श्री गौतम स्वामी ने श्रावकों के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह व्रतों का वर्णन किया है। उसमें शिक्षाव्रत में सल्लेखना को लिया है। यथा-
उनमें चार शिक्षाव्रत१ हैं-उनमें भी प्रथम सामायिक है, दूसरा प्रोषधोपवास है, तीसरा अतिथिसंविभाग है और चौथा अंतिम सल्लेखनामरण है। इसी प्रकार श्री कुन्दकुन्द देव ने भी चारित्रपाहुड़ में इन्हीं चार शिक्षाव्रतों का कथन किया है। श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में बारह व्रतों के बाद इस सल्लेखना को कहा है। यथा- ‘मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता२’’ मरण के काल में अंत समय सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक ग्रहण करना चाहिए। श्री समंतभद्रस्वामी ने भी कहा है-
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु: सल्लेखनामार्या:३।।
उपसर्ग के आ जाने पर, दुर्भिक्ष-अकाल के पड़ने पर, वृद्धावस्था के आने पर और रोग के आने पर ये ऐसे हों कि जिनको दूर करने का अब उपाय न रह जाये, तब धर्म के लिए अर्थात् अपने संयम धर्म आदि की रक्षा करते हुए शरीर का त्याग कर देना इसका नाम सल्लेखना है। यह सल्लेखना आत्मवध नहीं है क्योंकि इसमें कषायों को शांत करके सबसे क्षमाकर धर्म की रक्षा करते हुए इस नश्वर शरीर को क्रम-क्रम से विधिवत् कृश करते हुए अंत में भगवान् का नाम स्मरण करते हुए शरीर छोड़ा जाता है। भगवती आराधना ग्रंथ में इस सल्लेखना का वर्णन विस्तार से किया गया है। असल में ‘जीने की कला’ तो सब सिखाते हैं किन्तु ‘मरने की कला’ जैनाचार्यों ने ही सिखायी है और जो मरने की कला या विधि सीख कर वीरता से मरते हैं, वे ही एक न एक दिन मृत्युंजयी भगवान् बन जाते हैं। उनके मरने पर परिवार वालों को सूतक-पातक भी नहीं लगता है प्रत्युत् उनका मरण महोत्सव कहलाता है और उनके अंत्येष्टि से पवित्र स्थान ‘निषद्या’ बन जाता है, जिसकी भक्तजन क्या मुनिगण भी वंदना करते हैं। भगवती आराधना के आधार से यहाँ सल्लेखना का संक्षिप्त स्वरूप दिखाया जा रहा है। सल्लेखना मनुष्यादि भव के पर्याय का नाश होना मरण है। उस मरण के पाँच भेद हैं। पंडित पंडित मरण, पंडित मरण, बाल पंडित मरण, बाल-मरण, बाल-बाल मरण। पंडित पंडित मरण – क्षीणकषाय केवली भगवान् पंडित पंडित मरण से मरते हैं। अर्थात् केवली के मरण का पंडित पंडित मरण नाम है। पंडित मरण –छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक में होने वाला मरण पंडित मरण है। बाल पंडित मरण – विरताविरत-देशसंयत के मरण को बाल पंडित मरण कहते हैं। बाल मरण –अविरत सम्यग्दृष्टि का मरण बाल मरण है। बाल-बाल मरण – मिथ्यादृष्टि जीवों का मरण, अपघात आदि करके मरण करना, यह सब बाल-बाल मरण हैं, क्योंकि ये जीव बार-बार मरण करते ही रहते हैं। पंडित मरण पंडित मरण के तीन भेद होते हैं-पादोपगमन, भक्त, प्रतिज्ञा और इंगिनीमरण।
पादोपगमन –अपने पावों द्वारा संघ से निकलकर और योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण किया जाता है, वह पादोपगमन मरण है। इसमें मुनिराज अपने शरीर की वैयावृत्य स्वयं भी नहीं करते हैं और इतर मुनियों द्वारा भी नहीं कराते हैं। विशिष्ट संहनन वाले मुनि ही इस मरण को स्वीकार करते हैं । भक्तिप्रतिज्ञा मरण – भक्त आहार की प्रतिज्ञा-त्याग करना भक्त प्रतिज्ञा है। इस मरण में स्वपर वैयावृत्य की अपेक्षा रहती है ।
इंगिनीमरण – स्वाभिप्रायपूर्वक इंगिनी मरण करने योग्य संहनन का अभाव है, अत: भक्त प्रतिज्ञा मरण का यहाँ स्पष्टीकरण करते हैं । भक्तप्रत्याख्यान मरण के दो भेद हैं-सविचार भक्त प्रत्याख्यान और अविचार भक्त प्रत्याख्यान। जो गृहस्थ अथवा मुनि उत्साह और बलयुक्त हैं, जिनका कुछ काल के अनन्तर मरण होगा, उनके सविचार भक्त-प्रत्याख्यान मरण होता है। इसके विपरीत अकस्मात् मरण के आ जाने पर पराक्रम रहित साधु का मरण अविचार भक्त प्रत्याख्यान है। भक्त-प्रत्याख्यान का जघन्य काल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल द्वादश वर्ष प्रमाण है। अर्थात् कोई भी मुनि निमित्त ज्ञानादि के द्वारा जब अपनी आयु को बारह वर्ष के भीतर निर्णीत कर लेते हैं, तब वे उत्कृष्ट सल्लेखना को ग्रहण कर लेते हैं।१ वे मुनिराज बारह वर्ष किस प्रकार बितावें सो कहते हैं। इन बारह वर्षों में प्रारंभ के चार वर्ष तो नाना प्रकार के अनशन, अवमौदर्य, सर्वतोभद्र, एकावली, द्विकावली, रत्नावली, सिंहावलोकन आदि तपों का अनुष्ठान करते हुए पूर्ण करें। आगे के चार वर्ष रसपरित्यागनामक तप से पूर्ण करें। पुन: दो वर्ष तक कभी अल्प भोजन, कभी नीरस भोजन करते हुए बितावें पुन: एक वर्ष तक कभी अल्प आहार करते हुए पूर्ण करें? इस प्रकार विधि बतलाई गई है। अर्थात् भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना वाला कषायों को कृश् करते हुए विधिवत् काय को भी कृश करता जावे, इसी का नाम सल्लेखना है। आचार्य अपनी सल्लेखना करने के लिए अपने योग्य शिष्य को अपना आचार्य पद देकर स्वयं संघ का त्याग कर अन्य संघ में जाकर सल्लेखना ग्रहण करते हैं। अथवा कदाचित् अपने संघ में भी सल्लेखना लेते हैं। जो सल्लेखना ग्रहण करते हैं, वे क्षपक कहलाते हैं और जो आचार्य उनकी सल्लेखना कराते हैं, वे निर्यापकाचार्य कहलाते हैं। आचार्यों ने एक मुनि की सल्लेखना के समय अड़तालीस मुनियों की आवश्यकता बतलाई है। योग्य वसति में क्षपक को सल्लेखना ग्रहण कराकर वे मुनि क्या-क्या करते हैं ? उसको बताते हैं। चार मुनि क्षपक को उठाने, बिठलाने आदि सेवा का काम करते हैं, जिससे संयम में बाधा न आवे। चार मुनि क्षपक को धर्म श्रवण कराते हैं। चार मुनि आचारांग के अनुवूâल क्षपक को आहार कराते हैं। चार मुनि क्षपक को पान (पीने योग्य पदार्थ) की व्यवस्था करते हैं। चार मुनि क्षपक की रक्षा करते हैं। चार मुनि क्षपक के शरीर के मल को दूर करते हैं। चार मुनि क्षपक की वसतिका के द्वार के अधिकारी होते हैं। चार मुनि अन्य दर्शनार्थियों को सम्बोधन करते हैं। चार मुनि रात्रि में जागरण करते हुए क्षपक को संभालते हैं। चार मुनि देश की प्रवृत्ति देखते हैं। चार मुनि बाहर से आये जनों को कथा आदि सुनाते हैं। चार मुनि वाद करके अन्य मतों का निराकरण करते हैं। ऐसे ये अड़तालीस निर्यापक मुनि यत्नपूर्वक क्षपक की समाधि सिद्ध करते हुए संसार समुद्र से पार करते हैं।३ यदि अधिकरूप से समाधि के समय इतने मुनियों का योग न मिले, तो जितने हों, उतने में ही उपर्युक्त व्यवस्था बना देना चाहिए। कम से कम दो मुनि होना अत्यन्त आवश्यक ही है। इस प्रकार से सल्लेखना से मरण करने वाले भव्य जीव अधिक से अधिक सात-आठ भव और कम से कम दो तीन भव ही ग्रहण करते हैं। अनन्तर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेते हैं।