‘सल्लेखना’ (सत् ± लेखना) अर्थात अच्छी तरह से काय और कषायों को कृश करने को ‘सल्लेखना’ कहते हैं। इसे ही समाधिमरण भी कहते हैं। मरणकाल समुपस्थित होने पर सभी प्रकार के विषाद को छोड़कर समतापूर्वक देह त्याग करना ही समाधिमरण या सल्लेखना है। जैन साधक मानव—शरीर को अपनी साधना का साधन मानते हुए, जीवनपर्यन्त उसका अपेक्षित रक्षण करता है किन्तु अत्यधिक दुर्बलता अथवा मरण के अन्य कोई कारण उपस्थित होने पर जब शरीर उसके संयम में साधक न होकर बाधक दिखने लगता है, उसे अपना शरीर अपने लिए ही भारभूत सा प्रतीत होने लगता है, तब वह सोचता है कि यह शरीर तो मैं कई बार प्राप्त कर चुका हूं। इसके विनष्ट होने पर भी यह पुन: मिल सकता है। शरीर के छूट जाने पर मेरा कुछ भी नष्ट नहीं होगा किन्तु जो व्रत, संयम और धर्म मैंने धारण किए हैं यह मेरे जीवन की अमूल्य निधि हैं। बड़ी दुर्लभता से इन्हें मैंने प्राप्त किया है। इनकी मुझे सुरक्षा करनी चाहिए। इन पर किसी प्रकार की आंच न आए ऐसे प्रयास मुझे करना चाहिए, ताकि मुझे बार—बार शरीर धारण न करना पड़े और मैं अपने अभीष्ट सुख को प्राप्त कर सकूं। यह सोचकर वह बिना किसी विषाद के (चित्त की प्रसन्नतापूर्वक) आत्मचिन्तन के साथ आहारादिक का क्रमश: परित्याग कर देहोत्सर्ग करने को उत्सुक होता है, इसी का नाम ‘सल्लेखना’ है।
सूरज और चाँद के उदय और अस्त होने की तरह जन्म और मृत्यु प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। जन्म लेने वाले का मरण सुनिश्चित है। संसार में कोई व्यक्ति अमर नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को मरना पड़ता है। इस मृत्यु से अपरिचित रहने के कारण व्यक्ति उसके नाम से ही डरते हैं। उससे बचने के अनेक उपाय करते हैं किन्तु बड़ी—बड़ी औषधि, चिकित्सा, मन्त्र—तन्त्र आदि का प्रयोग करने के बाद भी कोई बच नहीं सकता। बड़े—बड़े महाबली योद्धाओं का बल भी इस कालबली के सामने निरर्थक सिद्ध होता है और एक दिन सभी इस काल के गाल में समाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता को समझने वाला जैन साधक मृत्यु को भी मृत्यु महोत्सव में बदल देता है। वह यह सोचता है कि मरने से तो कोई बच नहीं सकता, चाहे वह राजा हो या रंक, पंडित हो या मूर्ख, धनी हो या निर्धन, सभी को मरना है। यदि मैं प्रसन्नतापूर्वक मरता हूं तो भी मुझे मरना है और यदि विषादपूर्वक मरता हूं तो भी मुझे मरना है। जब सब परिस्थितियों में मरण अनिवार्य और अपरिहार्य है तो मैं ऐसे क्यों न मरूं कि मेरा सुमरण हो जाए। इस मरण का ही मरण हो जाए। यह सोचकर वह सल्लेखना या समाधिमरण धारण कर लेता है।
देह त्याग की इस प्रक्रिया को नहीं समझ पाने के कारण कुछ लोग इसे आत्मघात कहते हैं किन्तु सल्लेखना आत्मघात नहीं है। जैनधर्म में आत्मघात को पाप, िंहसा एवं आत्मा का अहितकारी कहा गया है। यह ठीक है कि आत्मघात और सल्लेखना दोनों में प्राणों का विमोचन होता है, पर दोनों की मनोवृति में महान् अन्तर है। आत्मघात जीवन के प्रति अत्यधिक निराशा एवं तीव्र मानसिक असन्तुलन की स्थिति में किया जाता है, जबकि सल्लेखना परम उत्साह से सम भाव धारण कर की जाती है। आत्मघात कषायों से प्रेरित होकर किया जाता है, तो सल्लेखना का मूलाधार समता है। आत्मघाती को आत्मा की अविनश्वरता का भान नहीं होता, वह तो दीपक के बुझ जाने की तरह शरीर के विनाश को ही जीवन की मुक्ति समझता है, जबकि सल्लेखना का प्रमुख आधार आत्मा की अमरता को समझकर अपनी परलोक यात्रा को सुधारना है। सल्लेखना जीवन के अन्त समय में शरीर की अत्यधिक निर्बलता, अनुपयुक्तता, भारभूतता अथवा मरण के किसी अन्य कारण के आने पर मृत्यु को अपरिहार्य मानकर की जाती है; जबकि आत्मघात जीवन के किसी भी क्षण किया जा सकता है। आत्मघाती के परिणामों में दीनता, भीति और उदासी पायी जाती है; तो सल्लेखना में परम उत्साह, निर्भीकता और वीरता का सद्भाव पाया जाता है। आत्मघात विकृत चित्तवृत्ति का परिणाम है; तो सल्लेखना निर्विकार मानसिकता का फल है। आत्मघात में जहाँ मरने का लक्ष्य है; तो सल्लेखना के ध्येय मरण के योग्य परिस्थिति निर्मित होने पर अपने सद्गुणों की रक्षा का है, अपने जीवन के निर्माण का है। एक का लक्ष्य अपने जीवन को बिगाड़ना है तो दूसरे का लक्ष्य जीव को संवारने/संभालने का है।
आचार्य श्री ‘पूज्यपाद’ स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि में एक उदाहरण से इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है कि-किसी गृहस्थ के घर में बहुमूल्य वस्तु रखी हो और कदाचित् भीषण अग्नि से वह जलने लगे तो वह येन—केन—प्रकारेण उसे बुझाने का प्रयास करता है। पर हर संभव प्रयास के बाद भी जब बेकाबू होकर बढ़ती ही जाती है, तो उस विषम परिस्थिति में वह चतुर व्यक्ति अपने मकान का ममत्व छोड़कर बहुमूल्य वस्तुओं को बचाने में लग जाता है। उस गृहस्थ को मकान का विध्वंसक नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसने तो अपनी ओर से रक्षा करने की पूरी कोशिश की, िंकतु जब रक्षा असंभव हो गयी तो एक कुशल व्यक्ति के नाते बहुमूल्य वस्तुओं का संरक्षण करना ही उसका कर्त्तव्य बनता है। इसी प्रकार रोगादिकों से आक्रांत होने पर एकदम से सल्लेखना नहीं ली जाती। वह तो शरीर को अपनी साधना का विशेष साधन समझ यथासंभव उसका योग्य उपचार/प्रतिकार करता है, किन्तु पूरी कोशिश करने पर भी जब वह असाध्य दिखता है और वह नि:प्रतिकार प्रतीत होता है तो उस विषम परिस्थिति में मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अपने व्रतों की रक्षा में उद्यत हो, समभावपूर्वक मृत्युराज के स्वागत में तैयार हो जाता है।
सल्लेखना को आत्मघात नहीं कहा जा सकता। वह तो देहोत्सर्ग की तर्कसंगत और वैज्ञानिक पद्धति है, जिससे अमरत्व की उपलब्धि होती है। सल्लेखना की इसी युक्तियुक्तता एवं वैज्ञानिकता से प्रभावित होकर बीसवीं शताब्दी के विख्यात संत ‘विनोबा भावे’ ने जैनों की इस साधना को अपनाकर सल्लेखनापूर्वक देहोत्सर्ग किया था।
सल्लेखना को साधक की अंत:क्रिया कहा गया है। अंतक्रिया यानि मृत्यु के समय की क्रिया को सुधारना अर्थात् काय और कषाय को कृश करके सन्यास धारण करना, यही जीवन-भर के तप का फल है। जिस प्रकार वर्ष-भर विद्यालय में जाकर विद्या-अध्ययन करने वाला विद्यार्थी यदि परीक्षा के वक्त विद्यालय नहीं जाता, तो उसकी वर्ष-भर की पढ़ाई निरर्थक रह जाती है। उसी प्रकार जीवन भर साधना करते रहने के उपरांत भी यदि सल्लेखनापूर्वक मरण नहीं हो पाता तो उसका वांछित फल नहीं मिल पाता, इसलिए प्रत्येक साधक को सल्लेखना जरूर से जरूर करनी चाहिए। मुनि और श्रावक दोनों के लिए सल्लेखना अनिवार्य है। यथाशक्ति इसके लिए प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार युद्ध का अभ्यासी पुरुष रणांगण में सफलता प्राप्त करता है उसी प्रकार पूर्व में किए गए अभ्यास के बल से ही सल्लेखना सफल हो पाती है अत: जब तक इस भव का अभाव नहीं होता तब तक हमें प्रतिसमय ‘समतापूर्वक मरण हो’ इस प्रकार का पुरुषार्थ करना चाहिए। वस्तुत: सल्लेखना के बिना साधना अधूरी है। जिस प्रकार किसी मंदिर में निर्माण के बाद जब तक उस पर कलशारोहण नहीं होता, तब तक वह शोभास्पद नहीं लगता, उसी प्रकार जीवन भर की साधना, सल्लेखना के बिना अधूरी रह जाती है। सल्लेखना साधना के मंडप में किया जाने वाला कलशारोहण है।
सल्लेखना या समाधि का अर्थ एक साथ सब प्रकार के खान—पान का त्याग करके बैठ जाना नहीं है अपितु उसका एक निश्चित क्रम है। उस क्रम का ध्यान रखकर ही सल्लेखना करनी/करानी चाहिए। इसका ध्यान रखे बिना एक साथ ही सब प्रकार के खान—पान का त्याग करा देने से साधक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। कभी—कभी तो उसे अपने लक्ष्य से च्युत भी हो जाना पड़ता है अत: साधक को किसी भी प्रकार की आकुलता न हो और वह क्रमश: अपनी काय और कषायों को कृश करता हुआ, देहोत्सर्ग की दिशा में आगे बढ़े, इसका ध्यान रखकर ही सल्लेखना की विधि बनायी गयी है।
सल्लेखना की विधि में सर्वप्रथम कषायों को कृश करने का उपाय बताते हुए कहा गया है कि साधक को सर्वप्रथम अपने कुटुम्बियों, परिजनों एवं मित्रों से स्नेह, अपने शत्रुओं से वैर तथा सब प्रकार के बाह्य पदार्थों से ममत्व का शुद्ध मन से त्यागकर, मिष्ट वचनों के साथ अपने स्वजनों और परिजनों से क्षमायाचना करनी चाहिए तथा अपनी ओर से भी उन्हें क्षमा करनी चाहिए। उसके बाद किसी योग्य गुरु (निर्यापकाचार्य) के पास जाकर कृत कारिता, अनुमोदना से किए गए सब प्रकार के पापों की छलरहित आलोचना कर, मरणपर्यन्त के लिए महाव्रतों को धारण करना चाहिए। (यदि गृहस्थ हो तो) उसके साथ ही उसे सब प्रकार के शोक, भय, संताप, खेद, विषाद, कालुष्य, अरति और अशुभ भावों को त्याग कर अपने बल, वीर्य, साहस और उत्साह को बढ़ाते हुए गुरुओं के द्वारा सुनाई जाने वाली अमृतवाणी से अपने मन को प्रसन्न रखना चाहिए।
इस प्रकार ज्ञानपूर्वक कषायों को कृश करने के साथ वह अपनी काया को कृश करने के हेतु सर्वप्रथम स्थूल/ठोस आहार-दाल, भात, रोटी जैसे आहार का त्याग करता है तथा दुग्ध, छाछ आदि जैसे पेय पदार्थों में रहने का अभ्यास बढ़ाता है। धीरे—धीरे जब दूध, छाछ आदि पर रहने का अभ्यास हो जाता है, तब वह उनका भी त्याग कर मात्र गर्म जल ग्रहण करता है। इस प्रकार चित्त की स्थिरतापूर्वक अपने उक्त अभ्यास और शक्ति को बढ़ाकर, धीरजपूर्वक अंत में उस जल का भी त्याग कर देता है और अपने व्रतों का निरतिचार पालन करते हुए ‘पंच—नमस्कार’ मंत्र का स्मरण करता हुआ शांतिपूर्वक, इस देह का त्यागकर परलोक को प्रयाण करता है।
सल्लेखनाधारी साधक को अपनी सेवा, सुश्रूषा होती देखकर अथवा अपनी इस साधना से बढ़ती हुई प्रतिष्ठा के लोभ में और अधिक जीने की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। ‘‘मैंने आहारादि का त्याग तो कर दिया है किन्तु मैं अधिक समय तक रहूं, तो मुझे भूख—प्यास आदि की वेदना भी हो सकती है इसलिए अब और अधिक न जीकर शीघ्र ही मर जाऊं तो अच्छा है।’’ इस प्रकार मरण की आकांक्षा भी नहीं करनी चाहिए। ‘‘मैंने सल्लेखना तो धारण कर ली है, पर ऐसा न हो कि क्षुधादिक की वेदना बढ़ जाए और मैं उसे सह न पाऊं।’’ इस प्रकार का भय भी मन से निकाल देना चाहिए। ‘‘अब तो मुझे इस संसार से विदा होना ही है,
किन्तु एक बार में अपने अमुक मित्र से मिल लेता बहुत अच्छा होता।’’ इस प्रकार का भाव मित्रानुराग है। सल्लेखनाधारी साधकको इससे भी बचना चाहिए।’’ ‘‘मुझे इस साधना के प्रभाव से आगामी जन्म में विशेष भोगोपभोग की सामग्री प्राप्त हो’’, इस प्रकार का विचार करना निदान है। साधक को इससे भी बचना चाहिए। जीने-मरने की चाह, भय, मित्रों से अनुराग और निदान ये पांचों सल्लेखना को दूषित करने वाले अतिचार हैं। साधक को इनसे बचना चाहिए। जो एक बार अतिचार रहित होकर सल्लेखनापूर्वक मरण प्राप्त करता है, वह अति शीघ्र मोक्ष को प्राप्त करता है। जैन शास्त्रों के अनुसार सल्लेखना—पूर्वक मरण करने वाला साधक या तो उसी भव से मुक्त हो जाता है या एक या दो भव के अंतराल में। ऐसा कहा गया है कि सल्लेखनापूर्वक मरण होने से अधिक से अधिक सात—आठ भवों के अंतर से तो मुक्ति हो ही जाती है इसीलिए जैन साधना में सल्लेखना को इतना महत्त्व दिया गया है तथा प्रत्येक साधक (श्रावक और मुनि दोनों) को जीवन के अंत में प्रीतिपूर्वक सल्लेखना धारण करने का उपदेश दिया गया है।