जो तीन जगत् के नाथ जिनेन्द्र भगवान् के मुख से उत्पन्न हुई है, जो तीनों जगत् के जन समूह का हित करने वाली है तथा तीनों लोकों के इन्द्र जिसकी स्तुति करते हैं ऐसी यह सरस्वती मेरे लिये चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।१।।
अखिलनाक—शवाध्वनि—दीपिका, नवनयेषु विरोधविनाशिनी।
मुनिमनोऽम्बुजमोदनभानुभा, चिदुपलब्धिमियं वितनोतु में।।२।।
जो समस्त स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग की दीपिका है नौ नयों के विरोध को नष्ट करने वाली है, तथा मुनियों के मन रूपी कमलों को विकसित करने के लिये जो सूर्य की प्रभा है ऐसा यह सरस्वती मेरे लिये चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।२।।
यतिजनाचरणादिनिरूपणा, द्विदशभेदगता गतदूषणा।
भवभयातपनाशनचन्द्रिका, चिदुपलब्धिमियं वितनोतुमे।।३।।
जो मुनिजनों के आचरण आदि का निरूपण करने वाली है, बारह भेदों में विभक्त है—द्बादशांग रूप है, पूर्वापर विरोध आदि दोषों से रहित है तथा संसार के भयरूपी आतप को नष्ट करने के लिये चाँदनी स्वरूप है ऐसी यह सरस्वती मेरे लिए चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।३।।
गुणसमुद्रविशुद्धपरात्मना, प्रकटनैककथा सुपटीयसी।
जितसुधा निजभक्त—शिवप्रदा, चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे।।४।।
जो गुणों के सागर स्वरूप विशुद्ध परमात्मा को प्रकट करने वाली अत्यन्त चातुर्य पूर्ण कथा है, जिसने अमृत को जीत लिया है तथा जो अपने भक्तों को मोक्ष प्रदान करने वाली है ऐसी यह सरस्वती मेरे लिए चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।४।।
विविधदु:खजले भवसागरे, गदजरादिकमीनसमाकुले।
असुभृतां किल तारणनौसमा, चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे।।५।।
नाना दु:ख रूप जल से युक्त तथा रोग और बुढ़ापा आदि मछलियों से भरे हुए संसार सागर में प्राणियों को पार करने के लिये नौका के समान है ऐसी यह सरस्वती मेरे लिये चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।५।।
गगनपुद्गलधर्मतदन्यवै: सह सदा सगुणांश्चिनेहस:।
कलयतीह नरो यदनुग्रहात् , चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे।।६।।
जिसके अनुग्रह से मनुष्य आकाश, पुद्गल, धर्म और अधर्म के साथ अपने अपने गुणों से सहित जीव और काल द्रव्य को जानता है ऐसी यह सरस्वती मेरे लिये चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।६।।
गुरुरयं हितवाक्यमिदं गुरो: शुभमिदं जगतामथवाशुभम्।
यतिजनो हि यतोऽत्र विलोकते, चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे।।७।।
यह गुरु है, यह जगत् का कल्याण करने वाला गुरु का शुभ वाक्य है अथवा यह अशुभ वाक्य है। मुनिजन जिसके द्वारा इस सबको देखते हैं जानते हैं, ऐसी यह सरस्वती मेरे लिए चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।७।।
त्यजति दुर्मतिमेव शुभे मति, प्रतिदिनं कुरुते च गुणे रतिम्।
जडनरोऽपि ययार्पितधीधन—श्चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे।।८।।
जिसके द्वारा बुद्धि रूपी धन को प्राप्त कर मूर्ख मनुष्य भी दुर्मति को छोड़ देता है, शुभ कार्य में बुद्धि करता है तथा प्रतिदिन गुणों में प्रीति करता है ऐसी यह सरस्वती मेरे लिए चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।८।।
खलु नरस्य मनो रमणीजने, न रमते रमते परमात्मनि।
यदनुभक्तिपरस्य वरस्य वै, चिदुपलब्धिमियं वितनोतु मे।।९।।
जिसकी भक्ति में तत्पर रहने वाले उत्कृष्ट मनुष्य का मन निश्चय से स्त्रीजनों में नहीं रमता है किन्तु परमात्मा में रमता है ऐसी यह सरस्वती मेरे लिये चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।९।।
विविधकाव्यकृते मतिसंभवो, भवति चापि तदर्थविचारणे।
यदनुभक्ति—भरान्वितमानवे, चिदुपलब्धिमियं वितनोतुमे।।१०।।
जिसकी भक्ति से सहित मनुष्य में नाना काव्यों की रचना करने के लिये तथा उनका अर्थ विचार करने में बुद्धि प्रतिभा की उत्पत्ति होती है ऐसी यह सरस्वती मेरे लिए चित्स्वरूप की प्राप्ति करे।।१०।।
योऽहर्निशं पठति मानसमुक्तभार: स्यादेव तस्य भवनीर—समुद्रपार:।
युड्क्ते जिनेन्द्रवचसां हृदये च हार: श्रीज्ञानभूषणमुनि: स्तवनं चकार।।
जो मनुष्य हृदय से काम विकार को दूर कर रात दिन इस स्तोत्र का पाठ करता है वह संसार रूपी समुद्र से पार हो जाता है तथा उसके हृदय में जिनेन्द्र भगवान् के वचनों का हार सुशोभित होता है—उसे जिनवाणी का अच्छा अभ्यास होता है। श्री ज्ञानभूषण मुनि ने यह स्तवन बनाया है।।१।।