‘सरस सलिल’ पत्रिका ने ‘साध्वी’ कहानी में जैन साधुओं और साध्वियों पर उछाला कीचड़
दिल्ली प्रेस पत्र प्रकाशन की सुप्रसिद्ध हिंदी पाक्षिक पत्रिका के अक्टूबर (द्वितीय), २०१४ के अंक ५२२ में पृ. ३८-४० पर ‘साध्वी’ नाम से एक कहानी प्रकाशित की गई है। कहानी के लेखक देवेंद्र कुमार मिश्रा हैं। कहानी में जिस तरह से जैन साध्वी और आचार्य पर कीचड़ उछालने का प्रयास हुआ है। वह नितांत ही आपत्तिजनक और निंदनीय है। कहानी के माध्यम से लेखक ने यह जाहिर करने का कुत्सित प्रयास किया है कि जैन साधु साधना की आड़ में साध्वियों का चारित्र हनन करते हैं और पैसा आदि की कमाई करते हैं। धर्म की आड में धंधा करते हैं जैन साधु। ‘साध्वी’ कहानी में लिखी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार से हैं, जो घोर आपत्तिजनक हैं- -जैन समाज साध्वी प्रज्ञा को देवी का अवतार मानता था। -रजनीश जैन नामक एक गरीब लड़का चातुर्मास के समय मुनियों की सत्संग मंडली की सेवा करता। वह साध्वी प्रज्ञा से प्रेम करता था और उन्हें पत्र लिखा करता था। -देखो, रात के १० बजे हैं, अब तुम जाओ, मुझे आचार्यश्री की सेवा में जाना है।’ -उसे (रजनीश को) सामने की अलमारी में, (साध्वी प्रज्ञा के कमरे में) जो शायद लापरवाही से खुली रह गई थी, सजने संवरने का सामान दिखाई दिया, वह अलमारी के नजदीक पहुँचा। उसे अलमारी में गर्भनिरोधक गोलियाँ, हेयररिमूवर, सीडी दिखाई दी। रजनीश ने ज्यों ही सीडी हाथ में ली, तभी पीछे से कोई बोला ‘ब्लू फिल्म की है’ यह आवाज साध्वी प्रज्ञा की थी। -३ जवान कुंवारी बहनों की शादी, २ छोटे भाइयों की पढ़ाई और मजदूर माता-पिता। मुझे आचार्यश्री ने साध्वी बनाकर पूरे परिवार की जिम्मेदारी ले ली। लाखों करोड़ों रुपये के गुप्तदान से मेरी बहनों की शादी अच्छे घरों में हो गई। आचार्यश्री ने दोनों भाइयों को दुकानें खुलवा दीं। बदले में मुझे दुनिया के सामने साध्वी और रात में आचार्य श्री का बिस्तर गर्म करना पड़ता था। अब तो मेरे खुद के नाम से भी दान, गुप्तदान आने लगे हैं। मैं यहाँ से बहुत दूर अपने नाम से एक बंगला बनवा चुकी हूँ। बैंक में मैंने इतना रुपया जमा कर लिया है कि जिंदगी भर कुछ करने की जरूरत न पड़े। -आपके पास समाज में इज्जत है, पैसा है, भोग है, योग है, फिर मुझसे प्यार या शादी क्यों करोगी ? -तुम क्या समझते हो कि धर्म के ये ठेकेदार मुझें जिंदगी भर इज्जत और पैसा देंगे ? धर्म की सत्ता, राजनीति से भी ज्यादा खतरनाक होती है। जब इन आचार्य श्री को मेरी जैसी दूसरी मिल जाएगी और मुझसे मन भर जाएगा तो ये मुझे खुदकुशी करने के लिए मजबूर कर देंगे। -साध्वी प्रज्ञा भेस बदलकर रजनीश के साथ भाग गई और आर्य समाज मंदिर में जाकर शादी कर ली। उधर आचार्य श्री ने साध्वी के भस्म होने की झूठी खबर फैला दी। एसपी और पत्रकार को ५-५ लाख रुपये भिजवा दिए और इस झूठ को चमत्कार के रूप में प्रचारित कर दिया।
-साध्वी प्रज्ञा रजनीश के साथ शादी के बंधन में बंधकर श्रीमती प्रज्ञा रजनीश जैन बन गई और उतार फेका उसने अधर्म का, व्याभिचार का व्यापार का और साध्वी का मुखौटा। उक्त कहानी के माध्यम से हमारे पूजनीय संतों पर जिस तरह से लांछन लगाया गया है वह अक्षम्य है। मैंने पत्र के संपादक को इस संबंध में एक प लिखकर उक्त कहानी की निंदा करते हुए संपादक और लेखक को इस अपराध के लिए क्षमा माँगने की माँग की है। सब जानते हैं कि जैन धर्म अवतार वाद को नहीं मानता है, फिर भी कहानी में साध्वी प्रज्ञा को अवतार बताया गया है। हमारे साधु रात्रि में मौन रहते हैं और रात्रि में उनके कमरे में महिलाओं का प्रवेश वर्जित रहता है, फिर भी लेखक ने रात्रि १० बजे साध्वी का आचार्यश्री की सेवा करने के लिए कमरे में जाना लिखा है। कहानी में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जैन साधु गरीब लड़कियों की मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें लालच देकर साध्वी का चोला वहना देते हैं और फिर उनका चारित्रिक शोषण करते हैं इसके बदले में पूरे परिवार को आर्थिक मदद देते हैं। धर्म की आड़ में अधर्म करते हैं और चमत्कार के नाम पर अंधविश्वास फैलाते हैं। क्या साध्वी बनना अधर्म का, व्याभिचार का और व्यापार का मुखौटा है ? शायद कहानी के लेखक को जैन संतों की गहन साधना के बारे जानकारी नहीं है। यदि ऐसा होता तो कदापि वह अपनी कलम का दुरुपयोग न करते और न ही इस प्रकार मनगढ़ंत बातें लिखते। एक साध्वी से चातुर्मास में सेवा करने वाला लड़के का प्रेम करना दर्शाना नितांत ही गलत है। चातुर्मास में श्रावक-श्राविकाएँ पूरी श्रद्धा-भक्ति के साथ संतों की सेवा करते हैं। क्या साध्वी चारित्र हनन के लिए बना जाता है ? क्या साधु माल पुआ खाने और पैसा कमाने के लिए बना जाता है ? निश्चित ही यह लेखक की मनगढ़ंत बाते हैं। लेखक को चाहिए कि वह जैन संतों और साध्वियों की साधना का अध्ययन करे और प्रत्यक्ष रूप में उनकी साधना को देखे। यदि ऐसा हुआ तो लेखक की आँखे खुल जाएँगी कि जैन साधु या साध्वी योग के लिए बना जाता है न कि भोग के लिए। सरस सलिल जैसी पत्रिका जो खरी बात लिखने का दावा करती है, उसके द्वारा इस प्रकार की अशोभनीय व निंदनीय तथा घोर आपत्तिजनक कहानी का प्रकाशन करना आखिर क्या दर्शाता है ? हमारी संस्थाओं, विद्वानों, संतों, श्रेष्ठियों, पत्रकारों आदि को चाहिए कि वह इस प्रकार के लेखन का घोर विरोध और प्रतिकार करें तथा पत्रिका के संपादक को विरोध-पत्र लिखें। अन्यथा आगे इस प्रकार के हमले होते रहेंगे। और हम मूक दर्शक बने रहेंगे हमें जागना होगा, संगठित होना होगा अपने धर्म, संस्कृति, आस्था के संरक्षण और संवद्र्धन के लिए।