वस्तु के यथार्थ स्वभाव को तत्त्व कहते हैं।
उसके सात भेद हैं- जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
जीव– जिसमें ज्ञान-दर्शनरूप भावप्राण और इंद्रिय, बल, आयु, श्वासो-च्छ्वास रूप द्रव्यप्राण पाये जाते हैं, वह जीव है।
अजीव– इससे विपरीत लक्षण वाला अजीव तत्त्व है अर्थात् जीव से भिन्न पांचों द्रव्य अजीव हैं।
आस्रव– रागद्वेषादि भावों के कारण आत्मप्रदेशों में कर्मों का आना आस्रव है।
इसके दो भेद हैं- भाव आस्रव और द्रव्य आस्रव। आत्मा के जिन भावों से कर्म आते हैं, उन भावों को भावास्रव और पुद्गलमय कर्म परमाणुओं के आने को द्रव्यास्रव कहते हैं।
बंध– आये हुए कर्मों का आत्मा के साथ एकमेक हो जाना बंध है।
इसके भी दो भेद हैं— भाव बंध और द्रव्य बंध। आत्मा के जिन परिणामों से कर्म बंध होता है, वह भावबंध है और कर्म परमाणुओं का आत्मा के प्रदेशों में दूध-पानी के सदृश एकमेक हो जाना द्रव्य बंध है।
संवर–आते हुए कर्मों का रुक जाना संवर है।
उसके भी दो भेद हैं- भावसंवर और द्रव्यसंवर। जिन समिति, गुप्ति आदि भावों से कर्म रुक जाते हैं, वह भाव संवर है और पुद्गलमय कर्मों का आगमन रुक जाना द्रव्य संवर है।
निर्जरा– आत्मा के साथ बंधे हुए कर्मों का एकदेश क्षय होना निर्जरा है।
इसके भी दो भेद हैं— भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा। आत्मा के जिन तपश्चरण आदि भावों से कर्म झड़ते हैं, वे परिणाम भाव निर्जरा हैं और पौद्गलिक कर्मों का एकदेश निर्जीण होना द्रव्य निर्जरा है।
मोक्ष– सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से छूट जाना मोक्ष है।
उसके भी दो भेद हैं- भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष। आत्मा के जिन भावों से संपूर्ण कर्म अलग होते हैं, वह भाव मोक्ष है और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से छूट जाना द्रव्य मोक्ष है।
नव पदार्थ कौन-कौन से हैं ?
इन्हीं सात तत्त्वों में पुण्य और पाप को मिला देने से नव पदार्थ कहलाते हैं।
जो आत्मा को पवित्र करे या सुखी करे, उसे पुण्य कहते हैं। जिसके उदय से जीव को दु:खदायक सामग्री मिले, वह पाप है।
इन सात तत्त्वों में से आस्रव और बंध तत्त्व संसार के कारण हैं तथा संवर और निर्जरा तत्त्व मोक्ष के लिए कारण हैं ऐसा समझकर आस्रव और बंध के कारणों से बचना चाहिए तथा संवर-निर्जरा के कारणों को प्राप्त करना चाहिए।