गौतम गणधर वाणी-
णमोक्कारपदे अरहंतपदे सिद्धपदे आइरियपदे उवज्झायपदे साहुपदे मंगलपदे लोगोत्तमपदे१ सरणपदे सामाइयपदे चउवीसतित्थयरपदे वंदणपदे पडिक्कमणपदे पच्चक्खाणपदे काउसग्गपदे असीहियपदे णिसीहियपदे।
पद्यानुवाद
जो नमस्कारपद अर्हत्पद अरु सिद्धपदाचार्यपद में।
उपाध्यायपद साधूपद मंगलपद लोकोत्तम पद में।।२।।
शरणंपद सामायिकपद चौबिस तीर्थंकर पद वंदनपद में।
प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान रु कायोत्सर्ग असहि निसहि पद में।।३।।
दोहा
इनमें जो दोष हुये मेरे, वे दुष्कृत सब मिथ्या होवें।
इन गौतम गणधर सूत्रों को, मेरा शत-शत वंदन होवे।।२।।
जैन मुनियों की एवं आर्यिकाओं की षट् आवश्यक क्रियाओं में सर्वप्रथम सामायिक क्रिया है। इसे देववंदना भी कहते हैं। यह तीनों कालों में प्रात:, मध्याह्न और सायं ऐसे ‘त्रिकाल देववंदना’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।वीर. नि. सं. २४८४ से २४८७ तक ईस्वी सन् १९५८ से १९६१के अन्तर्गत संघ के विहार में राजस्थान के व्यावर, अजमेर, फतेहपुर, सीकर आदि के शास्त्र भंडारों में ‘‘क्रियाकलाप’’ नाम की हस्तलिखित छोटी-छोटी गुटिकाएँ देखने को मिली थीं, उन सभी में बिल्कुल यही विधि मूलपाठ में पाई गई है। तथा अजमेर के छोटे धड़े की नशिया (मंदिर) में एक प्रति मिली थी, जिसमें श्रीप्रभाचंद्राचार्य कृत संस्कृत टीका भी थी।मैंने अजमेर से इस प्रति को मँगाकर ईस्वी सन् १९६६ में सोलापुर चातुर्मास में पं. जिनदास जैन शास्त्री (फड़कुले) से हिन्दी अनुवाद कराकर प्रकाशित कराया था। (वीर नि. सं. २४९५, सन् १९६९) में इसका प्रकाशन हुआ था।
इससे पूर्व पं. पन्नालाल जैन, सोनी (व्यावर) ने (विक्रम सं. १९९२ सन् १९३५) में क्रियाकलाप ग्रंथ छपाया है। उपलब्ध हस्तलिखित प्रति क्रियाकलाप गुटिकाओं की ‘‘देववंदना विधि’’ से शांत्यष्टक, चंद्रप्रभस्तुति, वत्ताणुत्ताणे प्राकृत और शांतिभक्ति’’, यह पाठ जो कि ‘‘चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति’’ इन दो भक्ति के अन्तर्गत ही विशेष पाठ है, उसे अधिक समझकर निकाल दिया है।
मेरे से व्यावर में सन् १९५८ में चातुर्मास में पं. पन्नालाल जी से चर्चा हुई कि आपने ऐसा क्यों किया ? तब उन्होंने कहा कि मुझे सभी भक्तियों की श्री प्रभाचंद्राचार्य कृत संस्कृत टीका मिली है। यदि इस ‘‘सामायिक विधि’’ की टीका मिल जाये तो यह विधि प्रामाणिक हो जावे। सन् १९५९ में अजमेर चातुर्मास में मुझे वह टीका मिल गई। तब मैंने उन्हें दिखायी, वे बहुत ही प्रसन्न हुये, पुन: उन्होंने उस ‘‘क्रियाकलाप’’ से सामायिक विधि के जो पाठ निकाल दिये थे, उस विषय पर खेद व्यक्त किया और बोले कि हम अगले संस्करण में ज्यों की त्यों दे देंगे। उनके सामने अगले संस्करण का योग ही नहीं आया।जो भी हो, यह हजारों वर्ष प्राचीन श्री प्रभाचंद्राचार्य कृत टीका मुझे प्राप्त हुई थी, मैंने उसे प्रकाशित कराया है।मेरे कहने का एवं लिखने का तात्पर्य यही है कि यह हजारों वर्षों से चली आई ‘‘प्राचीन-प्रामाणिक’’ शास्त्रीय, सामायिक विधि (देववंदना विधि) है। हम और आप सभी दिगम्बर जैन ‘‘मुनि-आर्यिका-श्रावक-श्राविका’’ चतुर्विध संघ इसी विधि से ‘‘त्रिकाल सामायिक में देववंदना विधि’’ करें। यही मेरी भावना एवं प्रेरणा है।त्रिकाल सामायिक का उत्कृष्ट काल ६ घड़ी, मध्यम ४ घड़ी एवं जघन्य २ घड़ी है। एक घड़ी २४ मिनट की होती है। अर्थात् कम से कम ४८ मिनट की सामायिक करना है। इन भक्ति पाठ के बाद शेष समय में िंपडस्थ, पदस्थ आदि ध्यान या महामंत्र का जाप्य करें।
पौष कृ. ८, २५५१
-गणिनी ज्ञानमती माताजी
दिनांक २३-१२-२०२४
शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या