(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से एक विशेष वार्ता)
चन्दनामती– पूज्य माताजी! वंदामि, आज मैं आपसे सरस्वती-जिनवाणी माता की पूजा, स्तुति से संबंधित कुछ प्रश्न करना चाहती हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी– पूछो, जो पूछना है।
चन्दनामती – कई जगह मंदिरों में सरस्वती देवी की प्रतिमा वेदी में विराजमान देखी जाती है। तो क्या सरस्वती की मूर्ति बनाने का आगम में विधान है?
श्री ज्ञानमती माताजी– हाँ, प्रतिष्ठा ग्रंथों में तो श्रुतदेवी की प्रतिमा बनाने का कथन आया है। मैंने दक्षिण प्रान्त में भी कई मंदिरों में सरस्वती माता की प्रतिमा देखी हैं।
चन्दनामती– लेकिन सरस्वती तो जिनवाणी माता का ही दूसरा नाम है और जिनवाणी शास्त्र रूप ही देखी जाती है। उसे आंगोपांग से सहित देवी का रूप देना कहाँ तक उचित है?
श्री ज्ञानमती माताजी– जिनवाणी को द्वादशांगरूप भी तो माना है। जिन्हें सरस्वती पूजा की जयमाला में सभी लोग पढ़ते हैं। उन बारहों अंगादि से समन्वित श्रुतदेवी की स्थापना करने का विधान बताया है।
धवला में एक श्लोक आया है-
बारह अंगग्गिज्झा वियलिय-मल-मूढ-दंसणुत्तिलया।
विविह-वर-चरण-भूसा पसियउ सुय-देवया सुइरं।। (षट्खण्डागम भाग १, पृ. ६)
अर्थ-जो श्रुतज्ञान के प्रसिद्ध बारह अंगों से ग्रहण करने योग्य हैं अर्थात् बारह अंगों का समूह ही जिसका शरीर है, जो सर्वप्रकार के मल (अतीचार) और तीन मूढ़ताओं से रहित सम्यग्दर्शनरूप उन्नत तिलक से विराजमान है और नाना प्रकार के निर्मल चारित्र ही जिसके आभूषण हैं ऐसी भगवती श्रुतदेवता चिरकाल तक प्रसन्न रहो। इसी प्रकार जयधवला में भी कहा है-
अंगंगबज्झणिम्मी अणाइमज्झंतणिम्मलंगाए।
सुयदेवयअंबाए णमो सया चक्खुमइयाए।।४।। (जयधवला भाग १, पृ. ३)
अर्थ – जिसका आदि, मध्य और अंत से रहित निर्मल शरीर, अंग और अंगबाह्य से निर्मित है और जो सदा चक्षुष्मती अर्थात् जाग्रत चक्षु हैं ऐसी श्रुतदेवी माता को नमस्कार हो।
चन्दनामती– क्या उस श्रुतदेवी को वस्त्र भी पहना सकते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी– हाँ, एक जगह सरस्वती स्तोत्र में भी श्वेत वस्त्र का कथन आया है।
चन्द्रार्वकोटिघटितोज्वलदिव्यमूर्ते, श्रीचन्द्रिकाकलितनिर्मलशुभ्रवासे।
कामार्थ दे च कलहंस समाधिरूढे, वागीश्वरि! प्रतिदिन मम रक्षदेवि।।१।।
इस श्लोक में ‘‘शुभ्रवासे’’ शब्द से यह स्पष्ट होता है कि सरस्वती की प्रतिमा श्वेतवस्त्र से युक्त होती है।
चन्दनामती– क्या वस्त्र सहित सरस्वती की मूर्ति को नमस्कार किया जा सकता है?
श्री ज्ञानमती माताजी– शास्त्र जिनवाणी ग्रंथों के ऊपर भी कपड़े का वेस्टन लपेटा होता है। जैसे उस वस्त्र सहित ग्रंथ को नमस्कार करने में कोई दोष नहीं है, वैसे ही वस्त्र युक्त श्रुतदेवी की प्रतिमा भी नमस्कार के योग्य है। वह श्रुतदेवी कोई भवनवासी या व्यंतरी देवी तो हैं नहीं। उनका श्वेत वस्त्र तो ज्ञान की उज्ज्वलता-निर्मलता का प्रतीक है। ज्ञान के विभिन्न विशेषणों को श्रुतदेवी के विभिन्न अंगों की उपमा दी गई है। इसीलिए उनकी प्रतिमा बनाने की प्राचीन परम्परा चली आ रही है। प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में सरस्वती माता की एक बड़ी सुन्दर स्तुति है जो यहाँ दी जा रही है। यह स्तुति मुझे प्रारंभ से ही अत्यन्त प्रिय है। इसे सभी ज्ञानेच्छु भव्य जीवों को वंठस्थ कर लेना चाहिए तथा सरस्वती प्रतिमा अथवा जिनवाणी के समक्ष प्रतिदिन पढ़ना चाहिए, जिससे अतिशय ज्ञान की वृद्धि होगी।
बारह अंगंगिज्जा, दंसणतिलया चरित्तवत्थहरा।
चोद्दसपुव्वाहरणा, ठावे दव्वाय सुयदेवी।।१।।
आचारशिरसं सूत्र-कृतवक्त्रां सुवंठिकाम्।
स्थानेन समवायांग-व्याख्याप्रज्ञप्तिदोर्लताम् ।।२।।
वाग्देवतां ज्ञातृकथो-पासकाध्ययनस्तनीम्।
अंतकृद्दशसन्नाभि-मनुत्तरदशांगत: ।।३।।
सुनितंबां सुजघनां, प्रश्नव्याकरणश्रुतात्।
विपाकसूत्रदृग्वाद-चरणां चरणांबराम् ।।४।।
सम्यक्त्वतिलकां पूर्व-चतुर्दशविभूषणाम्।
तावत्प्रकीर्णकोदीर्ण-चारुपत्रांकुरश्रियम्।।५।।
आप्तदृष्टप्रवाहौघ-द्रव्यभावाधिदेवताम् ।
परब्रह्मपथादृप्तां, स्यादुत्तिं भुक्तिमुक्तिदाम् ।।६।।
निर्मूलमोहतिमिरक्षपणैकदक्षं, न्यक्षेण सर्वजगदुज्ज्वलनैकतानम् ।
सोषेस्व चिन्मयमहो जिनवाणि ! नूनं, प्राचीमतो जयसि देवि ! तदल्पसूतिम् ।।७।।
आभवादपि दुरासदमेव, श्रायसं सुखमनन्तमचिंत्यम् ।
जायतेऽद्य सुलभं खलु पुंसां, त्वत्प्रसादत इहांब ! नमस्ते।।८।।
चेतश्चमत्कारकरा जनानां, महोदयाश्चाभ्युदया: समस्ता:।
हस्ते कृता: शस्तजनै: प्रसादात्, तवैव लोकांब! नमोस्तु तुभ्यम् ।।९।।
सकलयुवतिसृष्टेरंब ! चूडामणिस्त्वं,
त्वमसि गुणसुपुष्टेर्धर्मसृष्टेश्च मूलम् ।
त्वमसि च जिनवाणि ! स्वेष्टमुक्त्यंगमुख्या,
तदिह तव पदाब्ज, भूरिभक्त्या नमाम:।।१०।।
अर्थ – श्रुतदेवी के बारह अंग हैं, सम्यग्दर्शन यह तिलक है, चारित्र उनका वस्त्र है, चौदहपूर्व उनके आभरण हैं ऐसी कल्पना करके श्रुतदेवी की स्थापना करनी चाहिए।
बारह अंगों में से प्रथम जो ‘आचाराँग’ है, वह श्रुतदेवी-सरस्वती देवी का मस्तक है, ‘सूत्रकृतांग’ मुख है, ‘स्थानांग’ वंठ है, ‘समवायांग’ और ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ ये दोनों अंग उनकी दोनों भुजाएं हैं, ज्ञातृकथांग’ और ‘उपासकाध्ययनांग’ ये दोनों अंग उस सरस्वती के दो स्तन हैं, ‘अंतकृद्दशांग’ यह नाभि है, ‘अनुत्तरदशांग’ श्रुतदेवी का नितंब है, ‘प्रश्नव्याकरणांग’ यह जघन भाग है, ‘विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग’ ये दोनों अंग उन सरस्वती के दोनों पैर हैं। ‘सम्यक्त्व’ यह उनका तिलक है, चौदह पूर्व ये अलंकार हैं और ‘प्रकीर्णक श्रुत’ सुन्दर बेल बूटे सदृश हैं। ऐसी कल्पना करके यहाँ पर द्वादशांग जिनवाणी को सरस्वती देवी के रूप में लिया गया है।
श्री जिनेन्द्रदेव ने सर्व पदार्थों की संपूर्ण पर्यायों को देख लिया है, उन सर्व द्रव्य पर्यायों की यह ‘श्रुतदेवता’ अधिष्ठात्री देवी हैं अर्थात् इनके आश्रय से पदार्थों की सर्व-अवस्थाओं का ज्ञान होता है। परम ब्रह्म के मार्ग का अवलोकन करने वाले लोगों के लिए यह स्याद्वाद के रहस्य को बतलाने वाली है तथा भव्यों के लिए भुक्ति और मुक्ति को देने वाली ऐसी यह सरस्वती माता है।
जो चिन्मय ज्योति संपूर्ण मोहरूपी अंधकार को नष्ट करने वाली है और सर्वजगत् को प्रकाशित करने वाली है। हे जिनवाणि मात:! हे सरस्वती देवि! ऐसी चिन्मय ज्योति को आप उत्पन्न करने वाली हो इसलिए अपने अल्प प्रकाश धारक सूर्य को जन्म देने वाली ऐसी पूर्व दिशा को आपने जीत लिया है।
अनादिकाल से संसार में दुर्लभ ऐसा अचिन्त्य और अनंत मोक्षसुख है, आपके प्रसाद से वह मनुष्यों को प्राप्त हो जाता है इसलिए हे मात:! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
हे मात:! अन्तरंग को आश्चर्यचकित करने वाले स्वर्गादि के जो समस्त अभ्युदय- ऐश्वर्य हैं वे सब आपके प्रसाद से लोगों को प्राप्त हो जाते हैं इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
हे अम्ब! आप सम्पूर्ण स्त्रियों की सृष्टि में चूड़ामणि हो। आपसे ही धर्म की और गुणों की उत्पत्ति होती है। आप मुक्ति के लिए प्रमुख कारण हो, इसलिए मैं अतीव भक्तिपूर्वक आपके चरणकमलों में नमस्कार करता हूँ।