धियों का अंतर्मुहूर्त मात्र काल में हो जाना असम्भव नहीं है। यदि सबके पृथक्-पृथक् काल भी अंतर्मुहूर्त होवें तो भी सबका मिलकर भी अंतर्मुहूर्त मात्र काल हो सकता है। इसमें कोई बाधा नहीं है क्योंकि अंतर्मुहूर्त के असंख्यातों भेद होते हैं। इसलिये सम्यक्त्व के पूर्वोक्त कारणों से जो अनादिमिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशम सम्यक्त्व होना माना है सो उसमें पाँचों लब्धियों को अंतर्गर्भित मानना चाहिए।
काललब्धि
शंका-क्या काललब्धि के बिना सम्यक्त्व हो सकता है ?
समाधान-नाहीं, देखिये-प्रश्न होता है कि ‘‘अनादि मिथ्यादृष्टि भव्यजीव के कर्मोदय से प्राप्त कलुषता के रहते हुए इनका (सात प्रकृतियों का) उपशम कैसे होता है ?’’ तो श्री पूज्यपाद स्वामी उत्तर देते हुए कहते हैं कि ‘‘काललब्ध्यादि-निमित्तत्वात्’’, काललब्धि आदि के निमित्त से इनका उपशम होता है।
शंका-काललब्धि किसे कहते हैं ?
समाधान-कर्म से सहित कोई भी भव्य आत्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण करने योग्य होता है। इससे अधिक काल के शेष रहने पर नहीं होता, यह एक काललब्धि है। दूसरी काललब्धि का संबंध कर्मस्थिति से है। उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर या जघन्य स्थिति वाले कर्मों के हो जाने पर प्रथम सम्यक्त्व की योग्यता नहीं होती है किन्तु जब बंधने वाले कर्मों की स्थिति अंत:कोड़ाकोड़ी सागर पड़ती है और विशुद्ध परिणामों के वश से सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अंत:कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त होती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व के योग्य होता है। एक काललब्धि भव की अपेक्षा होती है-‘‘जो भव्य जीव है, संज्ञी है, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है। ‘आदि’ शब्द से जातिस्मरण आदि को ग्रहण करना चाहिये सर्वार्थसिद्धि अ.२, सूत्र ३।’’ काललब्धि में पूर्वोक्त पाँचों लब्धियाँ गर्भित हैं
शंका-जब काललब्धि के बिना सम्यक्त्व नहीं होता है तो पुन: पूर्व में कही गई पाँच लब्धियों की क्या आवश्यकता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि वे लब्धियाँ आवश्यक हैं ही हैं। हाँ, जब काललब्धि मात्र कही जाती है तब उसमें ये लब्धियाँ अंतर्गर्भित ही समझी जाती हैं। सो ही धवलाकार कहते हैं-
शंका-सूत्र में एक काललब्धि ही प्ररूपित की गई है; उसमें इन शेष लब्धियों का होना कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रतिसमय अनंतगुणहीन अनुभाग की उदीरणा का, अनंतगुणित क्रम द्वारा वर्धमान विशुद्धि का और आचार्य के उपदेश की प्राप्ति का उसी एक काललब्धि में होना सम्भव है अर्थात् उक्त चारों (क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य) लब्धियों की प्राप्ति काललब्धि के ही आधीन है, अत: वे चारों लब्धियाँ काललब्धि में अंतर्निहित हो जाती हैं।धवला पु. ६, पृ.२०५। इस प्रकार से इन पाँचों लब्धियों के बिना सम्यक्त्व की उत्पत्ति असम्भव है।
(इस प्रकार सम्यग्दर्शन के कारण को कहने वाला यह द्वितीय परिच्छेद पूर्ण हुआ।)