दिग्देशानर्थदण्डविरति सामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिासंविभागव्रत संपन्नश्च।।२१।।
वह गृहस्थ दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिणाम और अतिथिसंविभागव्रत से भी युक्त होता है।
इन सात व्रतों में प्रारंभ के तीन को गुणव्रत और अंत के चार को शिक्षाव्रत कहते हैं। इन्हें शीलव्रत भी कहते हैं क्योंकि ये पांच अणुव्रतों की रक्षा करने वाले हैं।
१. दिग्विरति-दिशाओं में जाने-आने का प्रमाण करना दिग्विरति है। यह परिमाण पर्वत, नदी, शहर आदि प्रसिद्ध-प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा से किया जाता है। जो पूर्णरूप से हिंसादि पाप से निवृत्त नहीं हो सकते हैं उनके भी परिमित दिशाओं से बाहर मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदना से हिंसादि पापों का त्याग हो जाता है अत: वहां उस श्रावक के महाव्रत के सदृश माना जाता है।
२. देशविरति-घर, मुहल्ला आदि प्रदेशों की मर्यादा करके उसके बाहर नहीं जाना सो देशव्रत है। दिग्व्रत तो जीवन भर के लिये किया जाता है और देशव्रत प्रतिदिन या मास, वर्ष आदि दिनों की अवधि तक के लिये किया जाता है। इसमें भी मर्यादा के बाहर नहीं जाने से महाव्रत के समान पूर्ण हिंसादि का अभाव हो जाता है।
इन दोनों व्रतों में यही अंतर है कि दिग्विरति यावज्जीवन के लिये होती है और देशव्रत शक्त्यनुसार नियतकाल के लिये होता है।
३. अनर्थदण्डविरति-बिना प्रयोजन के पाप कर्मों में प्रवृत्ति करना अनर्थदण्ड है, उससे विरत होना अनर्थदण्डविरति है।
इसके पाँच भेद हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचरित, हिंसादान और दु:खश्रुति।
अपध्यान-दूसरे का जय, पराजय, वध, बंध,अंगच्छेद, धनहरण आदि वैâसे हो ? इत्यादि अशुभ बातों का मन में चिंतवन करते रहना अपध्यान है।
पापोपदेश-पाप के हेतु ऐसे कार्यों का उपदेश देना पापोपदेश है। इसके अनेक भेद हैं-इस देश में दास दासी सस्ते मिलते हैं इन्हें अमुक देश में ले जाकर बेचने से बहुत धन लाभ होगा, इत्यादि कहना क्लेश वणिज्या है। गाय, भैंस आदि पशुओं के बेचने का मार्ग बताना तिर्यग्वणिज्या है। जाल डालने वालों को, पक्षी पकड़ने वालों को तथा शिकारियों को पक्षी, मृग, सुअर आदि शिकार के योग्य प्राणियों का पता आदि बताना बधकोपदेश है। आरंभ कार्य करने वाले किसान आदि लोगों को पृथ्वी, जल, अग्नि आदि के उपाय बताना ‘आरम्भोपदेश’ है। तात्पर्य यह है कि हर प्रकार के पापवर्धक उपदेश देना पापोपदेश अनर्थदण्ड है।
प्रमादचरित-प्रयोजन के बिना वृक्ष आदि काटना, भूमि को कूटना, पानी सींचना आदि सावद्य कर्म करना यह सब प्रमादचरित या प्रमाद चर्या है।
हिंसादान विष, शस्त्र, अग्नि, रस्सीकशा और दण्ड आदि हिंसा के उपकरणों को किसी को देना सो यह हिंसादान है।
दु:श्रुति-हिंसा या काम आदि को बढ़ाने वाली दुष्ट कथाओं का सुनना और सिखाना आदि सब दु:श्रुति अनर्थदण्ड है।
इन सभी प्रकार के अनर्थदण्डों से विरक्त होना-त्याग कर देना सो अनर्थदण्डविरति है।
४. सामायिक-मन, वचन, काय की क्रिया से निवृत्त होकर एक आत्म द्रव्य में लीन हो जाना सो सामायिक है। सामायिक में स्थित हुये मनुष्य के उतने काल तक सर्व सूक्ष्म व स्थूल हिंसा का त्याग हो जाने से उस समय महाव्रतपना कहा जाता है। यद्यपि संयमघाती चारित्र मोह के उदय के विद्यमान रहने से उसे संयत नहीं कह सकते हैं फिर भी उतने काल तक सर्व सावद्य का त्याग होने से उपचार से महाव्रत कह दिये जाते हैं। इस सामायिक का ही ऐसा महत्त्व है कि जिससे अभव्य भी यदि निर्ग्रंथ लिंगधारी है और ग्यारह अंग का पाठी है तो यद्यपि उसके बाह्य में ही महाव्रत हैं देशसंयत या असंयत सम्यग्दृष्टि के भाव नहीं हैं फिर भी वह उपरिम ग्रैवेयक तक चला जाता है इसलिये श्रावकों को नित्य ही सामायिक करना चाहिये।
५. प्रोषधोपवास-पाँचों इन्द्रियों का अपने विषयों से निवृत्त होकर आत्मा के समीप पहुँच जाना उपवास है अर्थात् अशन, पान, भक्ष्य और लेह्य इन चार प्रकार के आहारों का त्याग करना उपवास है। प्रोषध शब्द का अर्थ पर्व है। पर्व के दिन उपवास करना सो प्रोषधोपवास है।
श्रावकशरीर संस्कार के कारणभूत स्नान, गंध, माला, अलंकाररहित होकर साधु निवास, मंदिर या प्रोषधोपवासालय आदि पवित्र स्थानों में धर्मकथा श्रवण करना, चिंतवन करना और ध्यान करना तथा आरंभ, परिग्रह को छोड़कर उपवास करना चाहिये।
यह प्रोषधोपवास की उत्कृष्ट विधि है।
६. उपभोगपरिभोगपरिमाण-एक बार भोगे जाने वाले पदार्थ भोजन, पान, माला आदि उपभोग हैं। जो पुन:-पुन: भोगने में आवें वे परिभोग हैं। जैसे-वस्त्र, अलंकार, मकान आदि। इन उपभोग परिभोग वस्तुओं की मर्यादा करना सो उपभोग परिभोग परिणाम व्रत है। इसके पाँच भेद हैं-त्रसघात, प्रमाद, बहुघात, अनिष्ट और अनुपसेव्य।
मधु, मांस पदार्थ का सेवन करना त्रस घात है क्योंकि इसमें त्रसजीव रहते हैं।
हिताहित विवेक को नष्ट करने वाली मदिरा का पान करना प्रमाद है क्योंकि यह जीव को उन्मत्त बना देती है।
केवड़ा, अर्जुनपुष्प, मूली, गीली अदरख, गीली हल्दी, नीम के फूल आदि पदार्थ में बहुत से स्थावर जीवों का निवास है अत: ये बहुघात कहलाते हैं।
गाड़ी, घोड़ा आदि कोई पदार्थ ‘इतने मुझे इष्ट हैं, रखना है, बाकी अनिष्ट हैं’ इस तरह अनिष्ट से निवृत्त होना चाहिए।
विचित्र प्रकार के वस्त्र, विकृत वेष आदि शिष्टजनों के धारण करने योग्य नहीं हैं अत: इन्हें अनुपसेव्य कहते हैं। इस प्रकार से त्रसघात आदि पदार्थों का तो यावज्जीवन के लिये त्याग कर देना चाहिए तथा जो भक्ष्य पदार्थ हों या योग्य वस्तुयें हों उनको कुछ-कुछ काल के लिये त्याग करना सो उपभोग परिभोगपरिमाणव्रत है।
७. अतिथिसंविभाग-चारित्र बल से सहित होने के कारण जो संयम का विनाश नहीं करते हुये ‘अतति’ गमन करते हैं वे अतिथि हैंं अथवा जिसके आने की तिथि निश्चित न हो वे अतिथि हैं। ऐसे अतिथि-संयमी मुनि के लिए संविभाग-दान देना अतिथिसंविभागव्रत है।
उसके चार भेद हैं-आहार, उपकरण, औषधि और आश्रय।
मोक्षार्थी साधु के लिये निर्दोष आहार देना आहारदान है। ज्ञान और संयम के बढ़ाने के उपकरण (पिच्छी, कमंडलु, शास्त्रादि) को देना उपकरण दान है। योग्य औषधि देना औषधिदान है और आश्रय अर्थात् वसतिका देना आश्रय दान है।
(आजकल के श्रावक प्राय: प्रमादी होकर व्रतों से दूर होते चले जा रहे हैं। उस पर कुछ लोगों ने इन व्रतों को इतना हौवा बताना शुरू कर दिया है कि जिससे इस युग में इन व्रतों का पालन मानो हो ही नहीं सकता है ऐसा कुछ लोग समझने लग गये हैं किन्तु जब पंचमकाल के अंत पर्यंत महाव्रतों और अणुव्रतों के पालन करने वाले मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका होते ही रहेंगे तो पुन: आज इन श्रावकों के ही व्रतों से डरने की क्या आवश्यकता है ? मेरा तो कहना है कि सभी श्रावकों को अणुव्रत और ये सात शीलव्रत अवश्य ही ग्रहण करने चाहिए।
मार्ग में चलने वाला व्यक्ति गिर पड़कर भी उठकर एक न एक दिन मंजिल पर पहुँच जाता है किन्तु जो गिरने पड़ने के डर से कभी मार्ग में ही न चले, जहाँ की तहाँ कूटस्थ नित्य होकर बैठा ही रहे तो वह कथमपि मंजिल तक नहीं पहुँच सकता है। श्री कुंदकुंददेव का भी कहना है कि-
व्रतों को धारण कर स्वर्ग प्राप्त करना अच्छा है किन्तु अव्रती रहकर नरक जाना अच्छा नहीं है। यदि किसी मित्र की प्रतीक्षा में दो व्यक्ति खड़े हुये हैं तो धूप में खड़े होने वाले की अपेक्षा छाया में खड़ा होने वाला सुखी है।
दूसरी बात यह है कि श्री गौतम स्वामी ने व श्री कुंदकुंददेव ने भी इन बारह व्रतों को श्रावक का धर्म कहा है और उसे मोक्षमार्ग कहा है अत: ये व्रत सर्वथा ग्रहण करने योग्य ही हैं ऐसा समझना।)