जो आत्मा भेदाभेदरत्नत्रय को प्राप्त करके शुद्धोपयोग के बल से घाति कर्मों को नष्ट कर देता है। वह आत्मा अनंतवीर्य तथा केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप तेजोमय हो जाता है पुन: उस केवलज्ञानी भगवान के शरीर संबंधी इंद्रियजन्य सुख और दु:ख नहीं रहता है प्रत्युत उसका ज्ञान और सुख अतीन्द्रिय कहलाता है।
इन भगवान के अतीन्द्रिय ज्ञान में कुछ भी परोक्ष नहीं रहता है अर्थात् सर्व लोक-अलोक अपनी त्रैकालिक पर्यायों सहित ज्यों की त्यों प्रत्यक्ष हो जाते हैं। चूँकि एक इंद्रियज्ञान ही ऐसा है कि वह सीमित है और वर्तमानकालीन पदार्थों को विषय करता है तथा भूत-भविष्यत्कालीन पदार्थ जो कि नष्ट हो चुके हैं या अभी उत्पन्न ही नहीं हुए हैं उन्हें नहीं जान सकता है किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान की सामथ्र्य तो इंद्रियज्ञान से परे अचिन्त्य है।
जो पर्यायें विनष्ट हो चुकी हैं एवं अभी उत्पन्न ही नहीं हुई हैं। केवली भगवान उन असद्भूत-अविधान पर्यायों को कैसे जानते हैं।
तलिगेव सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया तासिं।
वट्टंते ते णाणे विसेसदो दव्वजादीणं।।३७।।
उन प्रसिद्ध द्रव्य समूहों की समस्त सद्भूत-वर्तमान और असद्भूत-भूत, भविष्यत पर्यायें तात्कालिक-वर्तमान पर्यायों की तरह अपनी-अपनी विशेषताओं से सहित होकर उस केवलज्ञान मेें प्रतिभाषित होती हैं। यहां पर गाथा में जो तात्कालिक इव पद है वह बहुत ही महत्त्व का है जो कि इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि जैसे वर्तमान के मौजूद पदार्थ उन के ज्ञान में स्पष्ट रूप से झलक रहे हैं। ऐसे ही अविधानरूप-भूत और भविष्यत्कालीन पदार्थ भी उनके ज्ञान में प्रत्यक्षरूप से साक्षात् हो रहे हैं।
इसी बात को आगे और स्पष्ट कर रहे हैं-
जे णेव हि संजाया जे खलु णट्ठा भवीय पज्जाया।
ते होंति असब्भूदा पज्जाया णाणपच्चक्खा।।३८।।
जो पर्यायें वास्तव में उत्पन्न नहीं हुई हैं तथा जो पर्यायें वास्तव में उत्पन्न होकर नष्ट हो चुकी हैं वे असद्भूत-अविधान पर्यायें भी केवलज्ञान में प्रत्यक्षरूप से झलकती हैं।
इसी बात को और भी दृढ़ कर रहे हैं-
जदि पच्चक्खमजायं पज्जायं पलइयं च णाणस्स।
ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति।।३९।।
यदि सजात-अनुत्पन्नभावी पर्यायें एवं प्रलयित-नष्ट हुई भूत पर्यायें केवलज्ञान में प्रत्यक्ष नहीं होवें तो वह ज्ञान दिव्य है ऐसा कौन कहेंगे किन्तु सामान्यज्ञान ही कहेेंगे।
क्योंकि इंद्रियज्ञान ईहा, अवाय आदि पूर्वक ही पदार्थों को जानता है अत: उस ज्ञान द्वारा परोक्ष पदार्थों को जानना असंभव ही है।
किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान अप्रदेशी-कालाणु को, सप्रदेशी-पाँचों अस्तिकायों को, मूर्तिक-पुद्गल और संसारी जीवों को, अजात-अनागत भावी पर्यायों को और प्रलयगत-विनष्ट हुई अतीत पर्यायों को अर्थात् सर्व को जान लेता है और तभी उसका अतीन्द्रिय यह नाम सार्थक है।
भगवान् कुंदकुंददेव इसी बात को और भी सुदृढ़ कर रहे हैं-
जं तलियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं।
अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं।।४७।।
जो अतीन्द्रिय ज्ञान युगपत्-एक साथ ही अपने संपूर्ण आत्मप्रदेशों से तात्कालिक-वर्तमानकालीन या अतात्कालिक-भूत, भविष्यत् विचित्र-अनेक प्रकार और विषम-मूर्त, अमूर्त, चेतन-अचेतन आदि अनेक विलक्षण जातिरूप ऐसे संपूर्ण पदार्थों को जानता है अत: वह ज्ञान क्षायिक कहा जाता है।
किन्तु जो ज्ञान एक समय में ही तीनों काल में और तीनों लोकों के संपूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष नहीं जानता है वह ज्ञान अनंत पर्याय सहित अपने एक आत्मद्रव्य को भी नहीं जान सकता है अर्थात् जो सर्व विश्व को नहीं जान सकता है वह अल्पज्ञ अपने आत्मस्वरूप को भी पूर्णरूप से प्रत्यक्ष नहीं कर पाता है तथा जो अनंत पर्याय वाले अपने एक आत्मद्रव्य को नहीं जानता है वह युगपत् सर्व अनंत द्रव्य समूह को कैसे जान सकेगा अर्थात् जो सब को जानता है वही सर्वज्ञ है वही अपने को जानता है और जो भूत, भविष्यत और वर्तमान संबंधी अनंत पर्यायों से युक्त अपने को जानता है वही सर्वज्ञ है अत: वह सर्व को जानता ही जानता है।
यदि अतीन्द्रिय केवलज्ञान पदार्थों की अपेक्षा रख करके अर्थात् जो पदार्थ विद्यमान हैं क्रम से उन्हीं के आश्रित होकर उत्पन्न होवे तब तो वह ज्ञान नित्य नहीं रहेगा क्योंकि जब पदार्थ नष्ट होंगे तो वह भी नष्ट हो जायेगा पुन: वह ज्ञान क्षायिक कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकेगा और न वह सर्वगत-सर्वव्यापी-सबको जानने वाला ही हो सकेगा किन्तु ऐसा तो माना नहीं जा सकता अत: ज्ञान पदार्थों के आश्रित न होकर भूत-भविष्यत् सभी पदार्थों को एक समय में ही जान लेता है।
और भी देखिए-
तिलणिच्चविसमं सयलं सव्वत्थ संभवं चित्तं।
जुगवं जाणदि जोण्हं अहो हि णाणस्स माहप्पं।।५१।।
जिनेन्द्रदेव का ज्ञान तीनों काल संबंधी, नित्य, विषम-अनेक भेद-प्रभेदरूप, सर्वत्र-सर्व लोक में होने वाले चित्र-अनेक प्रकार के समस्त पदार्थों को युगपत् जान लेता है। अहो! यह सर्वज्ञदेव के ही ज्ञान का माहात्म्य है।
इस महिमाशाली ज्ञान को प्राप्त करने के लिए ही हमारा सर्व पुरुषार्थ है अतएव ऐसे केवलज्ञानी भगवान को मेरा नमस्कार होवे।
य: सर्वाणि चराचराणि विधिवद्र द्र्रव्याणि तेषां गुणान्।
पर्यायानपि भूतभाविभवत: सर्वान् सदा सर्वदा।।
जानीते युगपत् प्रतिक्षणमत: सर्वज्ञ इत्युच्यते।
सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते वीराय तस्मै नम:।।