(मूलाचार के द्वितीय अधिकार में सल्लेखना का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। उनको सुनाते समय मुझे जो गाथाएँ अतिशय प्रिय थीं उन्हें यहाँ दे रही हूँं। विशेष जिज्ञासु मूलाचार का स्वाध्याय करें।)
यतियों के छह काल होते हैं उसमें आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल इन तीन कालों का वर्णन ‘भगवती आराधना’ में कहा गया है शेष अर्थात् दीक्षाकाल, शिक्षाकाल और गणपोषणकाल इन तीनों का वर्णन इस आचारग्रंथ-मूलाचार में है। उनमें से पहले के तीन कालों में यदि मरण उपस्थित हो जावे, तो मैं इस प्रकार के (निम्न कथित) परिणाम को धारण करता हूँ, इस प्रकार से आचार्य कहते हैं-
सव्वदुक्खप्पहीणाणं सिद्धाणं अरहदो णमो।
सद्दहे जिणपण्णत्तं पच्चक्खामि य पावयं।।१।।
गाथार्थ-सम्पूर्ण दु:खों से मुक्त हुए सिद्धों को और अर्हंतों को मेरा नमस्कार होवे। मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रतिपादित (तत्त्व) का श्रद्धान करता हूँ और पाप का त्याग करता हूँ।
भक्ति की प्रकर्षता के लिए पुन: नमस्कार करते हैं-
णमोत्थु धुदपावाणं सिद्धाणं च महेसिणं।
संथरं पडिवज्जामि जहा केवलिदेसियं।।२।।
गाथार्थ-पापों से रहित सिद्धों को और महर्षियों को मेरा नमस्कार होवे, जैसा केवली भगवान् ने कहा है वैसे ही संस्तर को मैं स्वीकार करता हूँ।
मैं सामायिक स्वीकार करता हूँ ऐसा जो कहा है उसका क्या स्वरूप है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
सव्वं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि।
आसा वोसरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए।।३।।
गाथार्थ-मेरा सभी जीवों में समताभाव है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है, मैं सम्पूर्ण आशा को छोड़कर इस समाधि को स्वीकार करता हूँ।
आपका किसी के साथ वैर क्यों नहीं है, इस बात को कहते हैं-
खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि।।४।।
गाथार्थ-सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, सभी जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी के साथ वैरभाव नहीं है।
मैं केवल वैर का ही त्याग नहीं करता हूँ किन्तु वैर के निमित्त जो भी हैं उन सबका त्याग करता हूँ, इसी बात को कहते हैं-
रायबंध पदोसं च हरिसं दीणभावयं।
उस्सुगुत्तं भयं सोगं रदिमरदिंं च वोसरे।।५।।
गाथार्थ-राग का अनुबन्ध, प्रकृष्ट द्वेष, हर्ष, दीनभाव, उत्सुकता, भय, शोक, रति और अरति का त्याग करता हूँ।
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाई वोसरे।।६।।
गाथार्थ-मैं ममत्व को छोड़ता और निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता हूँ, आत्मा ही मेरा आलम्बन है और मैं अन्य सभी का त्याग करता हूँ।
आप आत्मा का त्याग क्यों नहीं करते हैं। इस बात को कहते हैं-
आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोए।।७।।
गाथार्थ-निश्चित रूप से मेरा आत्मा ही ज्ञान में है, मेरा आत्मा ही दर्शन में और चारित्र में है, प्रत्याख्यान में है और मेरा आत्मा ही संवर तथा योग में है।
एओ य मरइ जीवो एओ य उववज्जइ।
एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरओ।।८।।
गाथार्थ-जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म लेता है। एक जीव के ही यह जन्म और मरण हैं और अकेला ही कर्मरहित होता हुआ सिद्धपद प्राप्त करता है। मेरा आत्मा एकाकी है, शाश्वत है और ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला है। शेष सभी संयोग लक्षण वाले जो भाव हैं, वे मेरे से बहिर्भूत हैं।
अब किस प्रकार से संयोग लक्षण वाले भाव का परिहार किया जाता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-
संजोयमूलं जीवेण पत्तं दुक्खपरंपरं।
तम्हा संजोयसंबंध सव्वं तिविहेण वोसरे।।९।।
गाथार्थ-इस जीव ने संयोग के निमित्त से दु:खों के समूह को प्राप्त किया है इसलिए मैं समस्त संयोग संबंध को मन-वचन-कायपूर्वक छोड़ता हूँ।
पुन: आचार्य दुश्चरित के त्याग हेतु कहते हैं-
मूलगुणउत्तरगुणे जो मे णाराहिओ पमाएण।
तमहं सव्वं णिंदे पडिक्कमे आगममिस्साणं।।१०।।
गाथार्थ-मैंने मूलगुण और उत्तर गुणों में प्रमाद से जिस किसी की आराधना नहीं की है उस सम्पूर्ण की मैं निन्दा करता हूँ और भूत, वर्तमान ही नहीं भविष्य में आने वाले का भी मैं प्रतिक्रमण करता हूँं।
क्षमा को करने की इच्छा करते हुए आचार्य कहते हैं-
रागेण य दोसेण य जं मे अकदण्हुयं पमादेण।
जो मे किंचिवि भणिओ तमहं सव्वं खमावेमि।।११।।
गाथार्थ-जो मैंने राग से अथवा द्वेष से न करने योग्य किया है, प्रमाद से जिसके प्रति कुछ भी कहा है, उन सबसे मैं क्षमायाचना करता हूूँ।
अब क्षमापना करके सन्यास करने की इच्छा करता हुआ क्षपक, मरण कितने प्रकार के हैं-ऐसा प्रश्न करता है और आचार्य उनका उत्तर देते हैं-
तिविहं भणंति मरणं बालाणं बालपंडियाणं च।
तहयं पंडियमरणं जं केवलिणो अणुमरंति।।१२।।
गाथार्थ-मरण को तीन प्रकार का कहते हैं-बाल जीवों का मरण, बाल पण्डितों का मरण और तीसरा पण्डितमरण है। इस पण्डितमरण को केवलीमरण भी कहते हैं।
इन तीन के अतिरिक्त और अन्य प्रकार के मरण कैसे होते हैं, ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं-
जे पुण पणट्ठमदिया पचलियसण्णा य वक्कभावा य।
असमाहिणा मरते ण हु ते आराहया भणिया।।१३।।
गाथार्थ-जो पुन: नष्टबुद्धि वाले हैं, जिनकी आहार आदि संज्ञाएँ उत्कट हैं और जो कुटिल परिणामी हैं वे असमाधि से मरण करते हैं। निश्चित रूप से वे आराधक नहीं कहे गये हैं।
यदि मरणकाल में परिणाम बिगड़ जाते हैं, तो क्या होगा ऐसा ? प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
मरणे विराहिए देवदुग्गई दुल्लहा य किर बोही।
संसारो य अणंत होइ पुणो आगमे काले।।१४।।
गाथार्थ-मरण की विराधना हो जाने पर देवदुर्गति होती है तथा निश्चित रूप से बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है और फिर आगामी काल में उस जीव का संसार अनन्त हो जाता है।
पुन: इसी संबंध में प्रश्नपूर्वक सूत्र कहते हैं-
का देवदुग्गईओ का बोही केण ण बुज्झए मरणं।
केण व अणंतपारे संसारे हिंडए जीओ।।१५।।
गाथार्थ-देवदुर्गति क्या है ? बोधि क्या है ? किससे मरण नहीं जाना जाता है ? और किस कारण से ये जीव अनन्त रूप संसार में परिभ्रमण करता है।
क्षपक के द्वारा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
कंदप्पमाभिजोग्गं किव्विस सम्मोहमासुरत्तं च।
ता देवदुग्गईओ मरणम्मि विराहिए होंति।।१६।।
गाथार्थ-मरणकाल में विराधना के हो जाने पर कान्दर्प, आभियोग्य, किल्विषक, स्वमोह और आसुरी ये देवदुर्गतियाँ होती हैं।
अब अन्वय द्वारा भी बोधि का लक्षण कहते हैं-
सम्मद्दंसणरत्ता अणियाणा सुक्कलेसमोगाढा।
इह जे मरंति जीवा तेसिं सुलहा हवे बोही।।१७।।
गाथार्थ-जो सम्यग्दर्शन में तत्पर हैं, निदान भावना से रहित और शुक्ललेश्या से परिणत हैं, ऐसे जो जीव मरण करते हैं उनके लिए बोधि सुलभ है।
अब आचार्य संसार के कारण का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं-
जे पुण गुरुपडिणीया बहुमोहा ससबला कुसीला य।
असमाहिणा मरंते ते होंति अणंतसंसारा।।१८।।
गाथार्थ-जो पुन: गुरु के प्रतिकूल हैं, मोह की बहुलता से सहित हैं, शबल-अतिचार सहित चारित्र पालते हैं, कुत्सित आचरण वाले हैं, वे असमाधि से मरण करते हैं और अनन्त संसारी हो जाते हैं।
अब परीत संसारी कैसे होते हैं, ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं-
जिणवयणे अणुरत्ता गुरुवयणं जे करंति भावेण।
असबल असंकिलिट्ठा ते होंति परित्तसंसारा।।१९।।
गाथार्थ-जो जिनेन्द्रदेव के वचनों में अनुरागी हैं, भाव से गुरु की आज्ञा का पालन करते हैं, शबल-परिणामरहित हैं तथा संक्लेशभाव रहित हैं, वे संसार का अन्त करने वाले होते हैं।
यदि जिनवचन में अनुराग नहीं होगा, तो क्या होगा ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
बालमरणाणि बहुसा बहुयाणि अकामयाणि मरणाणि।
मरिहंति ते बराया जे जिणवयणं ण जाणंति।।२०।।
गाथार्थ-जो जिनवचन को नहीं जानते हैं, वे बेचारे अनेक बार बालमरण करते हुए अनेक प्रकार के अनिच्छित मरणों से मरण करते रहेंगे।
वे बालमरण कितने तरह के हैं ? उत्तर में कहते हैं-
सत्थग्गहणं विसभक्खण च जलणं जलप्पवेसो य।
अणयार भंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि।।२१।।
गाथार्थ-शस्त्रों के घात से मरना, विष भक्षण करना, अग्नि में जल जाना, जल में प्रवेश कर मरना और पाप क्रियामय द्रव्य का सेवन करके मरना, ये मरण जन्म और मृत्यु की परम्परा को करने वाले हैं।
यह सुनकर क्षपक संवेग और निर्वेद में तत्पर होता हुआ ऐसा चिंतवन करता है-
उड्ढमधो तिरियहिम दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि।
दंसणणाणसहगदो पंडियमरणं अणुमरिस्से।।२२।।
गाथार्थ-ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग्लोक में मैंने बहुत बार बालमरण किये हैं। अब मैं दर्शन और ज्ञान से सहित होता हुआ पण्डितमरण से मरूँगा।
पुनरपि इन अनभिप्रेत-जो अपने को इष्ट नहीं, ऐसे मरणों का स्मरण करता हुआ क्षपक मैं पण्डितमरण से मरूँगा, ऐसा विचार करता है-
उव्वेयमरणं जादीमरणं णिरएसु वेदणाओ य।
एदाणि संभरंतो पंडियमरणं अणुमरिस्से।।२३।।
गाथार्थ-उद्वेगपूर्वक मरण, जन्मते ही मरण और जो नरकों की वेदनाएँ हैं, इन सबका स्मरण करते हुए अब मैं पण्डितमरण से प्राण त्याग करूँगा।
मरणों में पण्डितमरण ही किसलिए अधिक शुभ है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
एक्कं पंडिदमरणं छिंददि जादीसयाणि बहुणाणि।
ते मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि।।२४।।
गाथार्थ-एक पण्डितमरण सौ-सौ जन्मों का नाश कर देता है अत: ऐसे ही मरण से मरना चाहिए कि जिससे मरण सुमरण हो जावे।
यदि सन्यास के समय भूख, प्यास आदि पीड़ाएँ उत्पन्न हो जावें, तो क्या करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं-
जइ उप्पज्जइ दु:खं तो द्ट्ठव्वो सभावदो णिरये।
कदमं मएण पत्तं संसारे संसरंतेण।।२५।।
गाथार्थ-यदि उस समय दु:ख उत्पन्न हो जावे तो नरक के स्वभाव को देखना चाहिए। संसार में संसरण करते हुए मैंने कौन-सा दु:ख नहीं प्राप्त किया है।
जिस प्रकार से प्राप्त किया है, उसी का प्रतिपादन करते हैं-
संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेवि पुग्गला बहुसो।
आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती।।२६।।
गाथार्थ-इस संसार रूपी भंवर में मैंने सभी पुद्गलों को अनेक बार ग्रहण किया है और उन्हें आहार आदि रूप परिणमाया भी है किन्तु उनसे मेरी तृप्ति नहीं हुई है।
क्यों नहीं हुई तृप्ति ? उसी को दिखाते हुए कहते हैं-
तिणकट्ठेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहि।
ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदुं कामभोगेहिं।।२७।।
तृण और काठ से अग्नि के समान तथा सहस्रों नदियों से लवण-समुद्र के समान इस जीव को काम और भोगों से तृप्त करना शक्य नहीं है।
वह सावधानी क्या है ? सो कहते हैं-
जहणिज्जावयरहिया णावाओ वररदण सुपुण्णाओ।
पट्टणमासण्णाओ खु पमादमूला णिबुड्डंति।।२८।।
जैसे उत्तम रत्नों से भरी हुई नौकाएँ नगर के समीप किनारे पर आकर भी कर्णधार से रहित होने से प्रमाद के कारण डूब जाती हैं-
ऐसे ही साधु के विषय में समझो।
उस सन्यास के काल में जैसे द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व के विषय में श्रद्धा की जाती है वैसे ही समस्त श्रुतविषयक चिन्तन और पाठ करना शक्य है क्या ? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं-
ण हि तम्हि देसयाले सक्को बारसविहो सुदक्खधो।
सव्वोक अणुचिंतेदुं बलिणावि समत्थचित्तेण।।२९।।
उस सन्यास के देशकाल में बलशाली और समर्थ मन वाले साधु के द्वारा भी सम्पूर्ण द्वादशांग रूप श्रुतस्कंध का चिंतवन करना शक्य नहीं है।
यदि ऐसी बात है तो उसे क्या करना चाहिए ?
एक्कह्मि विदियह्मि पदे संवेगो वीयरायभग्गम्मि।
वच्चदि णरो अभिक्खं तं मरणते ण मोत्तव्यं।।३०।।
मनुष्य वीतराग मार्गस्वरूप अर्हत्प्रवचन के एक पद में या द्वितीय पद में निरन्तर संवेग प्राप्त करता है इसीलिए मरणकाल में इन पदों को नहीं छोड़ना चाहिए।
क्यों नहीं छोड़ना चाहिए उसे ? सो ही बताते हैं-
एदह्मादो एक्कं हि सिलोगं मरणदेसयालह्मि।
आराहणउवजुत्तो चिंतंतो आराधओ होदि।।३१।।
आराधना में लगा हुआ साधु मरण के काल में इस श्रुतसमुद्र से एक भी श्लोक का चिन्तवन करता हुआ आराधक हो जाता है।
यदि मरण काल में पीड़ा उत्पन्न हो जावे, तो क्या औषधि है ? सो बताते हैं-
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणवाहिवेयणखयकरणं सव्वदुक्खाणं।।३२।।
विषय सुख का विरेचन कराने वाले और अमृतमय ये जिनवचन ही औषधि हैं। ये जरा-मरण और व्याधि से होने वाली वेदना को तथा सर्व दु:खों को नष्ट करने वाले हैं।
उस समय शरण कौन हैं ? सो बताते हैं-
णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं चरियसरणं च।
तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो।।३३।।
मुझे ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तपश्चरण और संयम शरण है तथा भगवान् महावीर शरण हैं।
आराधना का फल क्या है ? सो बतलाते हैं-
आराहण उवजुत्तो कालं काऊण सुविहिओ सम्मं।
उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण य लहइ निव्वाणं।।३४।।
आराधना में तत्पर हुआ साधु आगम में कथित सम्यक प्रकार से मरण करके उत्कृष्ट रूप से तीन भव को प्राप्त करके पश्चात् निर्वाण प्राप्त कर लेता है।
पुनरपि क्षपक अपने परिणामों की दृढ़ता को दिखलाता है-
लद्धं अलद्धपुव्वं जिणवयणसुभासिदं अमिदभूदं।
गहिदो सुग्गइभग्गो णाहं मरणस्स वीहेमि।।३५।।
जिनको पहले कभी नहीं प्राप्त किया था, ऐसे अलब्धपूर्व, अमृतमय जिनवचन सुभाषित को मैंने अब प्राप्त किया है। अब मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है इसलिए अब मैं मरण से नहीं डरता हूूँ। क्योंकि-
धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धोरेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोहि वि मरिदव्वं वरं हि धीस्तणेण मरिदव्वं।।३६।।
धीर को भी मरना पड़ता है और निश्चित रूप से धैर्य रहित जीव को भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो धीरतासहित होकर ही मरना अच्छा है।
क्षुधादि से पीड़ित हुए क्षपक के यदि शील के विनाश में कोई अन्तर हो तो अजर-अमरपने का विचार करना चाहिए-
सीलेणवि मरिदव्वं णिस्सीलेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जइ दोहिं वि मरियव्वं वरं हु सीलत्तणेण मरियव्वं।।३७।।
शीलयुक्त को भी मरना पड़ता है और शीलरहित को भी मरना पड़ता है यदि दोनों को ही मरना पड़ता है, तब तो शीलसहित होकर ही मरना श्रेष्ठ है।
दो प्रकार के प्रत्याख्यान बताते हुए कहते हैं-
एदम्हि देशयाले उवक्कमो जीविदस्य जदि मज्झं।
एदं पच्चक्खाणं णित्थिण्णे पारणा हुज्ज।।३८।।
यदि मेरा इस देश या काल में जीवन रहेगा तो इस प्रत्याख्यान की समाप्ति करके मेरी पारणा होगी।
मरणकाल में समाधानी करते हुए आचार्य कहते हैं-
एगम्हि य भवगहणे समाहिमरणं लहिज्ज जवि जीवो।
सत्तट्ठभवग्गहणे णिव्वणमणुत्तरं लहदि।।३९।।
यदि जीव एक भव में समाधिमरण को प्राप्त कर लेता है तो वह सात या आठ भव लेकर पुन: सर्वश्रेष्ठ निर्वाण को प्राप्त कर लेता है।
जन्म आदि दु:ख क्या हैं ? सो बताते हैं-
णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खं।
जम्मणमरणादंकं छिंदि ममत्तिं सरीरादो।।४०।।
मरण के समान अन्य कोई भय नहीं है और जन्म के समान कोई दु:ख नहीं है अत: जन्म-मरण के कष्ट में निमित्त ऐसे शरीर के ममत्व को छोड़ो।
यहाँ यह नियम क्यों किया है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं-
चिरउसिदबंभयारी पप्फोडेदूण सेसयं कम्मं।
अणुपुव्वीय विसुद्धो सुद्धो सिद्धिं गदिं जादि।।४१।।
चिरकाल तक ब्रह्मचर्य का उपासक साधु शेष कर्म को दूर करके क्रम-क्रम से विशुद्ध होता हुआ शुद्ध होकर सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है।
यहाँ तक आराधना के उपाय कहे गये हैं, अब आराधक कैसा होता है, सो बताते हैं-
णिम्ममो णिरहंकारी णिक्कसाओ जिदिंदिओ धीरो।
अणिदाणो दिठिसंपण्णो मरंतो आराहतो होइ।।४२।।
जो ममत्वरहित, अहंकाररहित, कषायरहित, जितेन्द्रिय, धीर, निदानरहित और सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है वह मरण करता हुआ आराधक होता है।
अब अन्तिम मंगल और क्षपक की समाधि के लिए कहते हैं-
वीरो जरमरणरिऊ वीरो विण्णाणणाणसंपण्णो।
लोगस्सुज्जोययरो जिणवरचंदो दिसदु बोधिं।।४३।।
वीर भगवान जरा और मरण के रिपु हैं, वीर भगवान विज्ञान और ज्ञान से सम्पन्न हैं, लोक के उद्योत करने वाले हैं। ऐसे जिनवर चन्द्रवीर भगवन् मुझे बोधि प्रदान करें।
क्या किंचित् भी निदान नहीं करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि कुछ निदान कर भी सकते हैं-
जा गदी अरहंताणं णिट्ठिदट्ठाणं च जा गदी।
जा गदी वीदमोहाण सा मे भवदु सस्सदा।।४४।।
अरहन्तदेव की जो गति हुई है और कृतकृत्य सिद्धों की जो गति हुई है तथा मोहरहित जीवों की जो गति हुई है, वही गति सदा के लिए मेरी होवे।