सातिशय श्री संकटहर पार्श्वनाथ भगवान जैनगिरी, जटवाड़ा
—डॉ. सी.के. पाटणी, शहागंज, औरंगाबाद (महा.)
यह स्थान महाराष्ट्र प्रांत के औरंगाबाद के उत्तर दिशा में ९९ कि.मी. दूरी पर है। ईसा की चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली बादशाह महमूद तुगलक का राज था। सुरक्षा व प्रशासन व्यवस्था की दृष्टि से उसे यादवों द्वारा निर्मित देवगिरी का किला बड़ा उपयुक्त स्थान लगा। उसने अपनी राजधानी दिल्ली से देवगिरी ले जाने के लिए विशाल सेना व वणिक व्यापारियों के साथ प्रस्थान किया। इन व्यापारियों में दिल्ली, आगरा के करीब एक हजार जैन परिवार के लोग थे। देवगिरी आने पर महमूद तुगलक की सेना तो देवगिरी में रही व साथ के जैन व्यापारी ने अपने निवास के लिए देवगिरी की पूर्व दिशा में नजदीक ही नदी के किनारे पर बस गये। वहाँ निवास कर व्यापार करने लगे। यहाँ जैन लोगों की बस्ती होने से इसे ‘‘जैनवाडा’’ कहा जाने लगा। यह स्थान बड़ा रमणीय एवं शुद्ध हवा पानी से युक्त था। चारों तरफ पहाड़ी, उन पर वनराई गाँव के नजदीक ही सुंदर नदी। ऐसे रमणीय स्थानों में उन्होंने अपने आराध्य देव जिनेन्द्र भगवान के भी मंदिर बनवाये। कहा जाता है कि जिसमें से एक मंदिर शीतलनाथ भगवान का था। इस मंदिर के कुछ पीतल के बरतन औरंगाबाद के अग्रवाल दिगम्बर जैन मंदिर, सराफा में विद्यमान हैं। जिस पर ‘शीतलनाथ मंदिर जटवाड़ा’ नाम उत्कीर्ण है। जब प्राचीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई तब जटवाड़ा के बरतन हमने प्रत्यक्ष देखे थे। जटवाड़ा, जोगवड़ा यह स्थान पर्वतों से घिरा होने से साधुओं के ध्यान व निवास के लिए उत्तम स्थान है। हिंदू साधु, योगी जहाँ रहते थे, उसे जोगीवाडा या जोगवाडा कहते थे। जैनवाड़ा में जैन यति रहते थे। इस का नामांतर जटवाडा है। इस के नजदीक ३/४ कि.मी. पर ‘जोगवाडा’ ग्राम है। यह दोनों गाँव अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं और अपने-अपने संस्कृति के परम परिचायक हैं। यद्यपि गाँव बहुत छोटा है।
महमूद तुगलक का पुनर्गमन- महमूद तुगलक देवगिरी आया परन्तु कुछ ही वर्षों बाद पुन: अपनी सेना व मंत्रीगणों के साथ दिल्ली चला गया। परन्तु जैन व्यापारियों का यहाँ व्यापार अच्छा जम गया। वे वापस नहीं गये। वे यहाँ ही जैनवाडा में रहकर अपना व्यापार उद्योग व धर्म साधना करते रहे। नजदीक ही ऐलोरा की जैन गुफायें थीं। राष्ट्रकूट राजाओं की राजधानी का व आचार्य जिनसेन का कर्मस्थान शूलीभंजन था। राष्ट्रकूट राजा किसी को शूली पर देकर किसी का वध व हत्या करना, मृत्युदण्ड देना हिंसा पाप समझते थे। उनके राज्य में शूली पर देने की बंदी थी। इसलिए उन्होंने अपनी राजधानी का नाम ‘शूलीभंजन’ रखा था। यह तो जैन राजाओं की ही विशेषता थी कि वह पापों का तो त्याग करते थे परंतु पापी का वध व हत्या करना पाप समझकर उस का भी त्याग करते थे। इस तरह जटवाड़ा का यह परिसर जैन गरिमा का पावन पवित्र सुस्थान रहा। ऐसे स्थान में ५००/६०० वर्ष प्राचीन सातिशय संपन्न पार्श्वनाथ भगवान प्रतिमा सह अन्य तीर्थंकरों की २१ प्रतिमायें प्राप्त होने से यह स्थान केवल गरिमामय ही नहीं रहा, प्रत्युत् यह स्थान वंदनीय जैन धर्मक्षेत्र बन गया।
कालाय तस्मै नम:।
काल बड़ा बलवान होता है। उसी से चेतन-अचेतन द्रव्य एवं पदार्थों में व्यक्त या अव्यक्त रूप में क्यों न हो, नित्य प्रत्येक समय में, सेकेण्ड में परिवर्तन होता ही हैै। महमूद तुगलक के जाने के बाद, दो सौ वर्ष बाद सोलहवीं (१६ वीं) शताब्दी में जैनवाड़ा के जैनियों की स्थिति में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। शासन व्यवस्था में ऐसा परिवर्तन हो गया, कि जैनियों में असुरक्षा की भावना व स्थिति निर्मित हो गयी और जैनवाड़ा-जटवाड़ा से जैन स्थानांतरित होने लगे। अपने प्राणों की तथा अपने आराध्य देव तीर्थंकरों की प्रतिमा की रक्षा का गहन प्रश्न उनके सामने प्रस्तुत रहा। इतना भी समय नहीं था कि वे अपने पूज्य तीर्थंकरों की प्रतिमायें अपने साथ स्थानांतरित कर सके। इसलिए मंदिर के ही तलघर (भूयार) में मूर्तियों को रखकर ऊपर से मंदिर का ढांचा गिरा दिया गया ताकि पत्थरों का, विटों का मिट्टी का ढ़ेर उठाकर मूर्तियों का भंजन व विनाश करना असामंजस्य तत्त्वों के लिए असंभव हो जाये। राजस्थान में एक पापड़ीवाल महानुभाव हुये जिन्होंने सवा लाख प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराकर भारत के कोने-कोने में, गाँव-गाँव प्रतिमायें विराजमान कराकर यह सिद्ध करा दिया कि असमंजस्य तत्त्वों के लिए जैन संस्कृति का व जैन मूर्तियों का विनाश करना असंभव है। जैनवाड़ा के लोगों ने भी यह बता दिया कि जैन प्रतिमाओं में वह सातिशय प्रभाव है कि वे सुरक्षित रहेगीं। पंचम काल के अंत तक जिनमंदिर बनते ही रहेंगे। जैन संस्कृति, जैनाचार अमर रहेगा। जैनवाड़ा के जैन लोग जितना हो सका, उतना साहित्य लेकर देवगिरी, औरंगाबाद, देऊलगाँव राजा, अंबड, जिंतूर आदि स्थानों में स्थानांतरित हुये। वहाँ भी उन्होंने जैन प्रतिमायें प्रतिष्ठित कराकर जैन मंदिरों का निर्माण किया और अपनी संस्कृति की रक्षा व आचार धर्म का पालन किया। जैनधर्म के लोगों की धर्माचार की दृढ़ श्रद्धा और कट्टरता से ही अनादिकाल से आज तक जैनधर्म टिका रहा। इस में साधुओं का योगदान अपूर्व, अप्रतिम, आश्चर्यजनक रहा। उनके उपदेशों के अनुसार श्रावकों ने त्याग की पराकाष्ठा की। आचार धर्म की महत्ता को जैन समाज कभी नजरअंदाज नहीं कर सकता। वही उनके अस्तित्व का मूलाधार है। कालपरिवर्तन से जैनवाड़ा जटवाड़ा के जैन लोगोें को आपदा से झगड़ना पड़ा। इसलिये तो कहते हैं
‘‘कालाय तस्मै नम:’’।
सोनाबाई का सपना, आचार्यों की भविष्यवाणी- जैनवाड़ा जटवाड़ा से जैन स्थानांतरित होने के चार-पाँच शताब्दियों के बाद बीसवीं शताब्दी में औरंगाबाद के एक जैन व्यक्ति श्री पुंजासा साहूजी की धर्मपत्नी सौ.सोनाबाई को बार-बार सपने में एक जैन मंदिर जैन मूर्तियों सहित दिखने लगा। श्री पुंजासा कपड़े के व्यापारी थे। गाँव-गाँव के बाजार में जाकर कपड़ा बेचते थे। सौ. सोनाबाई को दिखने वाला जैन मंदिर कहीं दिखता क्या, इस का शोध ले रहे थे। एक दिन सोनाबाई के साथ जटवाड़ा में गये। वहाँ जाने पर एक इमारत देखकर सोनाबाई ने कहा कि सपने में दिखने वाला मंदिर यही है। वे उस इमारत के द्वार पर गये। द्वार के ऊपर एक छोटी सी वीतराग प्रतिमा उत्कीर्ण थी परन्तु मंदिर में अन्य धर्मों के देवी-देवताओं की प्रतिमा व महादेव की िंपडी थी। वे बड़े अचरज में पड़ीं। द्वार पर जैन प्रतिमा है, अंदर मूर्तियाँ अन्य धर्म की हैं और सपने में तो वही जैन मंदिर एवं मूर्तियाँ दिखती हैं। इसका समाधान कौन, कैसे करेगा? आचार्य आर्यनंदीजी महाराज का जन्मस्थान औरंगाबाद जिले में ढोरकिन गाँव था। उनका कर्मस्थान भांबरवाडी, कन्नड, पैठण, एलोरा, औरंगाबाद रहा। वे नजदीक ही थे। सोेनाबाई ने अपने सपने की बात व जटवाड़ा मंदिर की बात बताकर क्या किया जावे? ऐसा पूछा। महाराज श्री ने बताया यह जैन मंदिर ही था। यहाँ जैन मूर्तियाँ प्राप्त होंगी। प्रयास किया जायेगा, ग्रामीण जनता को समझाया जायेगा। समय तो लगेगा। मध्यावधि में आचार्य महावीरकीर्तिजी औरंगाबाद आये। औरंगाबाद से जटवाड़ा को विहार हुआ। निरीक्षण के बाद उन्होंने भी कहा कि भविष्य में यहाँ जिनमूर्तियाँ प्राप्त होंगी तथा इस क्षेत्र का अतिशय प्रसिद्ध होगा।
मंदिर प्राप्ति- आचार्य आर्यनंदी महाराज के प्रयत्नों को यश प्राप्त हुआ, गाँव के सरपंच तथा जनता ने मंदिर की अपनी मूर्तियाँ हटाकर वहाँ जैन मंदिर होना मान्य किया। इस मंदिर की वेदी के नीचे तीन भूयार थे। उसमें से एक भूयार में से तीर्थंकर पद्मप्रभु भगवान की प्रतिमा प्राप्त हुई। आर्यनंदी महाराज ने उस मूर्ति के संरक्षण, पूजा अर्चा की जिम्मेदारी सौ. सोनाबाई पर सौंपी तथा उस मूर्ति की स्थापना मंदिर की वेदी के पास सामने चबूतरे पर की। सोनाबाई ने यहाँ पूजा की जिम्मेदारी स्वीकारी व उसका पालन किया। प्रश्न यह है कि सोनाबाई को ही सपने में यह प्राचीन हेमाडपंथी मंदिर और जिनप्रतिमायें क्यों दिखीं? जैनवाड़ा के जैन व्यक्तियों ने जब स्थानांतर किया, तब शायद पूर्व जन्म में सोनाबाई का जीव उन स्थानांतरित जैन सदस्यों में से एक सदस्य रहा हो। पूर्व जन्म के संस्कारों से इस जन्म में सपने में वह प्राचीन मंदिर व मूर्तियाँ दिखीं। वह तो कहती थी कि उसे रत्नों की, सोने-चाँदी की मूर्तियाँ भी दिखती हैं। वह माल्यवान मूर्तियाँ जैन लोग स्थानांतर के समय साथ ले गये हों तथा वजनदार पाषाण की मूर्तियाँ भूयार में रखकर स्थानांतरित हुये हों। यह तो अनुमान है परंतु निराधार नहीं, क्योंकि अनुमान भी प्रमाण होता हैै। सत्याधार होता है। यह न्याय सिद्धांत है।
२१ मूर्तियाँ प्राप्ति का दिन-भाद्रपद शुक्ला पंचमी- २८ अगस्त १९८७ को शेखनूर नाम का मुस्लिम व्यक्ति अपने घर के लिए एक पत्थर मिट्टी में से निकाल रहा था। आजू-बाजू की मिट्टी निकालने के बाद वह पत्थर धंसता चला गया। ऐसा कैसे हुआ? लोगों ने झांककर देखा तो नीचे भूयार में मूर्तियाँ दिखीं। तुरंत यह वार्ता औरंगाबाद के जैन भाई को भेजी गयी क्योंकि जटवाड़ा की जनता जैन मूर्तियों को पहचानती थी। यह दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी का पर्यूषण पर्व का स्थापना दिवस था। इस योग से जनता बहुत हर्षित हुई। जटवाड़ा में जैन भाईयों की यात्रा उमड़ पड़ी। संपूर्ण परिसर तीर्थंकरों की जयजयकार से गूँज पड़ा। गाँव के पटेल ने यह वार्ता पुराण वस्तु संशोधन विभाग को भी दे दी। उनके अधिकारियों ने मूूर्ति अपने अधिकार में ली। तुरन्त जैन भाइयों का एक ट्रस्ट बनाने की कार्यवाही की गयी तथा ये मूर्तियाँ जैन मंदिर में प्रस्थापित करने की कार्यवाही की गयी। महाराष्ट्र विधान सभा के विधायक श्री अमानुल्ला मोतीवाला ने भी इस कार्य में सहकार्य किया तथा जैनों ने महावीर जयंती के दिन अभिषेक करके २१ मूर्तियाँ जो भूयार से प्राप्त हुई थीं, उसे प्राचीन मंदिर की विशाल वेदी पर विराजमान किया गया। जब से मूर्तियाँ विराजमान की गयीं तब से ही भगवान का एक से एक चमत्कार व अतिशय लोगों को नजर में आने लगा। लोगों के संकट निवारण होने लगे। नागराज अष्टमी, चतुर्दशी व यदा कदा प्रकट होकर कई घंटों तक भगवान के सामने बैठने लगे। १ वर्ष के बच्चे को हृदयविकार हो गया, डॉक्टर ने उसे जन्म भर औषधि लेते रहने को कहा, वह जटवाड़ा में आया, भक्ति से पूजा-प्रार्थना की, छह माह में वह भला चंगा हो गया, र्वािषक यात्रा में उसने यह बात सब जनता को बतायी, इसलिए यहाँ के मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ को जनता ‘संकटहर’ इस सार्थक नाम से पुकारने लगी। सच्ची दृढ़ भक्ति से ही पूज्य श्री पार्श्वनाथ भगवान का सातिशय प्रभाव प्रगट होता है। भगवान को जो १०८ प्रदक्षिणा देते हुये १०८ बार वंदन करता है, उसके उस दिन में लगने वाले १०८ पापों का नाश होता है तथा उस पर आने वाले संकट टल जाते हैं, मनोकामना की पूर्ति होती है। यह संकटहर पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन व वंदन का अतिशय का प्रभाव है। औरंगाबाद जिले के लोग अवसर मिलते ही संकटहर पार्श्वनाथ के दर्शनार्थ आते हैं और पापविनाश व संकट निवारण का उपाय करते हैं, पूजा—अर्चा करते हैं। सौ.सोनाबाई के परिवार के लोगोें ने अपने मंदिर के कब्जे का अधिकार छोड़कर १९८७ में नवनिर्मित ट्रस्ट के अधीन मंदिर व मूर्तियाँ दे दीं। यह भी उन्होेंने पुण्यकार्य किया है। १९८७ में जब ट्रस्ट निर्माण हुआ, तब मंदिर व उसके सामने की छत्री व कंपाउण्ड वाल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थीं। ट्रस्ट की आर्थिक स्थिति शून्य मात्र थी परन्तु कार्यकर्ताओं की कर्मठता एवं लोगों की दान प्रवृत्ति व भगवान के सातिशय पुण्य प्रभाव से सामने आया हुआ कार्य धीरे-धीरे पूर्ण होता गया। मंदिर में सुधार व जीर्णोद्धार का कार्य होने लगा। क्षेत्र पर आने वाले साधुगणों ने भी कार्य व दान की प्रेरणा दी।
क्षेत्र का नया नामकरण- १९९७ के पहले इस क्षेत्र का नाम श्री १००८ संकटहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, जटवाड़ा था। १९९७ में आचार्य देवनंदी जी ने सभी में यह बताया कि इस क्षेत्र का नामोल्लेख ‘‘श्री १००८ संकटहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, ‘जैनगिरी’ जटवाड़ा ऐसा होगा’’। तब से इस क्षेत्र के पत्र व्यवहारादि में जैनगिरी-जटवाड़ा ऐसा ही नामोल्लेख होता है। सातिशय पुण्य प्रभाव कार्य इस क्षेत्र में होने से ही अत्यंत अल्पावधि में यह क्षेत्र भारत भर में पहचाना जाने लगा। इस क्षेत्र में जो समाधिमरण प्राप्त करता है, वह निश्चय से स्वर्गों में देवगति में जन्म लेता है, ऐसा कहा जाता है। श्री संकटहर पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र के भूमि के पश्चिम दिशा में एक पहाड़ है, इसकी भूमि करीब ४० एकड़ है। यह पहाड़ वनीकरणार्थ महाराष्ट्र शासन द्वारा इस क्षेत्र को प्राप्त हुआ, वहाँ क्षेत्र द्वारा वनीकरण का कार्य होगा। जिससे क्षेत्र को स्थायी उपलब्धि होने की संभावना है। इसी पहाड़ पर भगवान बाहुबली की १२ फुट ऊँची प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी है। ईसवी सन् २००४ में तीन मूर्ति तथा चौबीस तीर्थंकर मंदिर का निर्माण हुआ। मानस्तंभ, पहाड़ पर बाहुबली की मूर्ति एवं तीन मूर्ति चौबीसी तीर्थंकर मंदिर का निर्माण हुआ। भगवान पार्श्वनाथ मंदिर के शिखर मंदिर का कार्य मदुरई के मंदिर की तरह विलोभनीय एवं अत्यंत दर्शनीय हुआ। संपूर्ण महाराष्ट्र में यहाँ के इस मंदिर के शिखर जैसा व मानस्तंभ जैसा अद्वितीय मानस्तंभ वास्तव में अन्यत्र नहीं है। भक्तजन बड़ी श्रद्धा से दर्शन कर आनंदित होते हैं। यह क्षेत्र सब के कल्याण का स्थान है।