संयमी साधु शुद्ध स्वात्मोपलब्धि के प्रधान कारणभूत समाधि की सिद्धि के लिए अहर्निश स्वाध्याय आदि परिकर्म को विधिवत् करें।अर्धरात्रि के अनन्तर दो घड़ी व्यतीत हो जाने पर साधु निद्रा का त्याग करके अपररात्रिकस्वाध्याय-प्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वा……..श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ नव बार णमोकार मंत्र का जाप्य करके ‘अर्हद्वक्त्रप्रसूतं’ इत्यादि लघुश्रुतभक्ति पढ़े। ‘‘अथ अपररात्रिकस्वाध्यायप्रतिष्ठापनक्रियायां…….आचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इस प्रकार प्रतिज्ञा करके कायोत्सर्ग करके ‘‘श्रुतजलधिपारगेभ्य:’’ इत्यादि लघु आचार्यभक्ति पढ़ें अनन्तर भक्तिपूर्वक ग्रंथ को नमस्कार करके स्वाध्याय प्रारंभ करें। सूर्योदय के दो घड़ी अवशेष रहने पर ‘‘अथ अपररात्रिकस्वाध्यायनिष्ठापनक्रियायां श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’प्रतिज्ञा करके, कायोत्सर्ग करके लघु श्रुतभक्ति करें। इस प्रकार अपररात्रिक स्वाध्याय के प्रारंभ और समाप्ति में तीन कायोत्सर्ग हो जाते हैं। अनन्तर ‘रात्रिक प्रतिक्रमण’ करके रात्रि-संबंधी दोषों का विशोधन करें। इस प्रतिक्रमण में सिद्ध, प्रतिक्रमण, वीर और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति ऐसे चार भक्तियाँ प्रमुख होती हैं। प्रतिक्रमण के अनन्तर रात्रियोगनिष्ठापना करें अर्थात् सायंकाल में प्रतिक्रमण के अनन्तर जो रात्रियोग ग्रहण किया था, उसका त्याग करें। उसकी विधि- ‘‘अथ रात्रियोगनिष्ठापनक्रियायां…….योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।’’प्रतिज्ञा करके ९ बार जाप्य करके ‘‘प्रावृट्काले’’ इत्यादि लघुयोगिभक्ति का पाठ करें। इसका अर्थ यह है कि जो मैंने रात्रि में इसी वसति में निवास का नियम किया था, उसको समाप्त करता हूँ पुन: लघु आचार्यभक्ति द्वारा आचार्य वन्दना करें। अनन्तर सूर्योदय से लेकर दो घड़ी तक विधिवत् देव वन्दना करें। इसमें ईर्यापथ शुद्धि करके सामायिक स्वीकार करके वृहत् चैत्यभक्ति और पंचमहागुरुभक्ति करने का विधान है, अन्त में समाधि भक्ति की जाती है, इसके बाद अवशिष्ट समय में यथायोग्य आत्मध्यान करें। इस प्रकार यह सामायिक विधि होती है पुन: लघु सिद्धभक्ति और लघु आचार्यभक्तिपूर्वक पौर्वाह्निक आचार्य वंदना करें। अनन्तर सूर्योदय से दो घड़ी बीत जाने पर ‘पौर्वाह्निक’स्वाध्याय की प्रतिष्ठापना करके विधिवत् स्वाध्याय करके मध्यान्ह काल के दो घड़ी पूर्व स्वाध्याय विसर्जन कर देवे। मध्याह्न के दो घड़ी पूर्व से ‘‘माध्यान्हिक देववन्दना’’पूर्वोक्त विधि से करें। लघुश्रुत और आचार्यभक्तिपूर्वक आचार्य की वंदना करें। अनन्तर यदि उपवास है तो ध्यान, आराधना, जाप्य आदि में दो घड़ी व्यतीत करें अन्यथा यदि आहार के लिए जाना है तो गुरुवन्दना करके गोचरी वृत्ति से आहार को जावे।१ वहाँ पड़गाहन आदि होने के बाद नवधाभक्ति के अनन्तर ‘‘अथ प्रत्याख्याननिष्ठापनक्रियायां सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ ऐसी प्रतिज्ञा करके ९ बार जाप्य करके लघु सिद्धभक्ति बोलकर पहले दिन आहार के अनन्तर ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान की समाप्ति करके आहार प्रारंभ करे। आहार के बाद ‘‘अथ प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां सिद्धभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहं’ऐसी प्रतिज्ञा करके ९ बार जाप्य करके लघु सिद्धभक्ति बोलकर तत्काल ही प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवे अर्थात् अगले दिन आहार ग्रहण करने तक आहार का त्याग कर देवे पुन: गुरु के पास आकर लघु सिद्धभक्ति एवं योगिभक्ति बोलकर गुरु से प्रत्याख्यान ग्रहण करके लघु आचार्यभक्ति द्वारा आचार्य की वन्दना करें और गोचरी संबंधी दोषों का प्रतिक्रमण करें। पुन: विधिवत् ‘अपराह्निक’ स्वाध्याय प्रतिष्ठापन करके सूर्यास्त से दो घड़ी पूर्व विसर्जित कर देवें। अनन्तर ‘दैवसिक प्रतिक्रमण’ द्वारा दिवस संबंधी दोषों का निराकरण करके रात्रियोग ग्रहण कर लेवें। अर्थात् ‘अथ रात्रियोगप्रतिष्ठापनक्रियायां योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ प्रतिज्ञा करके लघु योगिभक्ति बोलकर ‘मैं आज रात्रि में इसी वसति में रहूँगा’’ ऐसा नियम ग्रहण कर लेवें पुन: लघुसिद्धश्रुत आचार्यभक्ति द्वारा अपराह्निक आचार्य वन्दना करके विधिवत् ‘अपराह्विक देववन्दना’ करें। पुन: सूर्यास्त से दो घड़ी बीत जाने पर पूर्वरात्रिक स्वाध्याय को विधिवत् प्रारंभ करके अर्धरात्रि के दो घड़ी पूर्व तक स्वाध्याय करके निष्ठापन कर देवे। अनन्तर श्रम का परिहार करने के लिए चार२ घड़ी पर्यन्त शयन करें। साधुओं की यह अहर्निश चर्या संक्षेप से कही गई है। विस्तार से अनगार धर्मामृत, मूलाचार, आचारसार आदि से समझना चाहिए। इस प्रकार इस दैनिकचर्या में चार बार स्वाध्याय के १२, तीन बार देववन्दना के ६, दो बार प्रतिक्रमण के ८ और दो बार योगभक्ति के २, ऐसे २८ कायोत्सर्ग हो जाते हैं।
नैमित्तिक क्रिया
चतुर्दशी के दिन देववन्दना में सिद्ध, चैत्य, श्रुत, पंचगुरु और शांति इस तरह पाँच भक्तियाँ करनी चाहिए अथवा चैत्य, पंचगुरु के मध्य में श्रुतभक्ति करके तीन भक्तियाँ ही करना चाहिए। अष्टमी के दिन सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, आलोचना सहित चारित्रभक्ति अर्थात् चारित्रभक्ति करके ‘इच्छामि भंते अट्ठमियम्हि’ इत्यादि आलोचना बोलकर शान्तिभक्ति करके समाधि भक्ति करें। आष्टान्हिक पर्व में पौर्वाह्निक स्वाध्याय के अनन्तर सभी साधु मिलकर सिद्ध, नन्दीश्वर, पंचगुरु और शान्ति भक्ति का पाठ करें। ऐसे ही श्रुतपंचमी आदि की क्रियाओं को ग्रंथों से देखना चाहिए। वर्षायोग-आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के दिन ‘मंगलगोचर मध्यान्ह वन्दना’ करके आहार के अनन्तर बृहत् सिद्धभक्ति, योगभक्तिपूर्वक उपवास ग्रहण करके बृहत् आचार्यभक्ति, बृहतशान्तिभक्ति करें। अनन्तर आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को पूर्वरात्रि में वर्षायोगप्रतिष्ठापना में क्रिया-कलाप के आधार से सिद्धभक्ति, योगभक्ति, चैत्यभक्ति आदि क्रियाएँ करके वर्षायोग ग्रहण कर लेवें। अनन्तर उपवासपूर्वक कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि में आगमोक्त भक्तिपाठपूर्वक ‘‘वर्षायोगनिष्ठापना’’ करके रात्रिकप्रतिक्रमण करें पुन: वीरनिर्वाण क्रिया करें। इसमें सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शान्तिभक्ति की जाती है। बाद में देववन्दना करें। तीर्थंकरों के कल्याणक स्थानों की वंदना में, मुनियों, आचार्यों की निषद्या वन्दना में भी शास्त्रोक्त भक्तियों का पाठ करके कृतिकर्मपूर्वक वंदना की जाती है। इस प्रकार यहाँ संक्षेप में मुनियों की नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं को बताया है। इस प्रकार साधु अपनी नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं को करते हुए शक्ति के अनुसार कर्मदहन, चारित्र शुद्धि, सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रतों का अनुष्ठान भी करते हैं। इन व्रतों के द्वारा अपने कर्मों की निर्जरा करते हुए तथा सातिशय पुण्य बंध करते हुए अपने संसार को बहुत ही लघु कर लेते हैं अर्थात् दो-चार भवों में जल्दी ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। ये मुनि दश धर्मों का पालन करते हैं। षोडशकारण भावनाओं के चिन्तवन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके तीन लोकों के भव्य जीवों का अनुग्रह करने में समर्थ हो जाते हैं।
मुनियों के दश धर्म
समिति में तत्पर मुनि प्रमाद का परिहार करने के लिए दश धर्म का पालन करते हैं। उनके नाम- उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आविंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दश धर्म हैं।
उत्तमक्षमा-शरीर की स्थिति के कारण आहार के लिए जाते हुए मुनि को दुष्टजन गाली देवें, उपहास करें, तिरस्कार करें, मारें-पीटें आदि तो भी मुनि के मन में कलुषता का न आना उत्तम क्षमा है।
उत्तम मार्दव-जाति आदि मदों के आवेशवश अभिमान न करना।
उत्तम आर्जव-मन, वचन, काय की कुटिलता को न करना।
उत्तम शौच-प्रकर्ष प्राप्त लोभ का त्याग करना।
उत्तम सत्य-साधु पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना।
उत्तम संयम-प्राणी की हिंसा और इन्द्रियों के विषयों का परिहार करना।
उत्तम तप-कर्मक्षय के लिए बारह प्रकार का तप करना।
उत्तम त्याग-संयम के योग्य ज्ञानादि का दान करना।
उत्तम आविंचन्य-जो शरीर आदि है उनमें भी ‘यह मेरा है’ ऐसे अभिप्राय का त्याग करना।
उत्तम ब्रह्मचर्य-स्त्रीमात्र का त्याग कर देना अथवा स्वतंत्र वृत्ति का त्याग करने के लिए गुरुकुल में निवास करना१ ये दश धर्म संवर के कारण माने गये हैं।
सोलहकारण भावनाएँ
१. दर्शनविशुद्धि-पच्चीस मलदोषरहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना।
२. विनयसम्पन्नता-देव, शास्त्र, गुरु तथा रत्नत्रय का विनय करना।
३. शीलव्रतों में अनतिचार-व्रतों और शीलों में अतिचार नहीं लगाना।
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-सदा ज्ञान के अभ्यास में लगे रहना।
५. संवेग-धर्म और धर्म के फल में अनुराग होना।
६. शक्तितस्त्याग-अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि, अभय और शास्त्र दान देना।
७. शक्तितस्तप-अपनी शक्ति को न छिपाकर अन्तरंग-बहिरंग तप करना।
८. साधुसमाधि-साधुओं का उपसर्ग आदि दूर करना या समाधि सहित वीरमरण करना।
९. वैयावृत्यकरण-व्रती, त्यागी साधर्मी की सेवा करना, वैयावृत्ति करना।
१०. अर्हन्तभक्ति-अरहंत भगवान की भक्ति करना।
११. आचार्यभक्ति-आचार्य की भक्ति करना।
१२. बहुश्रुतभक्ति-उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना।
१३. प्रवचन भक्ति-जिनवाणी की भक्ति करना।
१४. आवश्यक अपरिहाणि-छह आवश्यक क्रियाओं का सावधानी से पालन करना।
१५. मार्गप्रभावना-जैनधर्म का प्रभाव पैलाना।
१६. प्रवचनवत्सलत्व-साधर्मी जनों में अगाध प्रेम करना। इस सोलह भावनाओं में दर्शनविशुद्धि का होना बहुत जरूरी है, फिर उसके साथ दो-तीन आदि कितनी भी भावनाएँ हों या सभी हों, तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है।