मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता।।२२।।
मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रेमपूर्वक धारण करना चाहिये।
जीव के अपने परिणामों से ग्रहण किये हुये आयु, इन्द्रिय और बल का कारणवश क्षय होना मरण है। इसके दो भेद हैं-नित्यमरण और तद्भव मरण।
जो प्रतिक्षण आयु आदि का क्षय हो रहा है वह नित्य मरण है। नूतन शरीर को धारण करने के लिये पूर्व शरीर का नष्ट होना तद्भव मरण है। सूत्र में मरणान्त शब्द से तद्भव मरण लिया गया है। सल्लेखना अर्थात् भली प्रकार से काय और कषायों को कृश करना। बाह्य शरीर और आभ्यंतर कषायों को, उनके कारणों को त्यागपूर्वक क्रम-क्रम से क्षीण करते जाना सल्लेखना है। इसको सेवन करने वाला ‘गृही’ होता है।
प्रश्न-सूत्र में ‘सेविता’ क्रिया का प्रयोग क्यों नहीं किया ?
उत्तर-यद्यपि ‘सेविता’ क्रिया से काम चल सकता था फिर भी ‘जोषिता’ क्रिया के प्रयोग में प्रीतिपूर्वक सेवन करना, ऐसा अर्थ निकलता है इसलिये ‘जोषिता’ क्रिया का प्रयोग किया गया है क्योंकि स्वयं की अंतरंग प्रीति के बिना जबरदस्ती किसी को सल्लेखना कराई नहीं जाती है। जिसके अंतरंग में प्रीति है वही सल्लेखना करने का इच्छुक होता है।
प्रश्न-सल्लेखना में अभिप्रायपूर्वक आयु और शरीर का घात किया जाता है अत: इसमें आत्मवध का दोष स्पष्ट है ?
उत्तर-प्रमाद के योग से प्राणों के घात को हिंसा कहते हैं और सल्लेखना में प्रमाद का योग नहीं है अत: उसे आत्मवध नहीं कह सकते हैं क्योंकि राग, द्वेष और मोह आदि से कलुषित व्यक्ति जब विष, शस्त्र आदि से अभिप्रायपूर्वक अपना घात कर लेता है तभी वह आत्मवध का दोषी माना जाता है अन्यथा नहीं किन्तु सल्लेखनाधारी के राग, द्वेष आदि कलुषताएं नहीं हैं अत: उसे आत्मवध का दोष कहना कथमपि संगत नहीं है। कहा भी है-
रागादीणमणुप्पा अहिंसकत्तेति देसिदं समये।
तेसिं चेदुप्पत्तो हिंसेति जिणेहिं णिद्दिट्ठा।।
रागादि भावों की उत्पत्ति का न होना ही अहिंसा है ऐसा आगम में कहा गया है और रागादि की उत्पत्ति का होना ही हिंसा है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
इस कथन से राग, द्वेष आदि परिणामों के न होने से बल्कि धर्म और संयम के रक्षण की भावना से ही श्रावक या मुनि विधिवत् शरीर का त्याग करते हैं अत: यह अिंहसा ही होने से आत्मवध नहीं है।
दूसरी बात यह भी है कि मरण तो अनिष्ट है और सल्लेखना इष्ट है। जैसे-अनेक रत्न अथवा सोने, चाँदी के व्यापारी को अपनी दुकान का विनाश कभी इष्ट नहीं होता है और कदाचित् दुकान के विनाश के कारण आ जाने पर यथाशक्ति उनका परिहार करता है और यदि विनाश के कारण का परिहार संभव न हो सका तो वह उसमें रखे बहुमूल्य पदार्थों की रक्षा करता है।
उसी तरह व्रत, शील, पुण्य आदि के संचय में लगा हुआ गृहस्थ भी इनके आधारभूत शरीर का विनाश कभी नहीं चाहता, कदाचित् शरीर में रोग आदि विनाश के कारण आ जाने पर उनका यथाशक्ति संयम के अनुसार प्रतीकार भी करता है किन्तु यदि प्रतीकार शक्य नहीं रहता है तो वह अपने संयम व्रत आदि की रक्षा करने के लिए प्रयत्नशील होता है अत: व्रतादि की रक्षा के लिये किया गया जो प्रयत्न है वह आत्मवध वैâसे कहा जा सकता है ? अर्थात् धर्म की रक्षा हेतु शरीर का त्याग करना ही सल्लेखना है अत: वह कथमपि आत्मघात नहीं है।
अथवा जिस प्रकार कोई महासाधु ठण्डी और गर्मी आदि के सुख-दु:ख को नहीं चाहता है पर यदि बिना चाहे भी सुख-दु:ख आ जाते हैं तो उनमें राग-द्वेष के न करने से तत्कृत कर्मों के बंध से लिप्त नहीं होता है उसी प्रकार जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित सल्लेखनाधारी व्रती जीवन और मरण दोनों के प्रति अनासक्त रहता है पर यदि मरण के कारण उपस्थित हो जाते हैं तो वह राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति के न करने से तथा विधिवत् काय-कषाय को कृश करते हुए सल्लेखना करने से आत्मघात का दोषी नहीं है।
जिस समय व्यक्ति शरीर को जीर्ण करने वाली जरा से क्षीणबल वीर्य हो जाता है अथवा वातादि विकारजन्य रोगों से तथा इन्द्रियबल आदि के नष्टप्राय होने से मृतप्राय हो जाता है उस समय सावधान व्रती मरण के अनिवार्य कारणों के उपस्थित होने पर प्रासुक भोजन, पान और उपवास आदि के द्वारा क्रमश: शरीर को कृश करता है और मरण होने तक अनुप्रेक्षा आदि का चिन्तन करके उत्तम आराधक होता है।
(श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है कि उपसर्ग के आ जाने पर, दुर्भिक्ष के हो जाने पर, अत्यर्थ वृद्धावस्था के हो जाने पर, रोगों के उपस्थित हो जाने पर ये कारण ऐसे हों कि जिनका प्रतीकार संभव नहीं है उस समय धर्मात्मा मनुष्य को धर्म की रक्षा करते हुए अपने शरीर का त्याग कर देना चाहिए।
यह सल्लेखना व्रत गृहस्थ और मुनि दोनों के लिए होता है। गृहस्थ भी सल्लेखना के लिए घर को छोड़ कर मुनिसंघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करे यही उत्तम मार्ग है, यदि कदाचित् ऐसा अवसर न मिल सके तो भी धर्मात्माओं के निकट ही सल्लेखना करनी चाहिए।)