जो भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ शुद्ध दृष्टि का अवलम्बन करता है, वही सम्यग्दृष्टि है। जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं।
सम्यग्दृष्टि आत्मा जो कुछ भी करता है, वह उसके कर्मों की निर्जरा के लिए ही होता है। जह विसमुवभुंजंतो, वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि। पुग्गलकम्मस्सुदयं, तह भुंजदि णेव वज्जए णाणी।।
जिस प्रकार वैद्य (औषध रूप में) विष खाता हुआ भी विष से मरता नहीं, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा कर्मोदय के कारण सुख—दु:ख का अनुभव करते हुए भी उनसे बद्ध नहीं होता। उपभोगमिन्द्रियै:, द्रव्याणामचेतनानामितरेषाम्। यत् करोति सम्यग्दृष्टि:, तत् सर्वं निर्जरानिमित्तम्।।
सम्यग्दृष्टि मनुष्य अपनी इन्द्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है। परमाणुमात्रमपि खलु, रागादीनां तु विद्यते यस्य। नापि स जानात्यात्मानं, तु सर्वागमधरोऽपि।। आत्मानमजानन् , अनात्मानं चापि सोऽजानन्। कथं भवति सम्यग्दृष्टि:, जीवाजीवान् अनानन्।।
जिस व्यक्ति में परमाणु भर भी रागादि भाव विद्यमान है, वह समस्त आगम का ज्ञाता होते हुए भी आत्मा को नहीं जानता। आत्मा को न जानने से अनात्मा को भी नहीं जानता। इस तरह जब वह जीव—अजीव तत्त्व को भी नहीं जानता, तब वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?