सल्लेखना-संथारा और समाधिमरण प्रायः एकार्थवाची शब्द हैं। यह सतीप्रथा और आत्महत्या से बिल्कुल भिन्न प्रवृत्ति है।
आचार्य समंतभद्र ने 2000 साल पहले लिखा है कि अनिवार उपसर्ग (आपत्ति) आने पर, दुर्भिक्ष पड़ने पर, बुढ़ापा आने पर और घातक रोग होने पर आत्मगुणों की रक्षा के लिए शरीर का त्याग करना सल्लेखना है।
सल्लेखना का शाब्दिक अर्थ है अच्छी तरह क्षीण करना। कषायों, विकारों और शरीर को क्षीण करते हुए त्याग देना। आक्रोश या क्रोधादिवश सल्लेखना नहीं होती।
संथारा प्राकृतभाषा का शब्द है जिसका अर्थ संस्तर अर्थात् एक तरह का विस्तर, जिसे स्वीकारने के बाद मरण पर्यंत अन्न-जल का त्याग कर दिया जाता है।
समाधिमरण मतलब सहज शांत भावों से आत्मा-परमात्मा का स्मरण करते हुए सर्वसंगत्याग पूर्वक शरीर छोड़ना। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि इच्छाएँ जीवित रहें और व्यक्ति मर जाएँ इसका नाम आत्महत्या है। इच्छाएँ मर जाएँ और फिर व्यक्ति शांति से शरीर छोड़े इसका नाम समाधि मरण है।
‘आर्ट ऑफ लिविंग’ तो बहुत जगह सिखाया जाता है लेकिन ‘आर्ट ऑफ डाईंग’ (मरने की कला) केवल जैन धर्म में सिखाई जाती है। भारतीय संस्कृति में और खासकर श्रमण संस्कृति में सर्व-संग और संकल्प विकल्प त्याग कर आत्मा-परमात्मा का स्मरण करते हुए देह-विसर्जन करने को सौभाग्य माना जाता है।
जैन साधना में जीवचर्या पर मूलाचार जैसा विस्तृत ग्रंथ उपलब्ध है उससे भी बड़ा ‘मूलाराधना’ ग्रंथ मरण साधना पर उपलब्ध है।
समाधिमरण साधने की प्राचीनतम पद्धति रही है। आचार्य भद्रबाहु के मुनि शिष्य बनकर सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने श्रवणबेलगोला में समाधिमरण किया था। वहाँ ऐसे अनेक शिलालेख है जिनमें संतों तथा राजा-रानियों के समाधि मरण का उल्लेख है। देश में ऐसे और भी शिलालेख हैं।
विनोबा भावे व श्रीमद् राजचंद्र ने भी संथारा लिया था।
अल्बर्ट आइंस्टीन कहते थे कि यदि पुनर्जन्म होता है तो मेरा जन्म भारत में और जैनधर्म में हो।