सामायिक अथवा देववन्दना के समय संयतों और देश-संयतों को कृति-कर्म करना चाहिये । पाप कर्मों को छेदने वाले अनुष्ठान को कृति-कर्म कहते हैं अर्थात् जिन क्रियाओं से पाप कर्मों का नाश हो वह कृति-कर्म है। इस कृतिकर्म के सात भेद हैं। यथा-
योग्यकालासनस्थानमुद्रावर्तशिरोनति: ।
विनयेन यथाजात: कृतिकर्मामलं भजेत्।।
अर्थात्-योग्यकाल, योग्यआसन, योग्यस्थान, योग्यमुद्रा, योग्यआवर्त, योग्यशिर, योग्यनति ये सात कृति-कर्म हैं। इसको नग्न-मुद्राधारी संयत, बत्तीस दोष रहित , विनयपूर्वक करे ।।१।।
तिस्रोऽह्नोऽन्त्या निशश्चाद्या नाड्यो व्यत्यासिताश्च ता:।
मध्याह्नस्य च षट् कालास्त्रयोऽमी नित्यवन्दने।।
अर्थात्-नित्यवन्दना के तीन काल हैं। पूर्वाह्नकाल, मध्याह्नकाल और अपराह्नकाल। ये तीनों काल छह-छह घड़ी के हैं। रात्रि की पीछे की तीन घड़ी और दिन की पहिली तीन घड़ी एवं छह घड़ी पूर्वाह्नवन्दना में उत्कृष्ट काल है । दिन की अन्त की तीन घड़ी और रात्रि की पहली तीन घड़ी एवं छह घड़ी अपराह्नवन्दना में उत्कृष्ट काल है तथा मध्य दिन की आदि अन्त की तीन-तीन घड़ी एवं छह घड़ी मध्याह्नवन्दना में उत्कृष्ट काल है। इस तरह सन्ध्यावन्दना में छह-छह घड़ी उत्कृष्ट काल है।।
वन्दनासिद्धये यत्र येन चास्ते तदुद्यत:।
तद्योग्यासनं देश: पीठं पद्मासनाद्यपि।।
अर्थात्-वन्दना की निष्पत्ति के लिये वन्दना करने को उद्युक्त साधु , जिस देश में, जिस पीठ पर और जिन पद्मासनादि आसनों से बैठता है उसे योग्य आसन कहते हैं।।
विविक्त: प्रासुकस्त्यक्त: संक्लेशक्लेशकारणै:।
पुण्यो रम्य: सतां सेव्य: श्रेयो देश: समाधिचित्।।
अर्थात्-विविक्त-जिसमें अशिष्ट जन का संचार न हो , जो प्रासुक-सम्मूर्छन जीवों से रहित हो, संक्लेशकरण-रागद्वेष आदि से और क्लेशकारण-परीषहरूप उपसर्ग से रहित हो, पुण्य-वन, भवन,चैत्यालय,पर्वत की गुफा सिद्धक्षेत्रादि रूप हो, रम्य-चित्त को प्रफुल्लित करने वाला हो , मुमुक्षु पुरुषों के सेवन करने योग्य हो और प्रशस्त ध्यान को बढ़ाने वाला हो ऐसे देश की वन्दना करने वाला साधु वन्दना की सिद्धि के लिये आश्रय ले।।
विजन्त्वशब्दमच्छिद्रं सुखस्पर्शमकीलकम् ।
स्थेयस्तार्णाद्यधिष्ठेयं पीठं विनयवर्धनम्।।
अर्थात्-जो खटमल आदि प्राणियों से रहित हो, चर चर शब्द न करता हो, जिसमें छेद न हो, जिसका स्पर्श सुखोत्पादक हो, जिसमें कील कांटा वगैरह न हो, जो हिलता-डुलता न हो, निश्चल हो ऐसे तृणमय दर्भासन चटाई वगैरह, काष्ठमय-चौकी, तखत आदि, शिलामय-पत्थर की शिला जमीन आदि रूप पीठ की वन्दना करने वाला साधु वन्दना सिद्धि के लिये आश्रय ले अर्थात् तृणरूप, काष्ठरूप और शिलारूप पीठ पर बैठ कर नित्यवन्दना करे।।
पद्मासनं श्रितौ पादौ जंघाभ्यामुत्तराधरे।
ते पर्यंकासनं न्यस्तावूर्वोर्वीरासनं क्रमौ।।
अर्थात्-दोनों जंघाओं (गोड़ों) से दोनों पैरों के संश्लेष को पद्मासन कहते हैं अर्थात् दाहिनी जंघा के नीचे बायें पैर को करना और बाईं जंघा के नीचे दाहिने पैर को करना अथवा बाएँ पैर के ऊपर दाहिनी जंघा को करना और दाहिने पैर के ऊपर बाईं जंघा का करना सो पद्मासन है। जंघाओं को ऊपर नीचे रखने को पर्यंकासन कहते हैं अर्थात् बायें गोड़ के ऊपर दाहिने गोड़ को रखना सो पर्यंकासन है। दोनों उरु (जांघों) के ऊपर दोनों पैरों के रखने को वीरासन कहते हैं अर्थात् बायां पैर दाहिनी जांघ के ऊपर रखना और दाहिना पैर बायीं जांघ के ऊपर रखना सो वीरासन है।।
स्थीयते येन तत्स्थानं वन्दनायां द्विधा मतम् ।
उद्भीभावो निषद्या च तत्प्रयोज्यं यथाबलम्।।
अर्थात्-वन्दना करने वाला जिसमें खड़ा रहे या बैठे वह स्थान वन्दना में दो प्रकार का माना गया है। एक उद्भीभाव (खड़ा रहना) दूसरा निषद्या (बैठना) । इन दोनों स्थानों में से अपनी शक्ति के अनुसार किसी एक का प्रयोग करना चाहिये।।
मुद्रा के चार भेद हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा और मुक्ताशुक्तिमुद्रा । इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं।
जिनमुद्रान्तरं कृत्वा पादयोश्चतुरङ्गुलम् ।
ऊर्ध्वजानोरवस्थानं प्रलम्बितभुजद्वयम्।।
अर्थात्-दोनों पैरों का चार अंगुलप्रमाण अन्तर (फासला) रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटका कर कायोत्सर्गरूप से खड़ा होना सो जिनमुद्रा है।।८।।
जिना: पद्मासनादीनामज्र्मध्ये निवेशनम् ।
उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे।।९।।
अर्थात्-पद्मासन, पर्यज्रसन और वीरासन इन तीनों आसनों की गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं।।
मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूर्परम् ।
स्थितस्य वन्दनामुद्रा करद्वन्द्वं निवेदिता।।
अर्थात्-दोनों हाथों को मुकुलित कर और उनकी कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए पुरुष के वन्दना मुद्रा होती है।
भावार्थ-दोनों कुहनियों को पेट पर रखकर दोनों हाथों को मुकुलित करना सो वन्दना मुद्रा है।।
मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूर्परम्।
ऊर्ध्वजानो: करद्वन्द्वं संलग्नङ्गुलि सूरिभि:।।
अर्थात्-दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए को आचार्य मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं।
भावार्थ-दोनों कुहनियों को पेट पर रखना और दोनों हाथों को जोड़ कर अंगुलियों को मिला लेना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है।
स्वमुद्रा वन्दने मुक्ताशुक्ति: सामायिकस्तवे ।
योगमुद्रास्यया स्थित्या जिनमुद्रा तनूज्झने।।
अर्थात्–‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि चैत्यवन्दना करते समय वन्दनामुद्रा का प्रयोग करना चाहिये । ‘‘णमो अरहंताणं इत्यादि सामायिकदण्डक के समय और ‘‘थोस्सामि’’ इत्यादि चतुर्विंशतिस्तवदंडक के समय मुक्ताशुक्ति मुद्रा का प्रयोग करना चाहिये। बैठकर कायोत्सर्ग करते समय योगमुद्रा का प्रयोग करना चाहिये तथा खड़े रह कर कायोत्सर्ग करते समय जिनमुद्रा का प्रयोग करना चाहिये।
कथिता द्वादशावर्ता वपुर्वचनचेतसाम्।
स्तवसामायिकाद्यन्तपरावर्तनलक्षणा:।।
अर्थात्-मन, वचन और काय के पलटने को आवर्त कहते हैं। ये आवर्त बारह होते हैं जो सामायिकदण्डक के प्रारम्भ और समाप्ति में तथा चतुर्विंशतिस्तवदण्डक के प्रारम्भ और समाप्ति के समय किये जाते हैं। जैसे-‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दण्डक के पहले क्रिया विज्ञापनरूप मनोविकल्प होता है उस मनोविकल्प को छोड़कर सामायिकदंडक के उच्चारण के प्रति मन को लगाना सो मन:परावर्तन है। उसी सामायिकदंडक के पहले भूमिस्पर्शनरूप नमस्कार किया जाता है उस वक्त वन्दनामुद्रा की जाती है उस वन्दनामुद्रा को त्यागकर पुन: खड़ा होकर मुक्ताशुक्तिमुद्रा- रूप दोनों हाथों को करके तीन बार घुमाना सो कायपरावर्तन है। ‘‘चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं’’ इत्यादि उच्चारण को छोड़कर ‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि पाठ का उच्चारण करना सो वाक्परावर्तन है। इस तरह सामायिक दण्डक के पहले मन, वचन और काय परावर्तनरूप तीन आवर्त होते हैं। इसी तरह सामायिकदण्डक के अन्त में और स्तवदण्डक के आदि तथा अन्त में तीन-तीन आवर्त यथायोग्य होते हैं। एवं सब मिलकर एक कायोत्सर्ग में बारह आवर्त होते हैं।
त्रि: सम्पुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत्पुन:।
साम्यं पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेऽप्येतदाचरेत् ।।
अर्थात्-मुकुलित दोनों हाथों को तीन बार घुमाकर सामायिकदंडक पढ़े । पढ़ कर फिर तीन बार घुमावे। चतुर्विंशतिस्तवदण्डक में भी इसी तरह करे । अर्थात् -मुकुलित दोनों हाथों को तीन बार घुमा कर चतुर्विंशतिस्तव दण्डक पढ़े । पढ़कर फिर मुकुलित दोनों हाथों को तीन बार घुमावे।
प्रत्यावर्तत्रयं भक्त्या नन्नमत् क्रियते शिर:।
यत्पाणिकुड्मलाकड़े तत् क्रियायां स्याच्चतु: शिर:।।
अर्थात्-तीन-तीन आवर्त के प्रति जो भक्तिपूर्वक शिर झुकाना है वह शिरोनति है। मुकुलित हाथ इसका चिन्ह है और ये चार बार शिरोनति चैत्यभक्त्यादि कायोत्सर्ग के समय की जाती हैं।
भावार्थ-सामायिकदण्डक के आदि में तीन आवर्त कर शिर झुकाकर नमस्कार करना। अन्त में तीन आवर्त कर शिर झुकाना। इसी तरह स्तवदण्डक के आदि में तीन आवर्त कर शिर झुकाना और अन्त में भी तीन आवर्त कर शिर झुकाना यह एक कायोत्सर्ग के प्रति चार शिरोनमन-शिरोनति होते हैं।।
चैत्यभक्ति आदि में दूसरी तरह से भी आवर्त होते हैं सो दिखाते हैं-
प्रतिभ्रामरि वार्चादिस्तुतौ दिश्येकशश्चरेत् ।
त्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तदाधिक्यं न दुष्यति।।
अर्थात्-चैत्यभक्त्यादि के करते समय हर एक प्रदक्षिणा में एक एक दिशा में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनमन करे ।
भावार्थ-एक प्रदक्षिणा देने में चारों दिशाओं में बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैं इसी तरह दूसरी तीसरी प्रदक्षिणा में तीन-तीन आवर्त और चार-चार शिरोनमन होते हैं अत: ये आवर्त और शिरोनमन पूर्वोक्त प्रमाण से अधिक हो जाते हैं सो दोष नहीं हैं।।
द्वे साम्यस्य स्तुतेश्चादौ शरीरनमनान्नती ।
वन्दनाद्यन्तयो: वैâश्चिन्निविश्य नमनान्मते ।।
अर्थात्-सामायिकदण्डक और स्तुतिदण्डक के पहले भूमिस्पर्शरूप पंचांगप्रणाम करने से दो नति की जाती हैं। कोई-कोई आचार्य वन्दना के पहले और पीछे बैठकर प्रणाम करने से दो नती मानते हैें।
भावार्थ-सामायिकदण्डक के पहले और चतुर्विंशतिस्तवदण्डक के पहले दो बार पंचांगप्रणाम किया जाता है इसलिये दो शिरोनती होती हैंं। स्वामी समन्तभद्रादिक का मत है कि वन्दना के प्रारम्भ में एक और समाप्ति में एक ऐसे दो प्रणाम बैठकर करना चाहिये इसलिये उनके मत से ये दो शिरोनती होती हैं।।
त्रिसन्ध्यं वन्दने युञ्ज्याश्चैत्यपंचगुरुस्तुती।
प्रियभक्तिं बृहद्भक्तिष्वन्ते दोषविशुद्धये ।।
तथा-
जिणदेववन्दणाए चेदियभत्ती य पञ्चगुरुभत्ती ।।
ऊनाधिक्यविशुद्ध्यर्थं सर्वत्र प्रियभक्तिका ।।
तीनों सन्ध्या सम्बन्धी जिनवन्दना में चैत्यभक्ति और पञ्चगुरुभक्ति तथा सभी बृहद्भक्तियों के अन्त में वन्दनापाठ की हीनाधिकतारूप दोषों की विशुद्धि के लिये प्रियभक्ति-समाधिभक्ति करना चाहिये ।
इस देववन्दना में छह प्रकार का कृतिकर्म भी होता है। यथा-
स्वाधीनता परीतिस्त्रयी निषद्या त्रिवारमावर्ता:।
द्वादश चत्वारि शिरांस्येवं कृतिकर्म षोढेष्टम्।।२।।
तथा-
आदाहीणं, पदाहिणं, तिक्खुत्तं, तिऊणदं, चदुस्सिरं, वारसावत्तं, चेदि ।
(१) वन्दना करने वाले की स्वाधीनता,
(२) तीन प्रदक्षिणा,
(३) तीन भक्ति सम्बन्धी तीन कायोत्सर्ग
(४) तीन निषद्या-
(१) ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनन्तर ब्ौठ कर आलोचना करना और चैत्यभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना,
(२) चैत्यभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना और पञ्चमहागुरुभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना
(३) पञ्चमहागुरुभक्ति के अन्त में बैठ कर आलोचना करना,
(५) चार शिरोनति,
(६) और बारह आवर्त ।