सल्लेखना को शिक्षाव्रत में लिया है चौथे शिक्षाव्रत में अंत में सल्लेखना मरण करना कहा है । इस प्रकार ये चार शिक्षाव्रत हैं । यहाँ पर श्री गौतमस्वामी ने शिक्षाव्रत में ही सल्लेखनामरण को लिया है । इसी प्रकार से श्रीकुंदकुंददेव ने भी अपने चारित्रपाहुड़ ग्रंथ में चौथे शिक्षाव्रत में ही सल्लेखना को लिया है । इस सल्लेखना का लक्षण श्री पूज्यपादस्वामी ने इस प्रकार किया है – ‘सम्यक्काय-कषायलेखना सल्लेखना ।’ भली प्रकार से काय और कषायों को कृश करना सल्लेखना है । सल्लेखना कब की जाती है ? और उसकी विधि क्या है ? इस पर श्रीसमंतभद्रस्वामी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में अच्छा प्रकाश डाला है, यथा –
जिसका प्रतिकार न हो सकता, ऐसा उपसर्ग यदी आवे । ऐसा अकाल पड़ जावे या, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे ।। अथवा हो रोग असाध्य कठिन, जिससे नहिं धर्म की रक्षा है । तब करिये सल्लेखना ग्रहण, जो धर्म हेतु तनु त्यजना है ।।१२२।।
जिसको किसी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता ऐसा उपसर्ग यदि आ जावे अथवा ऐसा अकाल पड़ जावे या जर्जरित बुढ़ापा आ जावे या कठिन असाध्य रोग हो जावे ऐसे समय में धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है उसका नाम सल्लेखना है । जीवन भर जो तप, व्रत और चारित्र आदि का पालन किया जाता है, उनको यदि अगले भव में अपने साथ ले जाना है तो मरण के काल में अवश्य ही सल्लेखना करनी चाहिए । जैसे किसी देश में कमाये धन की यदि कोई मनुष्य वहाँ से प्रस्थान करते समय याद न करे और किसी दूसरे को सौंप जावे तो उसका वह धन प्रायः व्यर्थ ही जाता है इसी प्रकार परलोक यात्रा के समय अर्थात् मरण के अंत में यदि सल्लेखना न की जावे और परिणाम भ्रष्ट हो जावें तो दुर्गति हो जाती है । इसलिए मरण के समय में सल्लेखना करना एक शिक्षाव्रत माना गया है ।
सल्लेखना की विधि
स्नेह वैर औ राग मोह, परिग्रह संपूर्ण छोड़ करके । हो शुद्ध चित्त विधिवत् समाधि, से मरने की वांछा करके ।। प्रिय वचनों से तुम क्षमा करो, स्वजनों को औ परजन को भी । सबसे भी क्षमा करा लेवो, जो कुछ अपराध हुए हों भी ।।१२४।।
समाधिमरण का इच्छुक श्रावक स्नेह, वैर, मोह और परिग्रह को छोड़ करके शुद्ध चित्त होते हुए प्रिय वचनों द्वारा अपने परिवार से व अन्य लोगों से भी क्षमायाचना करे तथा स्वयं भी सभी के अपराधों को क्षमा कर देवे ।
सल्लेखना के समय महाव्रत धारण करने का उपदेश
जो किया कराया अनुमोदा, ऐसे समस्त भी पापों की । छल कपट रहित आलोचन विधि, करिये सब ही निज दोषों की ।। पुनरपि जीवनपर्यंत पाँच, पापों का पूरण त्याग करो । औ पंच महाव्रत धारण कर, निर्ग्रन्थ अवस्था प्राप्त करो ।।१२५।।
अपने जीवन में जो पाप किये हैं, कराये हैं और उनकी अनुमोदना की है उन सभी पापों की मायाचार रहित सरल भावों से आलोचना करके जीवन भर के लिए पांचों पापों का पूर्णतया त्याग करके सल्लेखना के समय पाँच महाव्रत धारण कर मुनि बन जाना चाहिए । अभिप्राय यह है कि श्रावक अपना अंत समय समझ कर दिगम्बर मुनियों के संघ में जाकर आचार्य के समक्ष अपने जीवन भर किये हुए पापों की आलोचना करके गुरु के पादमूल में ही मुनिदीक्षा ले लेवे पुनः सल्लेखना करे, यह उत्तम विधि है । यदि कदाचित् संघ निकट में नहीं है और उतने ऊँचे भाव नहीं हैं अथवा मुनि बनने की शक्ति नहीं है तो घर में रहकर ही अथवा मंदिर आदि स्थानों पर जाकर अन्य धर्मात्मा श्रावकों की सहायता से जितना त्याग हो सके उतना कर लेना चाहिए ।
सल्लेखना ग्रहण करके श्रावक को धर्मामृत का पान करना चाहिए
स्नेह शोक भय अप्रीती, मन की कालुषता भी तज के । निज बल उत्साह प्रगट करके, मन को प्रसन्न करिये श्रुति से ।। यह जिन आगम ही अमृत है, जो अतिशय तृप्ती करता है । पुष्टी तुष्टी करके पुनरपि, इस मृत्यू को भी हरता है ।।१२६।।
शोक, भय, स्नेह और अरति ये मन को कलुषित करने वाले हैं इनको छोड़कर तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके अमृत के समान जिनवाणी के श्रवण से अपने मन को प्रसन्न करना चाहिए क्योंकि जिनवचनरूपी अमृत अतिशय तृप्ति, पुष्टि और तुष्टि देकर पुनः मृत्यु को भी नष्ट कर देता है ।
भोजन के त्याग का क्रम
अन्नादिक भोजन छोड़ प्रथम, दुग्धादिक पेय वस्तु पीना । स्निग्ध पेय को छोड़ पुनः, बस छाछ गर्मजल का पीना ।। जब क्रम से त्याग किया जाता, तब आकुलता नहिं होती है । नहिं तन में पीड़ा कष्ट बढ़े, नहिं व्याधि विषमता होती है ।।१२७।। कांजी या छाछ गरमजल भी, तज करके यथाशक्तिपूर्वक । उपवास करे भी जाप करे, बस महामंत्र की रुचिपूर्वक ।। संपूर्ण यत्न कर णमोकार, मंत्रादिक को जपते-जपते । अंतिम क्षण में तन को छोड़े, प्रभु नाम मंत्र रटते-रटते ।।१२८।।
जब श्रावक सल्लेखना ग्रहण कर लेता है तब शरीर को कृश करने के लिए क्रम-क्रम से भोजन आदि का त्याग करता जाता है । उसी क्रम को यहॉँ बतलाया है-सबसे पहले अन्नादि रोटी, पूड़ी, भात, दाल आदि छोड़ देवे और दूध, रस, ठंडाई आदि पीने योग्य वस्तु रख लेवे पुनः दूध आदि चिकने पदार्थ छोड़ देवे और दही की छाछ या गरम जल ग्रहण करता रहे, पुनः धीरे-धीरे इनको भी छोड़ देवे । यह सब त्याग, जैसे शरीर में व्याधि न बढ़े और पीड़ा न होवे तथा मन में आकुलता न होकर शांति बनी रहे इसी तरह से करना चाहिए अतः सल्लेखना के समय मुनिजन या अनुभवी धर्मात्मा श्रावक का होना बहुत जरूरी है । पुनः कांजी, तक्र या गरम जल को छोड़कर यशाशक्ति उपवास करना चाहिए और संपूर्ण प्रयत्न से महामंत्र का जाप करते-करते अंतिम क्षण में शरीर को छोड़ते समय भी णमोकार मंत्र को पढ़ने या सुनने में उपयोग लगाये रहना चाहिए । इस प्रकार सल्लेखना से मरण करने वाला श्रावक नियम से देवगति को प्राप्त करता है पुनः वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्य होकर पुनः श्रावक या मुनि बनकर देवपद को प्राप्त कर लेता है । यह श्रावक अधिक से अधिक सात, आठ भव और कम से कम दो, तीन भव ग्रहण कर नियम से मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, ऐसा श्री गौतमस्वामी का कथन है
सल्लेखना आत्मघात नहीं है
किसी का प्रश्न होता है कि अपने आप प्राणों का विसर्जन करने से आत्मघात हो जाता है ? इस पर आचार्यों का समाधान यह है कि – ‘प्रमाद के योग से प्राणों का घात करना हिंसा है किन्तु यहाँ प्रमाद का योग नहीं है क्योंकि ‘जो क्रोध आदि कषायों से ग्रसित होकर श्वांसनिरोध, जल, अग्नि,विष, शस्त्र आदि से अपने प्राणों का घात करते हैं उनके निश्चित ही आत्मघात होता है।’ जो जीव क्रोध, मान, माया, लोभ के वश अथवा इष्ट वियोग के शोक से व्यथित या आगामी निदान के वश या किसी अपमान आदि से खिन्न होकर अग्नि में जलकर या कुएँ आदि में डूबकर मर जाते हैं उन्हे आत्मघात का दोष लगता है। जैसे-पति के पीछे सती होना, हिमालय में गलना, काशी करवत लेनी आदि किन्तु सन्यासपूर्वक मरण करने वालों को आत्मघात का दोष नहीं लगता । किसी उपसर्ग, संकट या दुर्घटना आदि के प्रसंग पर जब शरीर के बचने में संदेह दिखता हो तब मर्यादा पूर्वक प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि ‘‘यदि मैं इस उपसर्ग या संकट से बचूँगा तो पुनः अन्न जल ग्रहण करूँगा अन्यथा जीवन भर के लिए चतुराहार का त्याग है ।’’ ऐसी प्रतिज्ञा करने पर नियम सल्लेखना कहलाती है और जब शरीर के बचने की सर्वथा आशा न हो तब धर्माराधनपूर्वक विधिवत् उसे छोड़ देना यम सल्लेखना है । जो जीव धर्म की रक्षा के लिए शरीर से निर्मम होकर उसको छोड़ देते हैं वे आत्मघाती नहीं हैं । प्रत्युत जो देश और राष्ट्र के लिए भी अपने प्राणों को छोड़ देते हैं उनका भी मरण वीरमरण कहलाता है । जैसे जो सन्यास विधि से मरण करता है उनके परिवार वालों को सूतक (पातक) नहीं लगता है वैसे देश, राष्ट्र व मातृभूमि के लिए बलिदान हुए व्यक्तियों के परिवारजनों को भी पातक नहीं लगता है ऐसा शास्त्रों में कथन है । इस प्रकार सल्लेखना का महत्त्व अचिन्त्य है ।