अथ स्थापना
(तर्ज—जहाँ डाल डाल पर….)
श्री पार्श्वनाथ जी की पूजन से, मिटता भव भव का फेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।
जहाँ काल अनंतानंतों तक, रहता निज में हि बसेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।
जिनके गुणमणियोें की माला, गूंथ गूंथ कर लाते।
सुरपति चक्रवर्ति हर्षित हो, प्रभु चरणों में चढ़ाते।।
उनके चरण कमल अर्चन से, होता ज्ञान सबेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।श्री पार्श्व.।।
ऐसे जिनवर का आह्वानन, कर हम धन्य बनेंगे।
हृदय कमल में प्रभों! विराजो, पूजन नमन करेंगे।।
नाथ! आपका सन्निध पाकर, जन्म सफल है मेरा।
है वंदन उनको मेरा……२।।श्री पार्श्व.।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकश्रीपार्श्वनाथतीर्थंकर ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकश्रीपार्श्वनाथतीर्थंकर ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकश्रीपार्श्वनाथतीर्थंकर ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टकं-भुजंगप्रयात छंद
तृषा चाह की है बुझी ना कभी भी।
इसी हेतु से नीर लाया प्रभु जी।।
जजूँ पार्श्व भगवंत के पदकमल को।
मिटाऊँ स्वयं के जनम और मरण को।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
महाताप संसार में मोह का है।
इसी हेतु से पीत चंदन घिसा है।।
जजूँ पार्श्व भगवंत के पदकमल को।
मिटाऊँ स्वयं के जन्म और मरण को।।२।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हुआ सौख्य मेरा क्षणिक नाशवंता।
इसी हेतु से शालि को धोय संता।।जजूँ.।।३।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोभू जगत में सभी को भ्रमावे।
इसी हेतु से पुष्प चरणों चढ़ावें।।जजूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधारोग सबसे बड़ा है जगत में।
इसी हेतु नैवेद्य लाया सरस मैं।।जजूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महाघोर अंधेर अज्ञान का है।
इसी हेतु से दीप लौ जगमगा है।।जजूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
महादुष्ट आठों करम संग लागे।
इसी हेतु से धूप खेऊँ यहाँ पे।।जजूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अष्टकर्मदहनाय धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
स्ववाञ्छीत फल हेतु घूमा अभी तक।
फलों को इसी हेतु अर्पूं प्रभू अब।।
जजूँ पार्श्व भगवंत के पदकमल को।
मिटाऊँ स्वयं के जन्म और मरण को।।८।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
महा अर्घ्य ले आपको पूजता हूँ।
महामोह के फंद से छूटता हूँ।।जजूॅँ.।।९।।
ॐ ह्रीं सर्वोपद्रवनिवारकाय श्रीपार्श्वनाथतीर्थंकराय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(तर्ज—धन्य हस्तिनापुर की नगरी…….)
धन्य आज का दिवस धन्य ये, प्रभू अर्चना बेला है।
धन्य जन्म है सभी जनों का, लगा भक्त का मेला है।।
कंचन झारी में गंगा जल, प्रासुक शीतल मीठा है।
प्रभु चरणों में धारा देते, मिलता सौख्य अनूठा है।।
इसी शांतिधारा करने से, तीनों जग में शांती हो।
मुझको ऐसी शांति मिले प्रभु, फिर ना कभी अशांती हो।।
प्रभो! आपकी दया दृष्टि से, मिटे जगत का मेला है।
धन्य आज का दिवस धन्य ये, प्रभू अर्चना बेला है।।१।।
शांतये शांतिधारा।
धन्य आज का दिवस धन्य ये, प्रभू अर्चना बेला है।
धन्य जनम है सभी जनों का, लगा भक्त का मेला है।।
कमल केतकी जुही चमेली, सुरभित पुष्प चुनाये हैं।
जिनवर चरण कमल में, पुष्पांजली चढ़ाने आये हैंं।।
पुष्पांजलि से धन सुख संपति, संतति वृद्धि समृद्धी हों।
जनम जनम के क्लेश दूर हों, नवनिधि रिद्धी सिद्धी हों।।
नाथ! आपकी दया दृष्टि बिन, बहुत दुखों को झेला है।
धन्य आज का दिवस धन्य ये, प्रभू अर्चना बेला है।।२।।
दिव्य पुष्पांजलि:।