अष्टसहस्री एक महान् तार्किक ग्रंथ है। इसका मूलाधार देवागमस्तोत्र है। स्वामी समंतभद्राचार्य के द्वारा विरचित गंधहस्ति महाभाष्य का यह देवागमस्तोत्र मंगलाचरण कहलाता है। गंधहस्ति महाभाष्य के सम्बन्ध में अन्य ग्रंथों में ‘उक्तं च’ कहते हुये उद्धरण मिलता है, इसलिए स्वामी समन्तभद्राचार्य के द्वारा तत्त्वार्थ सूत्र के ऊपर एक महान् भाष्य ग्रंथ की रचना की गई है, यह स्पष्ट है, देवागम उसी का यदि मंगलाचरण है तो नि:संदेह वह ग्रंथ भी विद्यानंदि के श्लोकवार्तिकालंकार के समान ही महान तार्किक ग्रंथ होगा, इसे सहज अनुमान कर सकते हैं। आचार्य श्री ने मंगलाचरण की रचना में भी इतनी तर्क पूर्ण दृष्टि रखी है तो मूलग्रंथ में न मालूम कितना रहस्य भरा होगा। जिस ग्रंथ के मंगलाचरण पर अकलंक देव अष्टशती भाष्य की रचना कर सकते हैं और महर्षि विद्यानंदि अष्टसहस्री की रचना करते हैं तो समझना चाहिये कि वह ग्रंथ सामान्य नहीं हो सकता, परन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि आज वह अनुपलब्ध है।
महर्षि समंतभद्र की यह अनुपम कृति है, इसे देवागमस्तोत्र इसलिये कहते हैं कि इसका प्रारम्भ देवागम पद से होता है, जिस प्रकार भक्तामर, कल्याणमन्दिर आदि स्तोत्र उन्हीं पदों से प्रारम्भ होने के कारण उस नाम से कहे जाते हैं, इसी प्रकार यह भी देवागमस्तोत्र कहलाता है। नहीं तो इसे आप्तमीमांसा के नाम से भी कहते हैं। आप्त किस प्रकार होना चाहिये ? आप्त में किन गुणों की आवश्यकता है ? इस बात की सुन्दर मीमांसा इस ग्रंथ में की गई है, अत: इसका नाम ‘‘आप्तमीमांसा’’ सार्थक है।
आप्तमीमांसा समन्तभद्र की एक अर्थगर्भित दुरूह कृति है, उस पर तर्कपूर्ण दृष्टि से अकलंक देव ने अष्टशती नामक वृत्ति लिखी है, यह ग्रंथ आठ सौ श्लोक प्रमाण हैं, अत: इसका नाम अष्टशती पड़ गया है, अकलंक देव ने यह जो ग्रंथ लिखा, वह गंभीर, तर्क पूर्ण एवं अर्थगर्भित है, अनेक स्थानों में विशद व्याख्या न होने के कारण ग्रंथ गांभीर्य को विद्वान् भी समझने में असमर्थ रहे, इसीलिए तार्किक चूड़ामणि विद्यानंदि स्वामी ने अष्टसहस्री नामक आठ हजार श्लोक परिमित ग्रंथ की रचना कर अनेक गुत्थियों को स्वैर शैली से सुलझाया है। कठिन से कठिन विषयों को सरल बनाकर जिज्ञासु हृदयों को आकर्षित ही नहीं, आल्हादित भी किया है। इस देवागम पर वसुनंदि सिद्धान्तदेव के द्वारा विरचित देवागम वृत्ति नामक ग्रंथ भी है जो कि श्लोकों का अर्थमात्र सूचित करता है। इससे स्तोत्र के अर्थ को समझने में कोई बाधा नहीं है, यद्यपि अकलंक या विद्यानंदि के समान गम्भीर तर्क पूर्ण भाषा से ग्रंथ की रचना नहीं है, तथापि अपने स्थान में उसका महत्त्व है इसमें कोई संदेह नहीं है।
यह विद्यानंदि कृत अष्टसहस्री सचमुच में देवागम का विशेष अलंकार है, अत: इसे देवागमालंकार के नाम से भी कहते हैं अथवा अकलंकदेवकृत आप्तमीमांसा को सामने रखकर यह व्याख्यानरूप अलंकार किया गया है, इस दृष्टि से इसे आप्तमीमांसालंकार भी कह सकते हैं। इसका प्रसिद्ध नाम अष्टसहस्री है। शायद इसलिए कि यह आठ हजार श्लोक प्रमाण है। अष्टसहस्री में विद्यानंद स्वामी ने भी इस ग्रंथ को अष्टसहस्री के नाम से यत्र—तत्र उल्लेख किया है।
ग्रंथ की शैली अनूठी है। जैनेतर तर्क ग्रंथों का सूक्ष्म तलस्पर्शी ज्ञान होने के कारण उसके तर्कों को पूर्व पक्ष में रखकर ग्रंथ में अकाट्य युक्तियों के द्वारा उत्तर दिया गया है। ग्रंथकार ने कुमारिल भट्ट, प्रज्ञाकर, धर्मकीर्ति आदि मीमांसक, बौद्ध सिद्धांतों का जिस तर्क के साथ खंडन किया है वह अजोड़ है।
कुमारिल भट्ट ने अपने मीमांसा श्लोकवार्तिक में सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करते हुए लिखा है कि—
सुगतो यदि सर्वज्ञ: कपिलो नेति का प्रमा। तावुभौ यदि सर्वज्ञौ मतभेद: कथं तयो:।।
यदि सुगत सर्वज्ञ है तो कपिल सर्वज्ञ क्यों नहीं है। उसके निषेध में प्रमाण क्या है ? यदि वे दोनों सर्वज्ञ हैं तो उनमें मतभेद क्यों? मतभेद होने के कारण निश्चय से दोनों सर्वज्ञ नहीं हैं यह स्पष्ट है।
अष्टसहस्री को लिखते समय वह मीमांसाश्लोकवार्तिक ग्रंथकार के सामने था, इसलिए उन्होंने भावना, विधि व नियोग को वाक्यार्थ निषेध करने में उसी युक्ति का प्रयोग कर खंडन किया है।
भावना यदि वाक्यार्थो नियोगो नेति का प्रमा तावुभौ यदि वाक्यार्थो हतो भट्टप्रभाकरौ।
कार्येर्थे चोदना ज्ञानं स्वरूपे किन्न तत्प्रमा द्वयोश्चेद्धंत तौ नष्टौ भट्टवेदांतवादिनौ।।
यदि भावना श्रुति वाक्य का अर्थ है तो नियोग नहीं है इसमें क्या प्रमाण है, यदि दोनों ही श्रुतिवाक्य के अर्थ हैं तो भट्ट व प्रभाकर का सिद्धांत नष्ट होता है इसी प्रकार नियोग श्रुतिवाक्य का अर्थ है तो विधि क्यों नहीं है ? इसमें प्रमाण क्या है ? यदि दोनों श्रुतिवाक्य के अर्थ हैं तो भट्ट व वेदांती दोनों का सिद्धांत खंडित हो जाता है।
अष्टसहस्री में स्थान—स्थान पर इसी प्रकार की तर्कणा शैली के द्वारा स्वमत सिद्धांत का मंडन किया गया है। भाषा सौष्ठव, सरलता, युक्तियुक्त कथन, गंभीर शैली, कोमल प्रहार आदि बातों का विचार करने पर समग्र न्यायसंसार में इसकी बराबरी करने वाला अन्य ग्रंथ नहीं है यह कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी।
अष्टसहस्री की तर्कणा शैली अद्वितीय है। खंडन मंडन पद्धति मनोहारिणी है। सूक्ष्मतल स्पर्शी सिद्धान्त का निरूपण है। विद्वत्संसार को चकित करने वाली मीमांसा है।
स्वयं अष्टसहस्री में ग्रंथकार ने ग्रंथ के संबंध में स्पष्ट किया है कि—
स्फुटमकलंकपदं या प्रकटयति परिचेतसामसमम्। दर्शितसमन्तभद्रं साष्टसहस्री सदा जयतु।
अर्थात् अकलंक के अत्यन्त दुर्गम्य पदों का जो स्पष्टीकरण करती है, समंतभद्र की दिशाओं को जो प्रदर्शन करती है वह अष्टसहस्री सदा जयवंत रहे।
इससे स्पष्ट है कि ग्रंथ में स्थान—स्थान पर समंतभद्र के अभिप्रायानुसार अकलंक की अष्टशती के स्पष्ट आशय को व्यक्त किया है। अष्टशती में यह अष्टसहस्री इतनी अनुप्रविष्ट हुई है कि अष्टशती की अनेक पंक्तियाँ अष्टसहस्री में उपलब्ध होती हैं, एवं उनकी विशद व्याख्या इस ग्रंथ में की गई है। इसकी शैली अत्यन्त गंभीर व प्रसन्न हैं, गंभीर इसलिए की वह गूढ़ है, प्रसन्न इसलिए कि स्वयं व दूसरों के लिए खेदजनक नहीं है। सभ्य, मृदु, मधुर, संतुलनात्मक शब्दों से यह ग्रंथित है। इसलिए ग्रंथ में एक स्थान पर कहा गया है। कि—
जीयादष्टसहस्री देवागमसंगतार्थमकलंकम्। गमयन्ती सन्नयत: प्रसन्नगंभीरपदपदवी।।
देवागम स्तोत्र में समंतभद्र ने जिस स्याद्वाद का प्रतिपादन किया है, जिसे अकलंक देव ने समर्थन किया है जिसमें प्रसन्न गंभीर पदों का प्रयोग हुआ है ऐसी आप्तमीमांसालंकृति अष्टसहस्री सदा जयवंत रहे। यह आचार्य के द्वारा की गई स्वप्रशंसा नहीं है, अपितु वस्तु स्थिति का परिचायक है। देवागम की दिशा को प्रतिपादन करने वाला, इसकी तुलना करने वाला अन्य ग्रंथ नहीं है।
इस ग्रंथ में संशय, विपर्यय, वैयधिकरण्य, व्यतिकर आदि दोषों का उद्भावन कर पूर्व पक्ष में परमत का मंडन कर खंडन किया गया है, एवं स्वमत का मंडन किया गया है। सर्वज्ञ अभाव वादियों को करारा उत्तर देते हुए निर्दोष सर्वज्ञ की सिद्धि करते हुए आचार्य ने मनोरम शैली से ग्रंथ को प्रवाहित किया है। नि:संदेह कहा जा सकता है कि अष्टसहस्री का प्रमेय अन्यत्र दुर्लभ है। सिद्धांत पक्ष का समर्थ समर्थन है। इस ग्रंथ के अध्ययन से अनेक विषयों का परिज्ञान हो जाता है। कतिपय विषयों में वह निष्णात विद्वान् बन जाता है। इस गौरवमय व्याख्यान के संबंध में स्वयं ग्रंथकार ने वर्णन किया है कि—
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतै: किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:। विज्ञायेत यथैव स्वसमयपरसमयसद्भाव:।।
हजार शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ है ? केवल एक अष्टसहस्री के सुनने से ही सर्व इष्टार्थ की सिद्धि हो सकती है, जिसके सुनने से स्वसमय क्या है, पर समय क्या है इसका अन्यून बोध हो जाता है। यह इस ग्रंथ का विषय है।
इस ग्रंथ की रचना महर्षि विद्यानंदि ने की है। विद्यानंदि यतिपति के ऐतिह्य का पता लगाने पर ज्ञात होता है कि आप वैदिक ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होने पर भी जैनमार्ग के अकाट्य तर्क व सयुक्तिक कथन से आकर्षित होकर उस पवित्र धर्म में आये एवं अपनी विद्वत्ता व तर्कणा शक्ति का सदुपयोग किया। उन्होंने अपनी विद्वत्ता के द्वारा अनेक न्याय ग्रंथों की रचना कर जैन न्याय संसार की श्री वृद्धि की है।
उनके द्वारा विरचित ग्रंथ संपत्ति का उल्लेख यहाँ पर करना अप्रस्तुत नहीं होगा।
(१) विद्यानन्द महादेय, (२) तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, (३) अष्टसहस्री , (४) युक्त्यनुशासनालंकार, (५) आप्त परीक्षा, (६) प्रमाण परीक्षा, (७) पत्र परीक्षा, (८) सत्यशासन परीक्षा, (९) श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र, इस प्रकार ९ ग्रंथों की रचना का उल्लेख मिलता है, इस ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार कराया जाता है।
विद्यानंद महोदय—
यह विद्यानन्दि आचार्य के द्वारा विरचित शायद प्रथम रचना है, क्योंकि उत्तरवर्ती ग्रंथों में इसका प्राय: उल्लेख आता है, इतना ही नहीं, विस्तार से देखना हो तो विद्यानन्द महोदय में देखो ऐसी सूचना भी इनमें पायी जाती है। परन्तु दुर्भाग्य से आज यह ग्रंथ अनुपलब्ध है। महर्षि विद्यानन्दि के बाद करीब पाँच सौ वर्षों तक यह ग्रंथ उपलब्ध रहा, तत्कालीन आचार्यों ने अपने ग्रंथों में इस ग्रंथ का उद्धरण दिया है।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक—
उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थ सूत्र पर श्लोक व वार्तिकरूप बृहद्भाष्य है। यह निश्चित कहा जा सकता है कि तत्त्वार्थ सूत्र पर जो आज उपलब्ध भाष्य हैं, उनमें सबसे अधिक विद्वत्तापूर्ण है। तत्त्वार्थ सूत्र ही एक ऐसा ग्रंथ रत्न है जिस पर पूज्यपाद, अकलंक, भास्करनन्दी, श्रुतसागर आदि अनेक विद्वानों ने भाष्य की रचना की है। कुमारिल भट्ट के मीमांसक श्लोकवार्तिक का यह बेजोड़ जवाब है, यह विद्यानन्दि यतिपति की अद्वितीय रचना व न्यायशास्त्र की शोभा को बढ़ाने वाली है।
अष्टसहस्री—
प्रकृत ग्रंथ है। यह समन्तभद्र के देवागम स्तोत्र पर अकलंक देव के द्वारा विरचित आप्त मीमांसा पर टीकालंकृत भाष्य है। इस ग्रंथ में आचार्य ने अकलंक ग्रंथ की दुरूह गुत्थियों को अच्छी तरह लीलामात्र से सुलझाया है। पाठकों को इसके अध्ययन से सहज ज्ञान हो जावेगा।
युक्त्यनुशासनालंकार—
आचार्य समन्तभद्र के द्वारा विरचित तर्कपूर्ण स्तोत्र ग्रंथ की यह टीका ग्रंथ है। महर्षि विद्यानंदि ने अपनी ही शैली से इसमें युक्ति प्रयुक्तियों से भगवान् की उपासना की है।
आप्त परीक्षा—
इस ग्रंथ में महर्षि विद्यानन्द ने—
मोक्षमार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।।
इस श्लोक को आधार बनाकर अत्यन्त सरल व सुबोध शैली से आप्त की परीक्षा की है। वस्तुत: अर्हंत ही निर्दोष सर्वज्ञ आप्त हो सकते हैं इस बात की सुन्दर सिद्धि आचार्य देव ने इस ग्रंथ में की है। इसके साथ स्वोपज्ञ टीका होने से ग्रंथ के हृद्य को समझने में बड़ी सहूलियत हो गई है।
प्रमाण परीक्षा—
इस ग्रंथ में इतर दर्शनों के द्वारा प्रतिपादित प्रमाणों के सम्बन्ध में विवेचन करते हुए जैनमत सम्मत प्रमाण के स्वरूप में विशद विवेचन किया गया है। प्रमाणपरीक्षा नाम सार्थक है।
पत्र परीक्षा—
यह विद्यानंदि के द्वारा विरचित गद्य पद्यमय रचना है, इसमें साध्य के लिए उपयुक्त अनुमान प्रमाण के सम्बन्ध में विवेचन करते हुए स्वमत की स्थापना एवं परमत का निराकरण किया गया है। शायद विद्यानंदि को जैनधर्म की निर्दोषता को व्यक्त करने की अत्यन्त आसक्ति ही उत्पन्न हो गई थी।
सत्यशासन परीक्षा—
यह ग्रंथ अपूर्ण उपलब्ध होता है, प्रकाशित भी है, इसमें पुरुषाद्वैत आदि १२ इतर शासनों की परीक्षा करने का संकल्प आचार्य ने व्यक्त किया है, परन्तु ९ की ही मीमांसा की गई है, शायद आचार्य की यह अन्तिम कृति है, बीच में ही आयु का अन्त हो गया हो, इसे पूर्ण न कर सके हों, अनेकांत शासन की परीक्षा का प्रकरण इस ग्रंथ में अनुपलब्ध है, शायद इस प्रकरण को तार्किक विद्यानंदि की लेखनी से हम अत्यधिक सम्पन्न स्थिति में देख सकते थे परन्तु दुर्भाग्य है।
न्याय ग्रंथों की हिन्दी या भाषा टीका करना सरल काम नहीं है। सिद्धान्त और काव्यों का भावांतर सरल व सरस हो जाता है, परन्तु न्याय शास्त्र की पारिभाषिक शैली का भाषानुवाद शुष्क ही नहीं दुरधिगम्य भी हो जाता है। तथापि पूज्य विदुषी आर्यिका गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने इसकी टीका न्यायलोक में उपस्थित कर सचमुच में एक लोकोत्तर कार्य किया है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
बालब्रह्मचारिणी आर्यिका श्री ज्ञानमती जी का क्षयोपशम अलौकिक है, आपने बाल्यकाल से ही विरक्ति को पाकर आचार्य देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की तदनंतर परम पूज्य चारित्र चूड़ामणि आचार्य श्री वीरसागर महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की, संघ में निरन्तर अभीक्ष्णज्ञानोपयोग क्रमबद्ध रूप से शब्द, अलंकार, व्याकरण, न्याय सिद्धान्तों का अध्ययन जारी रहा, केवल पठन की दृष्टि ही नहीं, ग्रंथों के अन्तस्तल में पहुँचकर उनके सूक्ष्म मर्म को समझने के नैपुण्य को उन्होंने प्राप्त किया, विद्यालयों में दसों वर्ष रहकर क्रमबद्ध शास्त्रीय कक्षा तक अध्ययन करने वाले छात्रों में वह योग्यता प्राप्त नहीं होती है, जो योग्यता ग्रंथ का सूक्ष्म तलस्पर्शी ज्ञान गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीजी को प्राप्त हो गई है। इससे यह श्रद्धा दृढ़ीभूत होती है कि सम्यग्दर्शन के साथ सिर्फ ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, चारित्र पूर्वक जो ज्ञान है उसमें विशिष्ट क्षयोपशम की प्राप्ति होती है, तप की प्रखरता से ज्ञान भी निखर उठता है। इस बात के लिए आर्यिका ज्ञानमती माताजी ही निदर्शन हैं। बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, जिस अष्टसहस्री को कष्टसहस्री समझकर विद्यार्थी पठन से विद्वान् पाठन से उपेक्षा करते हैं उस अष्टसहस्री का बिना किसी की सहायता से स्वयं अध्ययन कर अर्थ करना, भाषांतर लिखना, सुबोध अनुवाद का निर्माण करना, यह उनके तप:पूत प्रज्ञातिशय का ही कार्य है, यह सर्व साधारण को साध्य नहीं है। प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में प्राप्त ऐसी साध्वी रत्नों से जैन समाज के साधु समुदाय का मुख उज्ज्वल है, मस्तक ऊँचा है, यह लिखने में हमें जरा भी संकोच नहीं होता है।
टिकैतनगर (उ. प्र.) सदृश छोटे से कस्बे में जन्म होने पर भी सर्व भारत के कोने—कोने में विहार, तत्तत्प्रान्तीय भाषाओं का प्रगाढ़ परिचय, साधु सन्तों के प्रति नितांत भक्ति, विद्वानों के प्रति वात्सल्यमय स्नेह, गुणीजनों के प्रति धर्म स्नेहयुक्त समादर यह माताजी की विशेषता है।
कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत व प्राकृत ग्रंथों में सूक्ष्मतम प्रवेश ही नहीं, अपितु उन भाषाओं में काव्य रचना की योग्यता भी माताजी में है अनेक काव्यमय ग्रंथ उनकी ज्ञान गंगा से प्रवाहित हुए हैं एवं जनादर को पा चुके हैं। विपुल प्रमाण में ज्ञानदान करने के कारण उनका नाम सचमुच में सार्थक है।
जैसे अपने धन-मकान-जमीन आदि के साथ अन्याय होने पर व्यक्ति न्यायालय का दरवाजा खटखटाता है और योग्य न्याय मिल जाने पर वह न्यायाधीश को धन्यवाद देता है, उसी प्रकार आत्मा के साथ, जिनधर्म के सर्वोदयी सिद्धान्तों के साथ जब एकान्तवादी मतावलम्बियों के द्वारा अन्यायजनक प्रतिपादन होता है, तब अनेकान्त, स्याद्वादशैली में जैनाचार्य उसका खण्डन करके न्याय का पक्ष पुष्ट करते हैं। ऐसे ही अनेक प्रकार के एकान्तपक्षों का उत्तर देने वाला यह अष्टसहस्री ग्रंथ है।
अष्टसहस्री के हिन्दी अनुवाद से विद्वज्जगत में पूज्य गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी का जो कीर्तिमान स्थापित हुआ वह भगवान महावीर के शासन की अप्रतिम उपलब्धि है। मैंने स्वयं आचार्यश्री विमलसागर महाराज, आचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज, डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया, डॉ. कैलाशचंद्र सिद्धांतशास्त्री, सुमेरुचंद्र दिवाकर एवं डॉ. लालबहादुर शास्त्री आदि के मुख से अष्टसहस्री हिन्दी अनुवाद की अतुलनीय शब्दों में प्रशंसा सुनी है तथा ये लोग उसके शीघ्र प्रकाशन की प्रेरणा भी सदैव दिया करते थे।
इन्हीं प्रेरणाओं के फलस्वरूप सन् १९७४ में प्रथम ग्रंथ का प्रकाशन जब हुआ तो आचार्यश्री धर्मसागर महाराज एवं आचार्य श्री देशभूषण महाराज ने बड़े गौरव की अनुभूति के साथ सार्वजनिक सभा में ग्रंथ का विमोचन कराया था एवं पूज्य ज्ञानमती माताजी को न्यायप्रभाकर की पदवी से अलंकृत कर अपूर्व गौरव की अनुभूति की थी। पुन: सन् १९८९ में तीन भागों में पूरी अष्टसहस्री टीका का प्रकाशन होते ही साधुओं, विद्वानों एवं पुस्तकालयों में अष्टसहस्री की भारी मांग पूर्ण हुई।
अष्टसहस्री ग्रंथ के अन्दर प्रारंभ की तीन कारिकाओं की टीका में आचार्यश्री विद्यानंद स्वामी ने सच्चे आप्त को परीक्षा की कसौटी पर खरा बतलाते हुए यह सिद्ध किया है कि सर्वज्ञता, वीतरागता और हितोपदेशिता इन तीन विशिष्ट गुणों के कारण जिनेन्द्र भगवान ही तीनों लोकों में सबसे महान हैं।
पुन: चतुर्थकारिका की टीका में मिट्टी के ढेले आदि में अचेतनपना सिद्ध किया और पाँचों स्थावरकाय के चार-चार भेद पूज्य माताजी ने भावार्थ में खोला है और मूल में भी चार-चार भेद हैं।
इससे ‘‘कण-कण में जीव है’’ यह मान्यता खंडित हो जाती है।
अभव्यों में केवलज्ञान वैâसे है?-द्रव्यार्थिक नय से अभव्यजीव में भी मन:पर्यय और केवलज्ञान विद्यमान है। किन्तु उनकी प्रगटता भव्यों के ही हो सकती है, अभव्यों के नहीं हो सकती है।
तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण ग्रंथ का मूल हेतु है-चतुर्थकारिका की टीका में ‘कर्मभूभृतां भेत्ता मोक्षमार्गस्य प्रणेता….. विश्वतत्त्वानां ज्ञाता च।’’ इत्यादि वाक्य से यह प्रमाणित हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण को ही मूल आधार बनाकर देवगम स्तोत्र रचा गया और उस स्तोत्र की टीका में श्रीविद्यानंद स्वामी ने मंगलाचरण के भाव को लिया है।
अष्टसहस्री की हेडिंग किसने बनाई?-इस ग्रंथ के बीच-बीच में विषय की स्पष्टता हेतु हिन्दी टीकाकर्त्री गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने ही संस्कृत और हिन्दी दोनों में समस्त हेडिंग बनाई है। पं. कैलाशचंद सिद्धांतशास्त्री एवं डॉ. दरबारीलाल कोठिया ने इन्हें देखकर भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और अत्यधिक प्रसन्नता व्यक्त की थी।।
इसी प्रकार प्रत्येक प्रकरण के अन्त में लघु सारांशों के द्वारा विषय को अत्यन्त सरल बनाना पूज्य माताजी की सर्वतोमुखी दृष्टि का परिचायक है।
पाँचवीं कारिका की टीका में एक श्लोक आया है-
असिद्धो भावधर्मश्चेद्व्यभिचार्युभयाश्रय:।
विरुद्धो धर्मोऽभावस्य स सत्तां साधयेत् कथं।।
अर्थात् यदि हेतु साध्य के भाव का धर्म है तो असिद्ध है, क्योंकि साध्य सर्वदा असिद्ध ही होता है। यदि साध्य के भाव एवं अभाव दोनों का धर्म है तो व्यभिचारी है तथा यदि साध्य के अभाव का धर्म है तो विरुद्ध है, ऐसा हेतु साध्य-सर्वज्ञ की सत्ता को वैâसे सिद्ध कर सकेगा?
आगे इस कारिका में कई भावार्थों के द्वारा पूज्य माताजी ने सर्वज्ञ की सत्ता को सिद्ध किया है। जो विशेष पठनीय है।
नैयायिक मत वाले अतीन्द्रियज्ञान को मानसप्रत्यक्ष ज्ञान मानते हैं और जैन शासन में मानसज्ञान को अनिन्द्रिय-मन से उत्पन्न मतिज्ञानरूप में स्वीकार करते हैं और अतीन्द्रियज्ञान मात्र सर्वज्ञ में ही माना है।
नैयायिक जन सन्निकर्ष-(छूकर जानने को) प्रमाण मानते हैं कि पहले चक्षु इन्द्रिय का घट से संबंध हुआ उसका नाम है ‘‘संयोग’’ पुन: उसके रूप से संंबंध हुआ है, उसका नाम है ‘‘संयुक्त समवाय’’ इसके बाद इन्द्रिय ने जो उसके रूप को जाना, उसका नाम ‘‘संयुक्तसमवेतसमवाय’’ है।
अष्टसहस्री मूल में ‘कारिकायां’ पद आया है। अत: इस ग्रंथ के मूल श्लोक ‘कारिका’ के नाम से कहे गये हैं।
जैनशासन में जिन्हें अन्तकृत्केवली माना गया है, बौद्धों ने उनका ‘‘खड्गी’’ यह नाम दिया है।
चार्वाक मतावलम्बी किसी भी जीव-संसारी प्राणी के भव-भवान्तर नहीं मानता है, इसीलिए वह मानता है-
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुत:।
इसी प्रकरण में ‘‘पथिकाग्नि’’ का एक उदाहरण उसने दिया है कि-
जिस प्रकार प्रथमत: वन की पथिकाग्नि जो अरणि, बांस आदि के निर्मथन से उत्पन्न होती है। वह पहले किसी भी अग्नि से नहीं हुई है अत: अनग्निपूर्वक देखी जाती है। फिर आगे की दूसरी अग्नि अग्निपूर्वक ही होती है उसी प्रकार से आदि का चैतन्य शरीर के आकार आदि से परिणत भूतचतुष्टय से होगा और युवा, वृद्धावस्था आदि में होने वाला दूसरा चैतन्य उस चैतन्यपूर्वक ही होगा, इसमें कोई विरोध नहीं है।
इसका जैनाचार्य ने खंडन किया कि बिना उपादानकारण के सहकारी कारणमात्र से किसी की भी उत्पत्ति नहीं देखी जाती है।
प्राणियों में आदि का चैतन्य पूर्व के उपादान कारण से ही उत्पन्न होता है क्योंकि चैतन्य की पर्याय है।
चार्वाक, मीमांसक और नैयायिक ये ज्ञान को आत्मा का गुण एवं स्वपर प्रकाशी नहीं मानते हैं।
चार्वाक कहता है कि ज्ञान भूतचतुष्टय का गुण है। मीमांसक कहता है कि ज्ञान परोक्ष है परपदार्थों को ही जानता है आत्मा को नहीं जानता है, अन्य ज्ञान के द्वारा ही स्वयं को जानता है किन्तु जैनाचार्य इन सभी का निराकरण करके ज्ञान को स्वपर प्रकाशी सिद्ध करते हैं, क्योंकि जो स्वयं में जड़ हैं वह दूसरे को क्या जानेगा?
प्रत्यक्ष से पक्ष के बाधित होने पर जिसका प्रयोग किया जाता है।
फलोपभोग के दो भेद-१. औपक्रमिक २. अनौपक्रमिक
इन्हें ही अविपाक और सविपाक निर्जरा कहते हैं।
दूरवर्ती पदार्थों को अरिहन्तों के प्रत्यक्ष मानने के प्रकरण में दूषण दिखाने वालों के प्रति अकलंक देव ने अष्टशती की पंक्तियों में कहा है कि-
‘‘अन्येषां न्यायागमविरुद्धभाषित्वात्’’ अर्थात् ‘‘अन्य सभी न्याय और आगम से विरुद्ध बोलने वाले हैं।’’ इस विषय में अष्टसहस्रीकार ने कहा है कि-
जो न्याय और आगम से विरुद्ध बोलने वाले हैं वे निर्दोष नहीं है, जैसे-दुर्वैद्य आदि।
सौगत लोग शरीर का हेतु देकर सर्वज्ञ का निषेध करते हैं तब जैनाचार्य उनका हेतु उन्हीं पर घटित करके बुद्ध भगवान में सर्वज्ञत्व का प्रतिषेध कर देते हैं किन्तु वह इससे संतुष्ट न होकर अपने गुरुबुद्ध को तो सर्वज्ञ मानता ही है।
इस प्रकरण में अष्टशतीकार अकलंकदेव ने सुगत को चतुर बन्दर की उपमा दी है।
‘‘तदेतददृष्टसंशयैकान्तवादिनां विदग्धमर्कटानामिव स्वलांगूल भक्षणवत्।’’
अष्टसहस्री ग्रंथ में माताजी ने शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, भावार्थ, विशेषार्थ और सारांश इन छह कथनों के द्वारा आचार्यों के भाव को प्रगट किया है।
‘‘नहि शब्दतोर्थतश्च शास्त्रपरिज्ञानाभावे तद्व्याख्यान-विवक्षायां सत्यामपि तद्वचनप्रवृत्तिर्दृश्यते।’’
गंभीरं मधुरं मनोहरतरं दोषैरपेतं हितं।
कंठोष्ठादिवचो निमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतम्।।
स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं नि:शेषभाषात्मकं।
दूरासन्नसमं समं निरुपमं जैनं वच: पातु न:।।
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के आधार से ६०-६१-६२ नं. गाथा में दिव्यध्वनि का लक्षण कहा है।
इस अष्टसहस्री प्रथम भाग में मात्र ६ कारिकाओं की टीका है। प्रत्येक जैनधर्मावलम्बी को इसकी हिन्दी टीका जीवन में एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए। प्रत्येक अध्याय के अंत में दिये गये सारांशों को पढ़ने से विषय का सार समझ में आ जाता है। यदि विषय समझ में नहीं भी आए, तो भी इसके स्वाध्याय से असंख्य कर्मों की निर्जरा तो हो ही जाएगी। जिस देवागम स्तोत्र के श्लोकों (कारिकाओं) पर यह अष्टसहस्री टीका आचार्यश्री विद्यानंद स्वामी ने लिखी है, एक बार उस स्तोत्र को एक मुनिराज मंदिर में उच्च स्वर से पढ़ रहे थे उसे सुनने मात्र से पात्रकेसरी नामक एक ब्राह्मण विद्वान को जैनधर्म के प्रति प्रगाढ़श्रद्धान हो गया था और वे दिगम्बर जैन मुनि बनकर एक दिन न्याय के दिग्गज विद्वान् बन गये। उनका पात्रकेसरी स्तोत्र बहुत ही प्रसिद्ध हुआ है। यह इतिहास अहिच्छत्र तीर्थ पर घटित हुआ था, अत: आज भी वहाँ पर इसके साक्ष्य प्राप्त होते हैं।
आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित वह देवागम स्तोत्र अपरनाम आप्तीमांसा वास्तव में एक चमत्कारिक काव्यरचना है, जिस पर श्री अकलंक देव ने आठ सौ श्लोक प्रमाण अष्टशती ग्रंथ रचा और आचार्य विद्यानंद स्वामी ने आठ हजार श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री ग्रंथ की रचना करके साहित्यजगत् को अमूल्यकृति प्रदान की। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने उसका हिन्दी अनुवाद करके हम सभी को न्यायग्रंथ के ज्ञान का मार्ग प्रशस्त किया है।