विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध कहता है कि अंतरंगार्थ विज्ञान मात्र ही एक तत्त्व है किन्तु दिखने वाले बहिरंग पदार्थ कुछ भी नहीं हैं ये तो कल्पना मात्र हैं। ये सब बाह्य पदार्थ इंद्रजालिया के खेल के समान हैं अथवा स्वप्न के राज्य समान हैं।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि आपकी इस एकांत मान्यता से तो हेतु और आगम से सिद्ध मोक्ष तत्त्व एवं अनुमान, आगम आदि सभी प्रमाण आदि मिथ्या हो जायेंगे तथा बाह्य पदार्थ भी प्रत्यक्ष में जो दिख रहे हैं वे सर्वथा काल्पनिक नहीं है अन्यथा नर-नारकादि पर्यायें और उनके निमित्त से होने वाले सुख-दु:ख भी काल्पनिक ही कहे जायेंगे और तब संसार भी काल्पनिक ही सिद्ध होगा। इस व्यवस्था से तो आपके बुद्ध भगवान काल्पनिक कहने पर तो मोक्ष भी काल्पनिक एवं आपका मत भी काल्पनिक ही हो जायेगा।
कोई बाह्य पदार्थवादी है-जितने भी बाह्य पदार्थ हैं वे सब ज्ञान से संबंधित हैं क्योंकि ज्ञान विषयाकार होता है। अत: बाह्य पदार्थ ही वास्तविक हैं ज्ञान स्वतंत्र कोई चीज नहीं है।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यदि आप सभी पदार्थों को ज्ञान से संबंधित मानेंगे तब तो प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही खत्म हो जायेंगे। तृण के अग्र भाग पर सौ हाथी बैठे हैं। इत्यादि ऊटपटांग वाक्यों का ज्ञान एवं स्वप्न का ज्ञान अपने-अपने पदार्थ से संबंधित नहीं है क्योंकि इन ज्ञानों में विसंवाद देखा जाता है।
इन अंतरंग-ज्ञानतत्त्व और बहिरंग-बाह्य पदार्थ को परस्पर निरपेक्ष मानने वाले उभयैकात्म्यवादी का सिद्धांत भी विरुद्ध ही है। उसी प्रकार दोनों तत्त्वों को एकांत से अवाच्य मानना भी अघटित ही है।
स्याद्वाद की अपेक्षा अंतरंग और बहिरंग दोनों ही तत्त्व वास्तविक हैं। सभी ज्ञान स्वरूप संवेदन की अपेक्षा से एवं सत्त्व प्रमेयत्वादि की अपेक्षा से प्रमाणरूप ही हैंं अतएव अंत: प्रमेय की अपेक्षा से प्रमाणाभास कुछ भी नहीं है किन्तु जब बहि: प्रमेय-बाह्य पदार्थों को प्रमेय करते हैं, तब ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए अंतस्तत्व और बहिस्तत्व दोनों ही सिद्ध हैं।
चार्वाक-जीव अपने स्वरूप से रहित है, वह शरीर इन्द्रिय आदि के समूह रूप ही है। जन्म के पूर्व और मरण के अनंतर चैतन्य नामक कोई तत्त्व नहीं है अत: अनादिनिधन कोई आत्मा नहीं है। चैतन्य भी सत् है और भूतचतुष्टय भी सत् है। सत् रूप से दोनों समन्वित हैं अत: जीव भूतचतुष्टय से उत्पन्न होता है किन्तु भूतचतुष्टय तो परस्पर में भिन्न-भिन्न हैं। उन चारों में एक विकारी समन्वय नहीं है अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चारों तत्त्व भिन्न-भिन्न ही हैं।
जैनाचार्य-यह आपका कथन सर्वथा असत् है। जीव गया, जीव विद्यमान है, इत्यादि रूप से यह जीव शब्द लोकव्यवहार का आश्रय लेता है। यह व्यवहार शरीर, इन्द्रिय आदि में नहीं हो सकता है। वैसे ही जन्म से पहले और मरण के अनंतर भी चैतन्य का अस्तित्व सिद्ध है, किसी को जातिस्मरण होता हुआ देखा जाता है, बालक माता का स्तनपान करता है इत्यादि बातें भी संस्कार से मानी जाती हैं। आपने जो भूतचतुष्टय से चैतन्य की उत्पत्ति मानी है, वह भी सर्वथा गलत है क्योंकि अचेतन से चेतन की उत्पत्ति होना असंभव है तथा ये चारों भूतचतुष्टय परस्पर में सजातीय होने से एक-दूसरे रूप भी परिणत हो सकते हैं इसलिए ये सर्वथा भिन्न-भिन्न भी नहीं हैं। चंद्रकांत मणि रूप पृथ्वी से जल की उत्पत्ति, सूर्यकांत से अग्नि की उत्पत्ति आदि तथा जलबिन्दु से सीप में मोती की उत्पत्ति आदि देखी जाती है अत: अनादिनिधन जीव तत्त्व सिद्ध है वह ज्ञान दर्शन उपयोग स्वभाव वाला है।
ऐसे ही सांख्य जीव को कूटस्थ नित्य अपरिणामी ज्ञान शून्य मानते हैं। वे ज्ञान को प्रकृति (जड़) का धर्म मानते हैं। योग जीव को स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा नहीं जानने योग्य-अस्वसंविदित मानते हैं। ब्रह्मवादी कहते हैं कि सभी शरीर में एक अभिन्न रूप (परमब्रह्म) जीवात्मा है। बौद्ध आत्मा को प्रतिक्षण भिन्न-भिन्न ही मानते हैं। इन सब के द्वारा जीव शब्द बाह्यार्थ सहित नहीं है क्योंकि यह सब मान्यता केवल कपोलकल्पित ही है।इस प्रकार जीव तत्त्व की सिद्धि हो जाने से अंतरंग तत्त्व सिद्ध हो जाता है। उसी प्रकार से बाह्य पदार्थ भी परमार्थ सत्य है क्योंकि साधन और दूषण का प्रयोग देखा जाता है। बाह्य पदार्थ के होने पर ही ज्ञान एवं शब्द प्रमाणरूप हैं, बाह्य पदार्थ के अभाव में प्रमाणभूत नहीं हैं। इस प्रकार से अर्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति से ही सत्य और असत्य की व्यवस्था हो जाती है।
भावार्थ-जीव तत्त्व वास्तविक है अन्यथा ‘न जीव: अजीव:’ इस नियम से अजीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा तथा जीव के बिना बाह्य पदार्थों को बतलाने वाला भी कोई नहीं रहेगा अत: जीव तत्त्व की निर्बाध सिद्धि हो जाने से बाह्य पदार्थ भी निर्बाधरूप से सिद्ध हो जाते हैं।