प्रतीकार रहित उपसर्ग आने पर, दुष्काल होने पर, बुढ़ापा अथवा रोग विशेष के आने पर, रत्नत्रय धर्म की आराधना करते हुए शरीर का त्याग करना सल्लेखना है। श्रावक के बारह व्रतों के अंत में सल्लेखना करने का विधान है।
‘‘मरण के समय में होने वाली सल्लेखना को प्रेमपूर्वक सेवन करना चाहिए।’’ वसुनन्दिश्रावकाचार आदि कई गंरथों में शिक्षाव्रत के चतुर्थ भेद में सल्लेखना व्रत को ले लिया है।
यथा- ‘‘वस्त्रमात्र परिग्रह को रखकर और अवशिष्ट समस्त परिग्रह को छोड़कर अपने ही घर में अथवा जिनालय में रहकर जो श्रावक गुरु के समीप में त्रिकरणशुद्धिपूर्वक अपनी आलोचना करके पीने योग्य पदार्थ के सिवाय शेष तीन प्रकार के आहार का त्याग कर देता है, उसे सल्लेखना शिक्षाव्रत कहते हैं।’
’ तात्पर्य यह है कि आयु के अंत समय में क्रम से कषाय और काय को कृश करना सल्लेखना है। इसमें क्रम-क्रम से आहार-पानी का त्याग करते हुए णमोकार मंत्र का जाप्य करते हुए शरीर को छोड़ना सल्लेखना है। इसका बहुत बड़ा महत्व है। जो मनुष्य एक बार भी सल्लेखना विधि से मरण करता है, वह कम से कम एक या दो भव और अधिक से अधिक सात-आठ भव ग्रहण करता है, अनन्तर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। तत्त्वार्थ सूत्र में श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है कि ‘‘व्रती को शल्य रहित होना चाहिए।’’ शल्य के तीन भेद हैं-माया, मिथ्या और निदान।
माया- वंचना को माया कहते हैं।
मिथ्या- तत्त्वों का श्रद्धान न करना मिथ्यात्व कहलाता है।
निदान- विषय भोगों की आकांक्षा करना निदान कहलाता है।
‘‘जो शल्य रहित होकर पाँच अणुव्रत, रात्रि भोजन त्याग और सात शीलों को (तीन गुणव्रत, चार शिक्षा व्रतों को) अतिचार रहित पालता है, वही व्रती कहलाता है।’’