सामायिक : समभाव की साधना समभाव की साधना को सामायिक कहते हैँ । समभाव क्या ? अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में समान रहना, शान्त रहना, प्रभावित नहीं होना, उद्वेलित नहीं होना, अच्छा -बुरा नहीं मानना, सम रहना। आज चारों ओर विषमता का वातावरण है, जिसके कारण सभी व्यक्ति दुखी हैँ । दुख का कारण आर्थिक विषमता नहीं है, मानसिक विषमता है । आर्थिक विषमता अगर दुख का कारण होती तो सभी सम्पन्न व्यक्ति सुखी होते, जबकि वस्तु स्थिति इसके एकदम विपरीत है । अमेरिका जैसे सम्पन्न देश में दुखी एवं तनावग्रस्त व्यक्ति ज्यादा है । नींद की गोलियाँ सबसे ज्यादा वहीं बिकती हैँ । यह मानसिक विषमता सामायिक की साधना से ही समभाव लाकर मिटायी जा सकती है ” मन की स्थिति को सम बनाने के लिए, 18 पापों का त्याग करने के लिए, सभी पापकारी प्रवृत्तियों का (सावद्य योगों का) त्याग करने के लिए मन को पवित्र बनाने के लिए, मोक्ष प्राप्त करने का अनुष्ठान है -सामायिक । यह वह साधना है, जिसे पूर्ण सम्पन्न का आत्मा परमात्मा बन सकता है । संयमी के जीवनकाल पर्यन्त सामायिक होती है। वे सन्त-मुनिराजजी, महासतीजी धन्य-धन्य हैँ जो यावज्जीवन सामायिक में रहते हैँ । यदि आजीवन सामायिक न बने तो दो घडी (48 मिनट) का साघुपन तो हम सबके जीवन में नित्य हो । गृहस्थ (श्रावक-श्राविका) विषय-कषाय में रहते हुए भी कुछ समय के लिए तो समभाव की उपलब्धि कर सकें, उपलब्धि का प्रयास कर सकें, राग-द्वेष को घटा सकें, इसलिए श्रावक श्राविकाओं को सामायिक करने कीं प्रेरणा एवं शिक्षा गुरु हस्ती सहित सभी आचार्यों-गुरुओं द्वारा दी गई है, दी जा रही है । कुछ लोग ऐसा सोचते -समझते हैँ कि सामायिक में कोरा अकर्मण्य होकर बैठना है । किन्तु ऐसा सोचना सही नहीं है । सामायिक व्रत की आराधना में सावद्य (पापकारी) प्रवृत्ति के त्याग से आस्रव (पापों के आने का रास्ता) रुकता है तो इसमें स्वाध्याय, ध्यान, जप आदि निर्दोष प्रवृत्तियाँ करने से संवर-निर्जरा होती है । सामायिक-साधना निजघर में रहना है, आत्मघर में रहना है, जबकि सामायिक में नहीं रहना परघर में रहना है, बेघरबार रहना है ।
सामायिक वह धार्मिक क्रिया है, जिसके साथ हम अन्य धार्मिक क्रियाओं को भी का सकते हैं। जैसे स्वाध्याय, ध्यान, प्रतिक्रमण, माला जपना आदि-आदि । जैनधर्म की सामायिक की साधना में इतनी क्षमता है कि यदि 48 मिनट तक लगातार शुद्ध समभावपूर्वक सामायिक की जाए तो व्यक्लि मात्र 48 मिनट में अपने ज्ञानावरणीय आदि चारों घाती कर्मों को क्षय करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर सकता है, केवली बन सकता है । जिनवाणी का हमारे ऊपर उपकार है, जिससे हमें सामायिक का महत्त्व जानने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, तो क्यों न हम इसकी साधना में आगे कदम बढा, नित्य प्रति सामायिक की साधना करें, अधिक से अधिक सामायिक की साधना करें । प्रात: सन्ध्या सामायिक हो, व्याख्यान में भी सामायिक हो । कम से कम एक मुहूर्त्त का, नियम सदा का धारण हो “” द्रव्य सामायिक से भाव -सामायिक परिपाटी के रूप में, बिना अन्तरंग उपयोग के चञ्चल मन से, दोषयुक्त जो सामायिक की जाती है वह द्रव्य सामायिक है , जबकि शुद्ध मन से, समभावपूर्वक, अन्तरंग उपयोग सहित, जो निर्दोष सामायिक की जाती है वही भाव सामायिक होती है। भाव सामायिक से ही लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव होती है । लेकिन हमें कभी भी ऐसा नहीं सोचना या कहना चाहिए कि द्रव्य सामायिक करने से तो सामायिक नहीं करना ही अच्छा है । द्रव्य सामायिक ही हमें धीरे-धीरे भाव सामायिक की ओर ले जाती है ” द्रव्य सामायिक भाव सामायिक की सहायक है ” द्रव्य सामायिक के बिना भाव सामायिक की प्राप्सि नहीं की जा सकती है । द्रव्य सामायिक वह ऊर्वरा भूमि है जिस पर भाव सामायिक की लहलहाती फसल प्राप्त की जा सकती है । हमारा प्रयास निरन्तर द्रव्य सामायिक से भाव सामायिक की ओर अग्रसर होते रहना होना चाहिए। दुर्लभ मानव जीवन का सदुपयोग सामायिक करने में है ।
श्रावक त्रिकाल सामायिक करने वाला होता है-सुबह-दोपहर-शाम | सतत साधना एक दिन अवश्य ही शुद्ध सामायिक की प्राप्ति करायेगी, भले ही प्रारम्भ में चञ्चलता क्यों न बाधक बनती हो। सामायिक 32 दोषों (10 मन के, 10 वचन के, 12 काया के) से बचकर करना चाहिये। सामायिक छोटा-बड़ा घर का प्रत्येक सदस्य करें । हमारे माता-पिता और गुरुजनों ने हमें सामायिक के संस्कार दिये । अगर हम हमारे बच्चों को सामायिक के संस्कार नहीं देते हैँ तो हम अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे हैं । हमें कर्तव्य परायण बनना है । मात्र बच्चों का पालन-पोषण करके, अपनी इतिश्री नहीं समझनी है। उनमें सामायिक-स्वाध्याय के संस्कार भरकर अपने कर्तव्यों का पालन करना है । इसी से हम गुरू हस्ती -हीरा की शिक्षा को अपने जीवन में, अपने घर में आचरित कर सकेंगे । सामायिक हमारा व्यक्तिगत धर्म बने। सामायिक हमारा परिवार धर्मं बने। सामायिक हमारा समाज धर्म बने। सामायिक हमारा गाँव/नगर धर्म बने। सामायिक में हम 48 मिनट (एक मुहूर्त्त) के लिए 10 पापों का त्याग करतें हैं, तो रोज 23 घण्टों (29 मुहूर्त) के लिए भी हमारे पाप घटने चाहिए। हमारा ऐसा प्रयास ही सामायिक का सच्चा स्वरूप है । नित्य सामायिक करने वाले का जीवन इतना सरल, इतना पापभीरू, इतना सजग होना चाहिए कि हम सामायिक के समय के अतिरिक्त समय में भी इन पापों से अधिक से अधिक बचते रह सकें। जैसे दवाई की 1 गोली 24 घण्टे तक असर करती है वैसे ही हमारी एक सामायिक का भी हम पर पूरे दिन असर रहना चाहिए। इस प्रकार हमारी सामायिक की साधना शुद्धतर होती जायेगी। सामायिक की शुद्धि सामायिक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की शुद्धि के साथ करनी चाहिए। द्रव्य शुद्धि-जिन उपकरणों की सहायता से सामायिक की जा रही है, वे सादे, स्वच्छ एवं शुद्ध होने चाहिए। हमारे भावों को बढाने में ये उपकरण सहायक होते हैँ। सामायिक के उपकरण अघिक मूल्यवान एवं अधिक आकर्षित करने वाले नहीं होने चाहिए, क्योंकि ऐसे उपकरणों से हमारा तथा अन्य सामायिक साधकों का ध्यान बँटता है, विषम होता है तथा इनकी सुरक्षा की भी चिन्ता-फ़िक्र करनी पड़ती है। सामायिक साधना हेतु हमारा चित्त (मन) शान्त होना चाहिए।
सामायिक विधिपूर्वक एवं वेशभूषा में करने तथा पारने से द्रव्य शुद्धि बनी रहती है। क्षेत्र शुद्धि-समता की साधना करने के लिए अगर विषमता भरे क्षेत्र में बैठेंगे तो समता कैसे प्राप्त की जा सकेगी । जैसे व्यापार करने का स्थान दुकान है, व्यवसाय करने का स्थान आँफिस है, पढाई करने का स्थान स्कूल-कॉलेज़ है उसी तरह से सामायिक की साधना करने का स्थान भी उचित और नियत होना चाहिए। स्थानक में अथवा घर में नियत स्थान में बैठकर सामायिक करना क्षेत्र की शुद्धि है । काल शुद्धि-वैसे तो सामायिक कभी भी की जा सकती है, लेकिन जैसे शरीर की आवश्यक क्रियाओं का, दवाई लेने का, भोजन करने का समय लगभग नियत होता है उसी तरह से सामायिक भी नियत समय पर करना श्रेयस्कर है । समय नियत नहीं करेंगे तो सामायिक करना टलता चला जायेगा और सामायिक से वञ्चित भी रहना पड़ सकता है। घर में, परिवार के सदस्यों को अगर कोई सेवा की या सहायता की अपेक्षा है उस समय उसकी उपेक्षा करके सामायिक करना काल की शुद्धि नहीं कहलायेगा। विवेकपूर्वक उचित और नियत समय पर सामायिक साधना करना काल की शुद्धि है। भाव शुद्धि-जिस प्रकार बुखार आने पर दवाई लेते हैं और देखते रहते हैँ कि दवाई से बुखार कितना कम हुआ, दवाई से लाभ हो रहा है या नहीं, उसी तरह से सामायिक की साधना से भी समभाव की प्राप्ति का अवलोकन करते रहना चाहिए। हमारे विषम भाव कितने कम हुए तथा समभाव कितने आये, इसका निरन्तर चिन्तन करते रहना, ध्यान रखना भाव शुद्धि कहलाता है। समभावों को बढ़ाते रहना भाव शुद्धि है। सामायिक में स्वाध्याय सामायिक में अधिक से अधिक स्वाध्याय करना श्रेयस्कर है । इससे हमारी समता की साधना के साथ-साथ ज्ञान वृद्धि भी हो सकेगी। ऐसा करके ही हम गुरु हस्ती के सामायिक-स्वाध्याय महान् के नारे को सार्थक बना सकते है, अपने जीवन में चरितार्थ कर सकते है ।(जीवन उन्नत करना चाहो तो, सामायिक साधन कर लो।) सामायिक से लाभ 1. सामायिक में श्रावक साधु की तरह होता है । 2. सामायिक में विषय-कषाय का त्याग होता है। 3. सामायिक में निद्रा, प्रमाद, 4 विकथा एवं 4 संज्ञाओं का त्याग होता है । 4.सामायिक में सावद्य योगों से बचा जाता है । 5.सामायिक से समभाव की प्राप्ति होती है। 6.सामायिक समाज सुधार का साधन है । 7.सामायिक में आत्म-शक्ति का अनुभव होता है । 8. सामायिक से आत्म-शक्ति का विकास होता है । 9 सामायिक से चित्त निर्मल बनता है । 10. अनुकूल-प्रतिकूल को सहने का सामथ्र्य प्रकट होता है। 11. स्व-पर, नित्य-अनित्य की विवेक दृष्टि जाग्रत होती है । 12. सामायिक में ज्ञाता-द्रष्टा भाव जाग्रत होता है। सामायिक के अतिचार या दूषण सामायिक में दोष लगाना, विपरीत आचरण करना आदि सामायिक के अतिचार हैँ, जो पाँच हैँ – 1. मन का अशुभ व्यापार-सामायिक के समय मन में ऐसे विचार नहीं आने चाहिए जो सदोष या पापयुक्त हों । मन में गर्व, क्रोध, कामना, भय आदि को स्थान देना मानसिक दोष है जो सामायिक को मलिन बना देता है । 2 .वचन का अशुभ व्यापार-सामायिक में संसार की, व्यापार-व्यवसाय की बातें करना, राग-द्वेष बढाने वाली बातें करना, चार प्रकार की विकथाएँ करना, वचन का दुष्प्रणिधान है, जो सामायिक को सदोष बनाता है । 3.शरीर से अयतना का व्यवहार – सामायिक में इधर -उधर घूमना, बिना देखे या पूंजे चलना, धम-धम कर जल्दी -जल्दी चलना, अनावश्यक हाथ-पैर फैलाना आदि काया के दुष्प्रणिधान है, जो सामायिक के दोष हैं । 4.सामायिक के काल में स्मृति न रहना कि मैं सामायिक की साधना में हूँ और उस दौरान कोई पापकारी प्रवृत्ति कर लेना भी सामायिक का दोष है । 5. सामायिक के काल में करने योग्य कार्य न करना, न करने योग्य कार्य को कर लेना, प्रमाद करना आदि भी सामायिक के दोष हैं जो सामायिक को सदोष बनाते हैँ । उपर्युक्त पाँचों अतिचारों से बचकर सामायिक करना श्रेयस्कर है इसका बराबर ध्यान रखकर निर्दोष सामायिक करने का लक्ष्य होना चाहिए। जिन्दगी भर का कमाया , साथ में क्या जायेगा । इस धरा का इस धरा पर सब धरा रह जायेगा ।। बीतने वाली घडी को कौन लौटा पायेगा । यह सुअवसर खो दिया तो अन्त में पछतायेगा ।। सामायिक के प्रकार सम्यक्त्व सामायिक-सम्यक्त्व प्राप्त होने पर अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय इन सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम हो जाता है । परिणामस्वरूप जीव को तीव्र राग -द्वेष आदि विषमभावों से मुक्ति मिल जाती है । अनन्त संसार का बंध रुक जाता है । सम्यक्त्व की स्थिति में साधक वस्तु -स्वरूप का ज्ञाता हो जाता है । वह राग -द्वेष आदि विकारों में ज्यादा नहीं उलझता है । अपने समभाव को बढ़ाने का प्रयास करता है । इस अपेक्षा से सम्यक्त्व को सामायिक का प्रथम प्रकार माना गया है । सम्यक्त्व धर्माचरण की नींव है। ज्ञान और क्रिया का भव्य महल इसी नींव पर खड़ा किया जा सकता है । सम्यक्त्व सामायिक सभी प्रकार की सामायिक का आधार स्तम्भ है। इसी पर श्रुत और चारित्र सामायिक का टिकना सम्भव है । श्रुत सामायिक-श्रुत से ज्ञान-विज्ञान उत्पन होता है, जो मन की तथा आत्मा की विषमताओं को गला देता है, नष्ट का देता है। इसलिए श्रुताराधन को सामायिक की संज्ञा दी गई है।
श्रुत सामायिक से यानी श्रुत आराधन से जड़ चेतन का, स्व-पर का परिज्ञान होता है । श्रुत सामायिक में शास्त्रों का विधिपूर्वक, मर्यादापूर्वक, काल-अकाल देखकर अध्ययन करना, उनके मर्म को समझना तथा शास्त्रज्ञान से अपने आपको समृद्ध बनाते हुए अपने सम्पर्क में आने वालों को भी श्रुतज्ञान से लाभान्वित करना समाहित है । चारित्र सामायिक-सम्यक्त्व सामायिक एवं श्रुत सामायिक से समृद्ध होकर जो साधक सावद्य योगों का (पापकारी प्रवृत्तियों का) त्याग करता है, उसे चारित्र सामायिक कहते है । अणगार और आगार की अपेक्षा से इसके दो भेद किये गये हैँ।
जो व्रत अंगीकार कर नैतिकता और प्रामाणिकता को अपने जीवन में उतारकर जीवन व्यवहार करता है उसका जीवन बहुत अच्छी तरह से चलता है । कोई भी आ जाये, उसको किसी प्रकार का पाप और भय नहीं होता है |