साधुओं की सामायिक और देववंदना एक है। विधिवत् देववंदना करना इसी का नाम सामायिक है। ‘सत्त्वेषु मैत्रीं’ आदि पाठ पढ़कर जाप्य आदि करके सामायिक करना और देवदर्शन के समय देववंदना क्रिया करना ऐसा नहीं है प्रत्युुत त्रिकाल सामायिक के समय ही तीन बार देववंदना का विधान है। उसी को यहाँ सप्रमाण दिखाया जाता है।
मूलाचार में श्रीकुन्दकुन्ददेव ने अट्ठाईस मूलगुणों का वर्णन करते हुए समता नाम के आवश्यक का लक्षण किया है-
‘‘जीविदमरणे लाभा-लाभे संजोयविप्पओगे य।
बंधुरिसुहदुक्खादिसु, समदा सामाइयं णाम।।२३।।’’
इसकी टीका में श्री वसुनंदि आचार्य ने कहा है-
‘‘सामाइयं णाम-सामायिकं नाम भवति। जीवितमरणलाभालाभ-संयोगविप्रयोगबन्ध्वरिसुखदुःखादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणामः त्रिकाल-देववंदनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवति१।’’
अभिप्राय यह है कि जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, बंधु-शत्रु और सुख-दुःख आदि में जो समान परिणाम का होना है ‘‘और त्रिकाल में देववंदना करना है वह सामायिक व्रत है।’’
अन्यत्र सामायिक के नियतकालिक-अनियतकालिक ऐसे दो भेद करके नियतकालिक में त्रिकालदेववंदना और अनियतकालिक में समताभाव को रखना ऐसा कहा है।
आचारसार ग्रंथ में सामायिक आवश्यक का वर्णन करते हुए सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीवीरनंदि आचार्यदेव तीर्थक्षेत्र या जिनमंदिर में जाकर विधिवत् ईर्यापथशुद्धि और चैत्य-पंचगुरुभक्ति करने का आदेश दे रहे हैं। इसके प्रमाण आगे दिये जा रहे हैं।
त्रिसंध्यं वंदने युंज्यात्, चैत्यपंचगुरुस्तुती।
प्रियभक्तिं बृहद्भक्तिष्वंते दोषविशुद्धये।।१३।।
तीनों सन्ध्या संबंधी जिनवन्दना में चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्ति पढ़ें तथा वृहद्भक्तियों के अन्त में पाठ की हीनाधिकतारूप दोषों की विशुद्धि के लिए प्रियभक्ति (समाधिभक्ति) करना चाहिए२।