सार्थक जीवन
प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में गुण और अवगुण दोनों का समावेश होता है। हमारा चिंतन सदैव गुणों की ओर, सकारात्मकता की ओर, अच्छाई की ओर होना चाहिए। इसमें हमें वास्तविक शांति और प्रसन्नता का अनुभव होगा। निराशावादी, नकारात्मक एवं अवगुणों से भरे मनुष्य अपने चारों और अभाव और दोष का दर्शन करते हैं। वे अपने जीवन में शांति और प्रसन्नता का अनुभव कभी नहीं कर सकते। एक ही परिस्थिति और घटना को दो व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से ग्रहण करते हैं, लेकिन जिनका चिंतन सकारात्मक होता है, वह दुख को सुख, अभाव को भाव, अशांति को शांति और अंधकार को प्रकाश में बदलने में सफल हो सकते हैं। जो इस तरह की कला जानते हैं, उन्हीं का जीना सार्थक है, वे ही सच्चे मानव हैं।
प्रत्येक व्यक्ति शांति के साथ जीना चाहता है। अशांत जीवन कोई नहीं जीना चाहता। प्रश्न है कि हम किसे शांति मानें और किसे अशांति ? सदा अनुकूल परिस्थिति का निर्माण हो, सदैव ऐसा नहीं होता। प्रतिकूल परिस्थितियां भी बनती रहती हैं। स्थायी शांति तो वहां है, जहां अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रकार की स्थिति आने पर भी मनुष्य का मन क्षुब्ध नहीं होता। मनचाहा हुआ तब भी शांति। मन का नहीं हुआ तब भी शांति। जब यह वृत्ति. बनती है, तभी शांति का अर्थ समझ में आ सकता है। हालांकि, हर एक व्यक्ति में इतना सामर्थ्य नहीं है। जब तक सुख और दुख में समता और संतुलन का विकास करने की क्षमता विकसित नहीं होती, तब तक व्यक्ति दुख को सुख में बदलने की कला से सुसज्जित नहीं हो सकता।
सुख से प्यार और दुख से घृणा की मनोवृत्ति ने ही मनुष्य को इतना अधिक विरोधाभासी जीवन दिया है। जब मन में शांति के फूल खिलते हैं तो कांटों में भी फूलों का दर्शन होता है। जब मन में अशांति के कांटे होते हैं तो फूलों में भी चुभन और पीड़ा का अनुभव होता है। यह सब दृष्टिकोण का फर्क होता है। सही दृष्टिकोण विकसित करने के लिए हमें अपनी दृष्टि बदलनी पड़ती है।