गीता छंद
जो नग्न मुद्रा धारते, दिग्वस्त्रधारी मान्य हैं।
निज मूलगुण उत्तरगुणों से, युक्त पूज्य प्रधान हैं।।
सुर-असुर मुकुटों को झुकाकर, अर्चते हैं भाव से।
मैं भी यहाँ आह्वान कर, पूजू उन्हें अति चाव से।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक
सोरठा सिंधुनदी को नीर, बाहर का मल नाशता।
मिले भवोदधि तीर, जल से गुरुपद पूजिये।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने जलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट गंध वर गंध, तन की ताप हरे सदा।
मनस्ताप क्षयहेतु, चंदन से गुरुपद जजों।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ताफल सम धौत, अक्षत पुंज रचाइये।
आतम संपति हेतु, सर्वसाधु पद पूजिये।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हरसिंगार सरोज, सुरभित ले अर्पण करूँ।
भवशर नाशन हेतु, गुरुपदपंकज पूजिये।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू मोतीचूर, नानाविध पकवान से।
भूख व्याधिहर हेतु, चरु से गुरुपद पूजिए।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतभर दीपक ज्योति, बाह्य तिमिर नाशे सही।
अन्तर ज्योती हेतु, दीपक से पूजा करूँ।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगरु तगर वरधूप, अग्नि पात्र में खेइये।
अशुभ कर्मक्षय हेतु, साधु पदाम्बुज पूजिये।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता द्राक्ष बदाम, एला केला फल भले।
सरस मोक्षफल हेतु, फल से गुरुपद पूजिये।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन शाल्यादि, अष्ट द्रव्य ले थाल में।
फल सर्वोत्तम हेतु, अघ्र्य चढ़ा गुरु पद जजों।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनिवर पदपंकेज, जग में शांतीकर सदा।
चउसंघ शांतीहेतु, शांतीधारा मैं करूँ।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
नानाविध के पुष्प, सुरभित करते दश दिशा।
सर्वसाधु पादाब्ज, पुष्पांजलि अर्पण करूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
नाराच छंद
नमूँ नमूँ मुनीश! आप पाद पद्म भक्ति से।
भवीक वृंद आप ध्याय कर्म पंक धोवते।।
अनाथ नाथ! भक्त की सदा सहाय कीजिए।
प्रभो! मुझे भवाब्धि से अबे निकाल लीजिए।।१।।
अठाइसों हि मूलगुण धरें दयानिधान हैं।
अठारहों सहस्र शील धारतें महान हैं।।
चुरासि लाख उत्तरी गुणों कि आप खान हैं।
समस्त योग साधते अनेक रिद्धिमान हैं।।२।।
समस्त अंगपूर्व ज्ञान सिंधु में नहावते।
निजात्म सौख्य अमृतैक पूर स्वाद पावते।।
अनेक विध तपश्चरण करो न खेद है तुम्हें।
अनन्त ज्ञानदर्श वीर्य प्राप्ति कामना तुम्हें।।३।।
सुतीन रत्न से महान आप रत्न खान हैं।
अनेक रिद्धि सिद्धि से सनाथ पुण्यवान हैं।।
परीषहादि आप से टरें न पास आवते।
तुम्हीं समर्थ काम मोह मृत्युमल्ल मारते।।४।।
विहार हो जहाँ-जहाँ सु आप तिष्ठते जहाँ।
सुभिक्ष क्षेम हो सदैव ईति भीति ना वहाँ।।
सुधन्य धन्य पुण्य भूमि आपसे हि तीर्थ हो।
सुरेन्द्र चक्रवर्ति वंद्य भूमि भी पवित्र हो।।५।।
जयो-जयो मुनीश! आप भक्ति मोह को हरे।
जयो मुनीश! आप भक्त आत्मशक्ति को धरें।।
अपूर्व मोक्षमार्ग युक्ति पाय मुक्ति को वरें।
पुनर्भवों से छूटके सु पंचमी गती धरें।।६।।
दोहा
नग्न दिगम्बर साधुगण, सर्वजगत् में मान्य।
नमूँ नमूँ तुमको सदा, मिले ‘ज्ञानमति’ साम्य।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसर्वसाधुपरमेष्ठिने जयमाला पूर्णार्घंनिर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
सोरठा
द्विविध मोक्षपथ मूल, अट्ठाइस हैं मूलगुण।
जजत मिले भवकूल, इन गुणधारी साधु को।।१।।
।। इत्याशीर्वाद:।।